नैसर्गिक प्रतिभा के धनीः डॉ. बनवारी लाल गौड़
आलेख | साहित्यिक आलेख डॉ. सुधांशु कुमार शुक्ला15 Nov 2019
डॉ. बनवारी लाल गौड़ जी का नाम किसी परिचय का मोहताज़ नहीं है। उनकी कहानी मीठी ईद, काली मर्सिडीज और हैलो पढ़ीं। अभी हाल ही में उनकी कविता-
ए राम तुमने क्या किया,
इतना कठिन निर्णय लिया,
कि एक दुर्जन के कथन पर,
त्याग दी पल में सिया।
एक पल को भी न सोचा,
पल रहे उसके उदर में
सूर्यवंशी दो तुम्हारे,
जन्म लेंगे किस डगर में,
कौन मानेगा कि कार्य,
तुमने मर्यादित किया।
यदि तुम्हें करना यही था,
तो न लेनी थी परीक्षा,
तुम न थे अच्छे परीक्षक,
ली परीक्षा पर परीक्षा,
कृत्य था यह जन विरोधी,
बिन विचार क्यों किया।
नीर के बिन मीन सी वह,
प्राण सी विहीन सी वह,
याचना भरकर नयन में,
दीन सी वह हीन सी वह,
सोचती अंतिम पलों तक,
सोच बदलेंगे पिया।
इस कविता का पाठ मैंने कई बार किया जितनी बार पाठ किया, उतनी बार मस्तिष्क में विचारों का युद्ध आरंभ हो गया। निराला की 'राम की शक्ति पूजा' के बाद आधुनिक युग में राम के चरित्र पर ऐसे प्रश्नों की बौछार करने वाले कवि के व्यक्तित्व को समझने जानने के लिए मन व्याकुल हो उठा। यह कवि ऐसी हिमाकत किस बल पर कर रहा है, भगवान राम पर, इष्ट पर, आराध्य पर समझने के लिए चिंतन के पश्चात् भक्ति के स्वरूप को प्रकट करती, इनकी यह कविता, अपने आराध्य राम के प्रति सख्य भक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण लगी। जिस प्रकार सूरदास ने दास्य भक्ति को छोड़कर वल्लभाचार्य के अष्टछाप कवियों में आने पर सख्य भक्ति को अपनाया और विश्व-पटल पर सख्य भक्ति का परचम लहराया। सखा के रूप में ही हम अपने आराध्य इष्ट से प्रश्न करते हैं, प्रश्न पर, प्रश्न करते हैं और उनकी लीला का वर्णन करते हैं। मित्रता के भाव में सूर कृष्ण से कहते हैं-
आज मैं एक एक करि लरिहौं,
कै तुम्हीं कै हमहीं मोहन अपने भरोसे करिहौं।
राम के प्रति तुलसीदास की दास्य भक्ति का बोलबाला है। वहाँ स्वामी भाव है और सेवक अपने स्वामी से सूरदास की तरह बात नहीं कर सकता है। सूरदास अपने भक्तिभाव, अपने बल, अपनी मित्रता के बल पर मोहन से लड़ते नज़र आते हैं। बिहारी ने भी अपने इष्ट पर आपेक्ष लगाते हुए उदारमना बनने की बात की है-
तोरे ही गुन रीझते बिसराई वह बानि
तुमहू कान्ह मनौ भए, आज काल के दानि
कलयुगी दानियों की भाँति आप आज व्यवहार करने लगे हो, पहले तो आप थोड़े से गुणों से प्रसन्न होकर कृपा करते थे, अब आप को अधिक गुणों से प्रसन्न करना पड़ता है।
भारतीय संस्कृति में राम के मर्यादित चरित्र और दास्यभक्ति की परम्परा से जुड़े रचनाकारों के कारण उनसे प्रश्न करना राम-भक्तों को उचित सा नहीं लगता है, यही कारण है कि यह कविता सामान्य तौर से पढ़ने और सुनने पर ऐसी स्थिति का बोध कराती है। परन्तु ऐसा लेशमात्र भी नहीं है। यह कविता अपने इष्ट राम के प्रति समर्पित, अटूट भक्ति का ज्वलंत उदाहरण है, साथ ही साथ प्रासंगिक होते हुए कई परिप्रेक्ष्य को उद्घाटित करती प्रतीत होती है। कवि पूरी आस्था और विश्वास के साथ प्रश्न करते हैं, साधक में जिज्ञासा का होना, उसकी जिंदादिली और सजगता का बोध कराता है। राम के विराट् रूप का भान कराने वाली यह कविता कवि की लोकमंगल दृष्टि का संकेत देती है। नारी के प्रति सम्मान, सीता माता के प्रति सम्मान रखने का भाव कवि गौड़ को प्रसाद की कोटि में लाकर खड़ा करता है-
