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नानक सिंह एवम् प्रेमचंद का जीवन दर्शन और साहित्यिक मान्यताएँ

प्रेमचन्द ने सत्य ही कहा था "साहित्यकार बहुधा अपने देशकाल से प्रभावित होता है, वास्तव में जिस प्रकार बेतार के तार का ग्राहक यंत्र (रिसीवर) आकाश मंडल में विचरती हुई विद्युत तरंगों को पकड़कर उनको भाषित शब्द का आकार देता है, ठीक उसी प्रकार उपन्यास लेखक अपने समय के वायुमण्डल में घूमते हुए विचारों को पकड़कर मुखरित कर देता है। इसलिए दो निकटस्थ वायुमण्डलों में घूमते विचारों को यदि दो भिन्न भाषाओँ के उपन्यासकारों ने प्रायः समान ढंग से मुखरित किया हो, तो इसमें आश्चर्य नहीं है।"

हिंदी और पंजाबी भाषाओं का साहित्य अपने आंतरिक सम्बन्ध की दृष्टि से दो निकटतम भाषाओं का साहित्य अनेक रूपों में एक दूसरे को प्रभावित करता रहा है। प्रेमचंद और नानक सिंह भारतीय कथा साहित्य के दो आधार स्तम्भ हैं। जिस प्रकार हिंदी उपन्यास क्षेत्र में प्रेमचंद का प्रादुर्भाव एक नए युग का द्योतक है, उसी प्रकार पंजाबी उपन्यास साहित्य में नानक सिंह के अवतरित होते ही एक नवीन दिशा का प्रवर्तन होता है। ये दोनों अपने युग के उपन्यास सम्राट माने जाते हैं और इनके युग में कोई भी ऐसा उपन्यासकार नहीं हुआ, जो कि इनके विराट साहित्यिक व्यक्तित्व से प्रभावित न हुआ हो। सन् 1960 में साहित्य अकादेमी की ओर से नानक सिंह को सम्मानित किया गया जो कि उसकी प्रतिष्ठा एवम् महत्ता का परिचायक है। इस प्रकार दोनों ही अपने युग के सर्वप्रमुख, सर्वश्रेष्ठ, एवम् सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासकार हैं। प्रेमचंद और नानक सिंह हिंदी तथा पंजाबी भाषा के ही नहीं अपितु भारतवर्ष के महान उपन्यासकारों में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। प्रेमचंद के उपन्यासों का प्रायः सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। नानक सिंह की कृतियाँ हिंदी के अतिरिक्त, गुजराती, उर्दू, कन्नड़ आदि में अनुवादित हुई है। प्रेमचंद की लोकप्रियता केवल भारत में ही नहीं विदेशों में भी फैल चुकी है। यूनेस्को की ओर से प्रेमचंद की महत्वपूर्ण कृतियों का विश्व की समस्त उन्नत भाषाओँ में अनुवाद हो चुका है।

नानक सिंह के "चिट्टा लहू" उपन्यास का रूसी भाषा में अनुवाद हो चुका है। ये समस्त कार्य दोनों उपन्यासकारों की महानता, लोकप्रियता के परिचायक हैं। वस्तुतः प्रेमचंद और नानक सिंह का हिंदी और पंजाबी साहित्य में ही नहीं प्रत्युत भारतीय उपन्यास साहित्य के विकास में भी उल्लेखनीय योगदान है। साहित्यकार जीवन का पर्यवेक्षक ही नहीं, जीवन का द्रष्टा भी होता है। वह अपनी कृतियों के माध्यम से जीवन के प्रति प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अपना दृष्टिकोण अभिव्यक्त करता है। जीवन के निरीक्षण परीक्षण, चिन्तन एवम् मनन के उपरांत साहित्यकार जिन सत्यों, मूल्यों तथा विश्वासों को प्रस्तुत करता है, उन्हीं को जीवन दर्शन की संज्ञा प्रदान की जा सकती है। प्रत्येक रचना का वैशिष्ट्य उसमें निहित साहित्यकार का सशक्त जीवन-दर्शन ही होता है। साहित्यकार व्यापक अनुभव, दृष्टिकोण एवम् भावात्मक व्यक्तित्व के आधार पर जिस जीवन-दर्शन को प्रतिपादित करता है, वह व्यावहारिक, जीवनोपयोगी एवम् प्रभावोत्पादक भी होता है। नानक सिंह और प्रेमचंद के जीवन दर्शन और साहित्यिक मान्यताओं को मैं निम्न बिंदुओं से स्पष्ट करना चाहूँगा -

नारी चेतना -

नारी समाज का विशिष्ट एवम् अभिन्न अंग है। मानव सभ्यता एवम् संस्कृति का इतिहास मूलतः नारी की स्थिति, उसके विकास आदि से ही प्रतिबिम्बित होता है। मानव ने जब भी स्वयं को जीवन संघर्ष में असफल अनुभव किया, मानसिक विकलता से आक्रांत पाया, पीड़ा तथा अवसाद की वीथियों पर डगमगाया, सभ्यता की दौड़ में उसका विकास अवरुद्ध हुआ तब नारी ही उसकी अंगरक्षक बनी और उसने विकास की सही दिशा दी। प्रेमचंद नारी को उदात एवम् आदर्श भावों की साक्षात प्रतिमा मानते हैं। सृष्टि के विकास क्रम में वह आदमी से श्रेष्ठ ही नहीं, आगे भी है - "पुरुष में थोड़ी सी पशुता होती है, जिसे वह इरादा करके भी हटा नहीं सकता। वह पशुता उसे पुरुष बनाती है, विकास-क्रम में पीछे है, जिस दिन वह पूर्ण विकास को पहुँचेगा, वह भी स्त्री हो जायेगा।"1 "गोदान" में मेहता कहते हैं, "मैं प्राणियों के विकास में स्त्री के पद को पुरुष के पद से श्रेष्ठ समझता हूँ, उसी तरह जैसे प्रेम और त्याग और श्रद्धा को हिंसा और संग्राम और कलह से श्रेष्ठ समझता हूँ, अगर हमारी देवियाँ सृष्टि एवम् पालन के देवमंदिर से हिंसा और कलह के दानव-क्षेत्र में आना चाहती हैं तो उससे समाज का कल्याण न होगा।"2 प्रेमचंद ने अबलापन का खंडन समरकान्त से करवाते हुए कहा है, "स्त्रियों को संसार अबला कहता है, कितनी बड़ी मूर्खता है मनुष्य जिस वस्तु को प्राणों से भी प्रिय समझता है वह स्त्री की मुट्ठी में है।"3 प्रेमचंद पश्चिमी नारी के समान ही अपने अस्तित्व को नष्ट कर देने वाली भारतीय नारी के घोर विरोधी हैं – "पश्चिम की स्त्री आज घर की स्वामिनी नहीं रहना चाहती। भोग की विदग्ध लालसा ने उसे स्वार्थी बना दिया है। वह अपनी लज्जा और गरिमा को जो उसकी सबसे बड़ी विभूति थी, चंचलता और आमोद प्रमोद पर होम कर रही है...... उनकी लालसाओं ने उन्हें इतना पराभूत कर दिया है कि वे अपनी लज्जा की भी रक्षा नहीं कर सकतीं। नारी की इससे अधिक और क्या अधोगित हो सकती है?"4

नानक सिंह के विचार में "नारी की स्थिति एक कटी हुई पतंग के समान है, जिसकी डोर लूटने के लिए हर व्यक्ति तत्पर रहता है, इस प्रकार स्त्री का अस्तित्व तभी तक सुरक्षित है, जब तक उसकी डोर किसी पुरष के हाथ में है। यदि डोर कट गयी या छोड़ दी गई तो पतंग के समान ही स्त्री का भी कोई ठोर-ठिकाना नहीं है। धरती पर गिरते ही यदि किसी के हाथ पड़ गयी तो उस पर उसका स्वामित्व हो जायेगा, नहीं तो अनेक पतंग लूटने वालो के हाथ में पड़कर उसका व्यक्तित्व खंड-खंड हो जायेगा।"5

प्रेम और वासना -

प्रेम मानव की जन्मजात प्रवृति है। प्रेम इस व्यापकत्व तथा प्राधान्य के कारण मानव मानस का सर्वोतम रत्न है। प्रेमचंद ने प्रेम को चित की प्रवृति के अतिरिक्त ईश्वरीय प्रेरणा भी माना है- "प्रेम ईश्वरीय प्रेरणा है, ईश्वरी संदेश है, प्रेम के संसार में आदमी की बनायी सामाजिक व्यवस्थाओं का कोई मूल्य नहीं।"6 "प्रतिज्ञा" में अमृतराय कहते हैं- "प्रेम कोई बाजार का सौदा है, जी चाहा लिया, जी चाहा न लिया। प्रेम एक बीज है जो एक बार जमकर फिर बड़ी मुश्किल से उखड़ता है, कभी-कभी तो जल- प्रकाश और वायु बिना ही जीवनपर्यंत जीवित रहता है।"7