नारी तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास रजत नग तल पल में
पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुंदर समतल में॥
वह अच्छी तरह से समझते हैं कि मनुस्मृति में कहा है- यत्र नार्यस्तु पूजन्ते तत्र रमन्ते देवताः। ऐसी श्रद्धेय सीता को छोड़ने के माध्यम से उठाया गया प्रश्न विश्व में नारी समाज की दशा और दिशा को ध्वनित करता है। आज नारी को दोयम दर्जे का मानकर चाहें कितनी शिक्षित, सुशील नारी क्यों न हो पुरुष अपने अहंभाव के कारण उसे उपेक्षित करता है। पृथ्वी से बड़ी माता को आज भी गर्भावस्था में छोड़ दिया जाता है। ऐसी घटनाएँ खूब सुनने देखने को मिलती हैं। आए दिन बहन-बेटियों के साथ क्या नहीं हो रहा है। हवस के दरिंदे कितना अमानवीय जघन्य कार्य करने से बाज नहीं आते हैं। उनका सम्मान न करना, उनके प्रति ऐसा रवैया समाज को पतन की ओर ले जा रहा है। यह प्रश्न हमें सचेत करता है कि उनकी ओर भी हमारी मानवीय दृष्टि होनी चाहिए, वे भी समानता की अधिकारी हैं।
यह कविता मनुस्मृति के आचरण सिद्धांत को व्याख्या के रूप में अभिव्यक्ति देती है। बिना विचारे समझे कार्य करने पर कार्य तो सफल होता ही नहीं है, बदनामी का टीका, कलंक माथे पर लगा जाता है। बहुत सोच समझकर किसी भी विषय में निर्णय लेना चाहिए। अपने मुस्लिम समाज की बहन-बेटियों को मात्र तीन बार तलाक-तलाक-तलाक कहने मात्र से अपने कर्तव्यबोध से बचना, इंसानियत नहीं जघन्यता है। यह कार्य जल्दी का है और जल्दी में किया गया निर्णय शैतान का कार्य होता है। यही कारण है कि आज वही शैतान ट्रिपल तलाक पर बिलबिला रहे हैं। सरकार के द्वारा सोचा समझा निर्णय मुस्लिम समाज की बेटियों के जीवन को सम्मान की दृष्टि से देख रहा है, उन्हें भी हिंदू बेटियों की तरह अधिकार मिलें। कवि ने यूरोपीय समाज में तलाक के बढ़ते ग्राफ की ओर भी देखने-समझने को मज़बूर कर दिया है। भारत में युवा समाज भावावेश में अपरिपक्वता में इसका शिकार होता जा रहा है। नारी और पुरुष एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, एक दूसरे से बंधे, एक के बिना दूसरे का कोई अस्तित्व नहीं है।
कवि का अपने आराध्य राम से यह प्रश्न वह सीता बिन नीर मछली सी तड़प कर दीन हीन सी क्या करेगी बड़ा ही मार्मिक और सार्थक है। ऐसी महिला कहाँ रहेगी, कौन आश्रय देगा। अगर मनुष्य इतना सोच भर कर ले तो शायद तलाक, छोड़ने की स्थिति ही ना आए। मनुष्य आवेश में, दूसरे के बहकावे में आकर प्रायः ऐसी गलती करता है, बाद में पछताता है।
कवि ने व्यक्ति और समाज को भी लक्ष्य करते हुए प्रश्न किया है, एक मात्र दुर्जन के कहने पर आपने सीता को त्याग दिया, जबकि समाज तो पूरा सीता के साथ था, सबने मना किया परन्तु आप ने दुर्जन के कहने मात्र पर ऐसा किया। सीता-माता के पक्ष में पूरा समाज था। आज लोकतंत्र में एक व्यक्ति की आवाज का कोई अर्थ नहीं है, समाज की आवाज का मूल्य है। आपने फिर ऐसा क्यों किया? आप व्यक्तिगत क्यों हुए?