नानक सिंह ने भावात्मक स्तर पर प्रेम को एक क्षणभंगुर तथा अस्थिर भाव की संज्ञा प्रदान की है। इसके अस्तित्व एवं वास्तविकता का खंडन करते हुए कहते हैं, "प्रेम जीवन की अनिवार्यता है क्योंकि प्रेम में परमात्मा के समान शक्ति है। प्रेम का अभाव जहाँ एक और मानवता को पाशविकता की ओर प्रेरित करता है, वहाँ दूसरी ओर प्रेम में इतनी शक्ति है कि वह पाशविकता को मानवता में परिणत कर देता है।"

धन -

आधुनिक समाज व्यवस्था अर्थ प्रधान है, जिसके पास अर्थ है भीड़ भी उसकी गुलाम है। प्रेमचंद धन को संसार की सर्वप्रमुख आवश्कता मानते हैं। उनका विचार है कि धन के अभाव में जीवन का कोई भी कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न नहीं हो सकता है। यहाँ तक कि धर्म जैसे निस्वार्थ कार्य की सिद्धि के लिए भी धन की आवश्कता है। इसी कारण संसार ने धन को जीवन का लक्ष्य मान लिया है। इसके विपरीत नानक सिंह ने धन को अधिक महत्व नहीं दिया है। उन्होंने "गंगाजली विच शराब" में प्रतिपादित किया है कि धन के द्वारा संसार के प्रायः सभी कार्यों में सफलता प्राप्त करना सम्भव नहीं है। प्रायः धन को आदर्श के सामने पराजय स्वीकार करनी ही पड़ती है। "संगम" में वे कहते है- "धन किसी व्यक्ति की विरासत अथवा स्थायी सम्पति नहीं है, यह तो ढलता हुआ परछांव है।"8 जो एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के पास आता जाता रहता है।

स्वराज्य का स्वरूप -

प्रेमचंद और नानक सिंह स्वधीनता के बाद देश के भावी स्वरूप के विषय में अधिक आशाजनक नहीं थे। उन्हें विश्वास था कि जो नेता वर्ग स्वराज्य तथा रामराज्य की बढ़-चढ़ कर बातें कर रहे हैं वो केवल कोरा दिखावा है। "गबन" में देवीदीन इस स्थिति पर प्रकाश डालते हुए कहता है-"जब तुम सुराज का नाम लेते हो, उसका कौनसा स्वरूप तुम्हारी आँखों के सामने आता है? तुम भी बड़े- बड़े तलब लोगे, तुम भी अंग्रेजों की तरह महलों में रहोगे, पहाड़ों की हवा खाओगे, अंग्रेजी ठाठ बनाये घूमोगे। इस सुराज से देश का क्या कल्याण होगा। तुम्हरी और तुम्हारे भाई बन्धुओं की जिन्दगी भले आराम और ठाठ से गुजरे......अभी तुम्हारा राज नहीं है, तब तो तुम भोग-विलास पर इतना मरते हो, जब तुम्हारा राज हो जायेगा, तब तो तुम गरीबों को पीस कर पी जाओगे।"9

नानक सिंह "कट्टी हुई पतंग" में चमेली के माध्यम से स्वाधीनता के बाद के समय की आलोचना करते हुए वे कहते हैं- "पहले जब अंग्रजों का शासन था तो वे दोनों हाथों से देश को लूटते थे, लेकिन जब हमारा राज्य आया तो यह लूट और भी बढ़ गयी। परिणामतः महंगाई, बेकारी, गरीबी आदि में वृद्धि होने लगी। जिन नेताओं से जनता के कष्टों को दूर करने की अपेक्षा की जाती थी, वे ही यदि जनता का खून चूसने लगें तो स्वराज्य एक प्रपंच मात्र ही रह जाता है।"10

गाँधीवाद -

प्रेमचंद और नानक सिंह गाँधीवादी विचारधारा से प्रेरित ही नहीं, प्रभावित भी थे। दोनों ने ही गाँधीवाद के सत्य, अहिंसा, हृदय परिवर्तन आदि तत्वों का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से निरूपण किया है। "अहिंसा के आदर्श ने हिंसा का हथियार हाथ में होने पर भी उनका दामन न छोड़ा।"11 "रंगभूमि" में सूरदास द्वारा परिचालित सत्याग्रह अहिंसक रूप से हृदय-परिवर्तन के सिद्धांत को प्रतिपादित किया गया है।12

नानक सिंह सत्य और अहिंसा के सिद्धांत का अनुगमन करते हुए समाज में परिवर्तन लाने के पक्षपाती हैं। "अणसीते जख्म" में गोपीनाथ शर्मा जेल से संतोख सिंह को आन्दोलन में हिंसा का प्रयोग न करने का आग्रह पूर्ण पत्र लिखता है, क्योंकि यही तो गाँधीजी की अभिलाषा और आदेश था।"13 नानक सिंह साम्यवाद की अपेक्षा गाँधीवाद की श्रेष्ठता सिद्ध करते हुए भारती के मुख से कहलवाते हैं- "महानायक गाँधी ने अहिंसा एवम् शांति का जो बीज बिखेर रखा है, उनके प्रभावों के आगे हमारी दाल ही नहीं गलती थी।"14

मानवतावाद -

प्रेमचंद और नानक सिंह मूलतः मानवतावादी उपन्यासकार हैं। दोनों ने गाँधीवाद और मार्क्सवाद से प्रभाव ग्रहण किया है, लेकिन ये विचारधाराएँ मानवता विरोधी नहीं है। इन विचारधाराओं के महत्व को यद्यपि दोनों ने स्वीकार किया है किन्तु वे किसी को समग्रतः आत्मसात नहीं कर पाए हैं। प्रेमचंद मनुष्य में ग्लानी अथवा पश्चाताप से मानवीयता के जागरण का समर्थन करते हुए कहते हैं- "इन्सान कितना ही हैवान हो जाय, उसमें कुछ न कुछ आदमियत रहती है। आदमियत अगर जाग सकती है तो ग्लानी से या पश्चाताप से।"15

नानक सिंह के दर्शन का मूल मन्त्र है- सब मनुष्यों को एक ही समझो। इसी मानवतावादी दृष्टिकोण के आधार पर वे लिखते हैं- "धार्मिक दृष्टि से मैं एक मामूली सा सिक्ख हूँ, केवल दर्शन (जीवन) के अनुसार मेरे लिए यदि कोई महामंत्र है तो वह है- मनुष्य जाति में सभी को एक ही समझो।"16 मनुष्य चाहे सिक्ख हो, मुसलमान हो, चाहे हिन्दू हो, उसकी कोशिकाओं में रक्त हमेशा लाल ही होता है और आँसू खारे!

जीवन -

जीवन जीने की एक कला है जिसे प्रत्येक व्यक्ति अपने अनुसार रंगों से सजाता है। जीवन जीते हुए कई सामाजिक बंधंन भी उसे जकड़े रहते है जिसमे धर्म और नैतिकता प्रमुख है। गोदान का होरी, रंगभूमि का सूरदास, कर्मभूमि के डॉ. शान्तिकुमार आदि जीवन के इस खेल में बार-बार असफल होने पर भी उत्साह एवम् साहस का परित्याग नहीं करते और खेल को खेल की तरह खेलते हैं- "खिलाडियों में बैर नहीं होता..। खेल में चोट लग जाए, चाहे जान निकल जाए, पर बैर भाव न आना चाहिय।"17 सूरदास और होरी अंतिम क्षण तक अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करते हुए आशावादी परिलक्षित होते हैं।

नानक सिंह जीवन को रणभूमि के रूप में स्वीकार किया है। इस जीवन रूपी रणभूमि में दो विरोधी शक्तियाँ दैवी तथा दानवी, परस्पर संघर्षरत हैं लेकिन विजय शक्तिशाली एवम् समर्थ की ही होती है। नानक सिंह के मानव के इस संघर्ष को ही जीवन की संज्ञा प्रदान की है- "मानव न केवल देवदूत है और न शैतान है। अपितु भगवान ने उसे इन दोनों का ही स्वामी बनाया है अथवा उसको देवदूत तथा शैतान के बीच खड़ा करके कुदरत ने उसकी एक बाजू देवदूत को पकड़ा दी है और दूसरी शैतान को। दोनों में जो बलशाली होता है, वही उसे अपनी और खींच कर ले जाता है। मनुष्य की इस खींच-तान का दूसरा नाम मेरी समझ में जीवन है।"18

जगत -

प्रेमचंद इस संसार अथवा जगत को ईश्वर का ही विशाल रूप मानते हैं- "संसार ईश्वर का ही विराट् स्वरूप है, जिसने संसार को देख लिया, उसने ईश्वर के विराट् स्वरूप के दर्शन कर लिया।"19 नानक सिंह की दृष्टि में यह संसार असत्य और क्षण-भंगुर न होकर सत्य तथा स्थायी है और ईश्वर का ही रूप है। प्रत्येक रूप में ईश्वर ही प्रतिबिम्बित होता दिखाई देता है।

पाप-पुण्य -

प्रेमचंद और नानक सिंह ने पाप पुण्य जैसे विवादास्पद विषय को भी स्पष्ट करने का प्रयास किया है। प्रेमचंद पाप को अग्नि का कुण्ड मानते हैं। "पाप अग्नि का वह कुण्ड है जो आदर, मान और साहस को क्षण भर में जलाकर भस्म कर देता है।"20