कवि ने परीक्षा पर परीक्षा लेने के माध्यम से आज की शिक्षा व्यवस्था पर भी कई प्रश्न खड़े कर दिए हैं। सीता की दो बार परीक्षा लेने पर भी ऐसा करना था, तो परीक्षा का क्या मूल्य है। आज हमारे देश में छात्रों को एक परीक्षा तो डिग्री पाने के लिए देनी पड़ती है। 15 वर्ष तक प्रत्येक वर्ष एक एक परीक्षा देकर वह बी.ए., बी.एस.सी., बी.कॉम अर्थात् स्नातक की उपाधि पाता है फिर नौकरी के लिए परीक्षा पर परीक्षा देता है, फॉर्म भरता, परीक्षा देता है, पास होता है बाद में परीक्षा रद्द हो जाती है। कवि ने परीक्षकों और परीक्षा के संबंधों में आई गिरावट को दिखाकर परीक्षकों के विवेक पर प्रश्न चिह्न लगाया है। ऐसी परीक्षा किस काम की जो गुणवत्ता ना ढूँढ सके। शिक्षा जगत की चरमराई स्थिति को दिखाया गया है। भारतीय युवा की बेरोज़गारी, परीक्षा पद्धति के तौर-तरीके से तनावग्रस्त लोगों की लाचारी को बहुत ही सुंदर ढंग से व्यक्त किया है।
आचार्य दण्डी ने अपने काव्यशास्त्रीय काव्यादर्श में काव्य के तीन हेतु- प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास माने हैं-
नैसर्गिकी च प्रतिभा श्रुतं च बहुनिर्मलम्
अमन्दश्चाभियोगो अस्याः कारणं काव्यसम्पदः
नैसर्गिक अर्थात् स्वाभाविक प्रतिभा काव्य का मूल हेतु है। प्रतिभा के बल पर कवि बिना प्रयास के भी काव्य रचना कर सकता है। नैसर्गिक प्रतिभा को दण्डी पूर्व जन्म के संस्कार मानते हैं।
कवि पूर्व जन्म के संस्कारों से उपजी नैसर्गिक प्रतिभा के धनी हैं। एक सिविल इंजीनियर होते हुए बिहारी की तरह गागर में सागर भरने की कला में निपुण हैं। उनका आस्था और विश्वास के साथ अपने आराध्य से प्रश्न करने के साथ आज की स्थिति को खोल कर रख देना उनकी नैसर्गिक प्रतिभा का उत्कृष्ट उदाहरण है। कवि की सहजता, सरलता, निश्छलता अर्थात् व्यक्तित्व इस कविता में छलकता है। यह कविता वास्तव में कई प्रश्नों को उछालती, सोचने-समझने को मज़बूर करती राम और सीता के प्रति भक्ति भाव के साथ-साथ नारी समाज की ओर संकेत करती दिखलाई पड़ती है। आधुनिक समय में फैली विसंगतियों का सुंदर एवं सार्थक चित्र प्रस्तुत किया गया है। इस लघु कविता पर सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर, वाली बात चरितार्थ होती है। डॉ. गौड़ का रचना संसार समसामायिकता और तथ्यों से परिपूर्ण है, उनकी कविता आज भी और आने वाले दिनों में भी यह प्रश्न पूछती, टटोलती दृष्टगोचर होगी।
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