नानक सिंह ने "पाप को इक पौधा माना है जिसका जन्म हृदय में होता है। मस्तिष्क में विकसित होता हुआ यह पौधा शरीर में फलता है।"21 पाप ही होता है जहाँ सांसारिक कामनाएँ हों, स्वार्थ दुर्भावनापूर्ण हो।

धर्म -

प्रेमचंद ने मन और कर्म की शुद्धता को ही धर्म का ही मूल तत्व स्वीकार किया है। उनका धर्म मूलतः मानव धर्म है। उनके अनुसार, " धर्म हमारी रक्षा और कल्याण के लिए है।"22 प्रेमचन्द लिखते हैं "धर्म का मुख्य स्तम्भ भय है, अनिष्ट की शंका को दूर कर दीजिए, फिर तीर्थ-यात्रा, पूजा-पाठ, स्नान ध्यान, रोजा-नमाज किसी का निशान भी न रहेगा।"23

नानक सिंह तो धर्म को मानव-हित का साधन मानते हैं। यदि धर्म मानव हित की भावना से अनुप्रेरित होकर जन-जीवन विकास में सहायक नहीं है तो उसका समाप्त हो जाना ही उचित है। "धर्म एक ऐसा आत्म-स्पर्श हैं जो हमारे जीवन में स्थिर होकर उत्साह एवम् प्रफुल्लता पैदा करता है।"24 प्रेमचंद ने मानव धर्म को ही धर्म की संज्ञा प्रदान की है जबकि नानक सिंह ने धर्म को उत्साह तथा आनन्द प्रदायक आत्म-संस्पर्श स्वीकार किया है।

ईश्वर -

धर्म का सदैव ही ईश्वर से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है क्योंकि ईश्वर को ही धर्म का जन्मदाता एवम् धर्म-संस्थापक के रूप में परिकल्पित किया गया है। प्रेमचंद और नानक सिंह प्रारम्भ में ईश्वर में आस्था एवम् विश्वास रखते थे, किन्तु बाद में इनकी ईश्वर के प्रति धारणा तथा मान्यता परिवर्तित हो गयी थी। गोदान में प्रेमचंद प्रोफेसर मेहता के माध्यम से कहते हैं, "प्राणियों के जन्म-मरण, सुख-दुःख, पाप-पुण्य में कोई ईश्वरीय विधान नहीं है। ईश्वर की कल्पना का एक ही उदेश्य उनकी समझ में आता था और वह था मानव जाति की एकता।"25

नानक सिंह ने ईश्वर विषयक विचारों को राज सिंह के माध्यम से कहलवाया है, "ईश्वर कहीं ऊपर आसमान में सिंहासन लगा कर नहीं बैठा है। वह तो सृष्टि में व्याप्त होकर उसे परिचालित करता है, फिर भी यदि ईश्वर का अस्तित्व किसी विशेष स्थान पर देखना है तो वह है मानवता। जिसको उसने (ईश्वर) अपने रूप से सज्जित करके या प्रस्थापन करके इस दुनिया में भेजा है।"26

मृत्यु -

मृत्यु मानव जीवन की सबसे बड़ी लौकिक वेदना है, इसकी अनिवार्यता मनुष्य को सदैव ही भयभीत एवम् पीड़ित करती रहती है। प्रेमचंद के विचार से "मृत्यु तो केवल पुनर्जीवन की सूचना है, एक उच्चतर जीवन का मार्ग है।"27 नानक सिंह की दृष्टि में "मृत्यु जीवन- मंज़िल का एक पड़ाव है।"28

साहित्य -

प्रेमचंद के अनुसार- "साहित्य का आधार जीवन है। इसी नींव पर साहित्य की दीवार खड़ी होती है।"30 साहित्य तथा जीवन के इस सम्बन्ध को स्वीकार करते हुए वे साहित्य को जीवन की आलोचना मानते हैं। "साहित्य की बहुत सी परिभाषायें की गयी हैं, पर मेरे विचार से उसकी सर्वोतम परिभाषा ‘जीवन की आलोचना है’। चाहे वह निबन्ध के रूप में हो, चाहे कहानियों के, काव्य के- उसे हमारे जीवन की आलोचना और व्याख्या करनी चाहिए।"30

नानक सिंह ने स्वतंत्र रूप से साहित्य की परिभाषा नहीं की है। लेकिन ‘कट्टी होइ पतंग’ में कामनी-सुखबीर की पारस्परिक बातचीत इस विषय पर प्रकाश डालती है, "साहित्य को आपने क्या समझ रखा है? भूगोल और गणित जैसी कोई नीरस वस्तु। साहित्य तो वही कहलवा सकता है जो मिठासपूर्ण ढंग से मानवीय भावनाओं को सम्यक रूप से उपस्थित करता हो।"31 साहित्य के उद्देश्य को ‘अधाखिड़िया फुल्ल’ में सरोज के माध्यम से इस प्रकार वर्णित किया है। सरोज कहती है- "मैं साहित्य के माध्यम से देश के मस्तिष्क में क्रांति पैदा करूँगी।"32

साहित्यकार या कलाकार का कर्तव्य एवं दायित्व - साहित्य अथवा कलाकार समाज का सजग एवं संवेदनशील प्राणी होता है, उसकी लेखनी में इतनी शक्ति होती है कि वह समाज और देश की विचारधारा में अकथनीय परिवर्तन कर देता है। प्रेमचंद साहित्यकार के कर्तव्यों की ओर इंगित करते हुए लिखते हैं - "साहित्यकार का काम केवल पाठको का मन बहलाना नहीं है। यह तो भाटों और मदारियों, विदूषकों और मसखरों का काम है। साहित्य का पद इससे कहीं ऊँचा है। वह हमारा पथ प्रदर्शक होता है, वह हमारे मनुष्यत्व को जगाता है, हममें सद्भावों का संचार करता है हमारी दृष्टि फैलाता है।"33 "साहित्यकार का उद्देश्य जो अभागा है, जो समाज में जीने की बेसिक नीड को प्राप्त नहीं कर पा रहा है उसकी वकालत करना उसका फर्ज हैं। कलाकार हममें सोन्दर्य की अनुभूति उत्पन्न करता है और प्रेम की उष्णता। उसका एक वाक्य, एक शब्द, एक संकेत इस तरह हमारे अन्दर जा बेठता है कि हमारा अंतःकरण प्रकाशित हो जाता है।"34

नानक सिंह साहित्यकार को अपने देश, अपने समाज की आवाज़ समझते हैं। जब समाज अनुचित दिशा की और त्वरित गति से बढ़ रहा हो तो कलाकार का यह दायित्व हो जाता है कि वह अपनी रचनाओं के माध्यम से सही दिशा की और प्रेरित करे। क्योंकि वह समाज का पथ प्रदर्शक तथा सभ्यता का सर्जक है।"35 कलाकार जहाँ मानव के सद्गुणों का स्फुरण करने का प्रयास करता है, वहाँ वह नवीन संस्कृति को जन्म देने वाली सभ्यता का सर्जक भी है। साहित्यकार के हाथों में वह शक्ति है, जिसकी सहयता से अधमरे इन्सान में भी शक्ति भर दे।

उपन्यास -

प्रेमचंद ने लिखा है, "मैं उपन्यास को मानव-चरित्र का चित्र मात्र समझता हूँ। मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्य को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्व है।"36 इसलिए वही उपन्यास उच्च कोटि के समझे जाते हैं जहाँ यथार्थ और आदर्श का समावेश हो गया हो। जिस उपन्यास को समाप्त करने के बाद पाठक अपने अन्दर उत्कर्ष का अनुभव करे, उससे सद्भाव जाग उठे, वही सफल उपन्यास है।

नानक सिंह के अनुसार- "उपन्यास एक ऐसी हल्की-फुल्की वस्तु है कि इसमें किसी बोझिल विषय की सम्भावना नहीं है।"37 उपन्यास की सफलता असफलता पाठक पर निर्भर करती है। नानक सिंह पाठको की रुचि का समर्थन प्राप्त करना ही एक सफल उपन्यास की कसौटी मानते हैं। नानक सिंह लिखते हैं- "मैं उपन्यास का मुख्य प्रयोजन यह नहीं समझता कि नायक नायिका के प्रेमालाप, चुम्बन आदि में ही कहानी समाप्त कर दी जाये। वास्तविकता तो यह है कि मैं इस संसार के उपन्यासों से घृणा करता हूँ - मैं उन उपन्यासों के पक्ष में हूँ जो न केवल अय्याशी के डिब्बे हों और न ही जेबी लेक्चरार। मैं ऐसे उपन्यास चाहता हूँ, जिनमे प्रेम भी हो, पर उसी सीमा तक कि जिस सीमा तक उसे उपन्यास कला की चीनी में मिलाया जा सके - उपन्यास जहाँ निराशा को प्रसन्न करने वाला मन मोहक, रंगीन तथा चुलबुल खिलौना है, वहाँ वह भूले हुए को सद्-पथ पर लाने वाला प्रकाश स्तम्भ भी है।38

चरित्र चित्रण -

उपन्यासकार की सबसे बड़ी विशेषता उसके चरित्रों की उद्भावना है जो पाठक को जोड़कर मोहित कर लेते हैं। "महान से महान पुरुष में भी कुछ न कुछ कमजोरियाँ होती हैं। चरित्र को संजीव बनाने के लिए उसकी कमजोरियों का दिग्दर्शन कराने से कोई हानि नहीं होती। बल्कि यही कमजोरियाँ उस चरित्र को मनुष्य बना देती हैं।"39

नानक सिंह का अभिमत है - "मुझे ऐसे चरित्रों का सृजन पसंद नहीं, जिनमे उच्चता-निम्नता ही ना आ सके, यद्यपि उनके जीवन में कितने ही बड़े परिवर्तन हो जायें अर्थात जिस पात्र का चरित्र निम्न नियत किया जाय तो उससे अच्छाई हो ही न सके, न किसी अच्छे पात्र से बुराई। मनुष्य न केवल फरिश्ता है न ही शैतान। अपितु वह तो दोनों प्रवृतियों का स्वामी है।"40

कला -

प्रेमचंद और नानक सिंह कला को कला के लिए न मानकर समाज के लिए मानते हैं। प्रेमचंद के अनुसार "कला केवल यथार्थ की नकल का नाम नहीं है। कला दिखती तो यथार्थ है, पर होती नहीं, उसकी खूबी यही है कि वह यथार्थ न होते हुए भी यथार्थ मालूम हो।"41

नानक सिंह कला को देश एवं जातियों की उन्नति के पथ पर ले जाने का साधन मानते हैं और इसके माध्यम से समाज, देश एवं जातियों को एक नए रूप में ढालने का प्रयत्न करते हैं। "कलात्मक-सृजन बड़े-बड़े राज-प्रासादों और भव्य भवनों में नहीं होता, कला तो प्रेम, मानव, सहानुभूति एवं मानवता की पीड़ा में निवास करती है।"42

भाषा -

प्रेमचंद और नानक सिंह ने अपने विचारों को व्यक्त करते हुए भाषा विषयक दृष्टिकोण भी प्रस्तुत किया है। दोनों ने ही हिंदी भाषा का समर्थन करते हुए अंग्रेजी का विरोध किया है। प्रेमचंद हिंदी को देश की भाषा मानते हुए उसके सरल रूप, हिन्दुस्तानी का समर्थन करते हैं। आदर्श भाषा के विषय में लिखते है "हमारा आदर्श तो यह होना चाहिए कि हमारी भाषा अधिक से अधिक आदमी समझ सकें।"43

नानक सिंह ने ‘बंजर’ उपन्यास में पं. बद्रीनाथ के द्वारा हिंदी का समर्थन किया है। पंडित जी पहले तो पंजाबी के सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित लेखक होते हैं किन्तु विभाजन के बाद राजनीतिक कारणों से पंजाब में, हिंदी पंजाबी का जो विवाद उठ खड़ा हुआ था, उसके फलस्वरूप हिन्दू हिंदी को और सिक्ख पंजाबी को अपनी मातृ भाषा के रूप में स्वीकार करने लगे थे। तब पंडित जी हिंदी की और झुके। वे कहते हैं, "लेकिन जब आपने हिंदी भाषा के अस्तित्व को खतरे में पाया, तो अपनी हिंदी प्रेम के भावों से आपका दिल अनुप्राणित हो उठा। अतः आप ने पंजाबी को हमेशा के लिए अलविदा कहा कर...।"44

प्रेमचंद और नानक सिंह ने अंग्रेजी भाषा का स्पष्ट रूप से विरोध करते हुए देश, समाज और जाति के लिए इसका प्रयोग अहितकर माना है। प्रेमचंद के सेवासदन में कुंवर साहब अंग्रेजी भाषा से उसी प्रकार से घृणा करते हैं जैसे किसी अंग्रेजी के उतारे हुए कपड़े पहनने से होती है। नानक सिंह के "चिट्टा लहू" में पंडित राधेकिशन के माध्यम से अंग्रेजी का विरोध किया है। वे कहते भी हैं कि इस अंग्रेज ने तो हमारे भारतवर्ष का सर्वनाश कर दिया है।

निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता हैं की प्रेमचंद और नानक सिंह को व्यापक अनुभव था तथा वे अपनी दृष्टि से आने वाले कल को बहुत ही संजीव ढंग से देख लेते थे। प्राय इन दोनों ने अपने अनुभवों से अपनी अपनी-अपनी दिशा में सराहनीय कार्य किया। जहाँ पंजाबी में नानक सिंह मील के पत्थर साबित हुए तो वहीं प्रेमचंद ने वटवृक्ष का कार्य किया। इन दोनों का समाज के प्रति जो दृष्टिकोण था वो अमिट और अमर रहेगा। जहाँ पंजाब की गुरुओं और पीरों की धरती ने नानक सिंह जैसे सपूत पैदा किये तो वहीं दूसरी और प्रेमचंद जैसे विचारक भी अपनी छटा बिखेरते रहे। इन दोनों का उद्देश्य समाज को सही दिशा देना था। प्रेमचंद और नानक सिंह ने भटकते समाज को जीवन जीने की कला दी तथा इसके साथ-साथ दिशा भी दी।

संदर्भ ग्रन्थ सूची

1. प्रेमचंद, कर्मभूमि, पृष्ठ संख्या 213.
2. प्रेमचंद, गोदान, पृष्ठ संख्या 162.
3. प्रेमचंद, कर्मभूमि, पृष्ठ संख्या 263.
4. प्रेमचंद, गोदान, पृष्ठ संख्या 166.
5. नानक सिंह, कट्टी हुई पतंग, पृष्ठ संख्या 5.
6. प्रेमचंद, कायाकल्प, पृष्ठ संख्या, 42.
7. प्रेमचंद, प्रतिज्ञा, पृष्ठ संख्या, 60.
8. नानक सिंह, कट्टी हुई पतंग, पृष्ठ संख्या 19.
9. नानक सिंह, संगम, पृष्ठ संख्या 123 ।
10. प्रेमचंद, गबन, पृष्ठ संख्या, 176-77।
11. नानक सिंह, कट्टी हुई पतंग, पृष्ठ संख्या, 301-2.
12. प्रेमचंद, कायाकल्प, पृष्ठ संख्या 199.
13. प्रेमचंद, रंगभूमि, पृष्ठ संख्या 210.
14. नानक सिंह, अणसीते जख्म, पृष्ठ संख्या 112.
15. नानक सिंह, आदमखोर, पृष्ठ संख्या 134.
16. प्रेमचंद, रंगभूमि, पृष्ठ संख्या, 512.
17. नानक सिंह, आग्ग़ दी खेड़, पृष्ठ संख्या, 1.
18. नानक सिंह, खून दे सोलहे, पृष्ठ संख्या 2.
19. नानक सिंह, फैलोदी फुल्ल, पृष्ठ संख्या 9.
20. प्रेमचंद, प्रेमाश्रम, पृष्ठ संख्या, 127.
21. नानक सिंह, मेरी दुनिया, पृष्ठ संख्या, 232-33.
22. प्रेमचंद, वरदान, पृष्ठ संख्या, 93.
23. नानक सिंह, कागता दी बेड़ी, पृष्ठ संख्या, 140.
24. प्रेमचंद, रंगभूमि, पृष्ठ संख्या, 511.
25. वही, पृष्ठ संख्या, 63.
26. नानक सिंह, मेरी दुनिया, पृष्ठ संख्या, 236.
27. प्रेमचंद, गोदान, पृष्ठ संख्या, 306.
28. नानक सिंह, आस्तक नास्तक, पृष्ठ संख्या, 60.
29. प्रेमचंद, रंगभूमि, पृष्ठ संख्या, 501.
30. नानक सिंह, चिट्टा लहू, पृष्ठ संख्या, 160.
31. प्रेमचंद, साहित्य का उद्देश्य, पृष्ठ संख्या, 2.
32. नानक सिंह, कट्टी हुई पतंग, पृष्ठ संख्या, 156.
33. नानक सिंह, अध खिडिया फुल्ल, पृष्ठ संख्या, 173.
34. प्रेमचंद, साहित्य का उद्देश्य, 59.
35. वही, वही, 6.
36. नानक सिंह, पुजारी, पृष्ठ संख्या,396.
37. प्रेमचंद, साहित्य का उद्देश्य, पृष्ठ संख्या, 54 .
38. प्रेमचंद, साहित्य का उद्देश्य, पृष्ठ संख्या, 57.
39. नानक सिंह आस्तक - नास्तक, पृष्ठ संख्या, 5.
40. नानक सिंह, सुमनकांता, पृष्ठ संख्या, 7.
41. प्रेमचंद, साहित्य का उद्देश्य, पृष्ठ संख्या, 42.
42. नानक सिंह, कट्टी हुई पतंग, पृष्ठ संख्या, 266.
43. प्रेमचंद, साहित्य का उद्देश्य, पृष्ठ संख्या,176.
44. नानक सिंह, बंजर, पृष्ठ संख्या, 163.

सुरजीत सिंह वरवाल
शोधार्थी
हिंदी विभाग
डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर
दूरभाष-919424763585  919530002274।

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