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नंगा सबसे चंगा

जब आदमी समझदार नहीं था, तब भगवान ही उसके सारे काम किया करते थे। या यों कहें कि आदमी में अक़्ल न होने के चलते उसे हर काम के लिए भगवान का मुँह ताकना उसकी हिम्मत थी, एक ही बात है। ऐसे में भगवान को जब लगता कि आदमी को बरसात की ज़रूरत है तो इंद्र बरसात कर देते। भगवान को जब लगता कि आदमी को धन की ज़रूरत है तो वे लक्ष्मी को धरा पर भेज देते। भगवान को जब लगता कि आदमी को समझदार होने की ज़रूरत है तो वे सरस्वती को धरा पर ज्ञान बाँटने के लिए भेज देते। भगवान को जब लगता कि आदमी को सिर ढकने के लिए छत की ज़रूरत है तो वे विश्वाकर्मा को उसे छत बनाने का ठेका दे देते। तब आज के से ठेकेदार नहीं थे कि इधर छत बनाने की पेमेंट हुई, उधर छत अपने घर गई। सरकार से जनता को बजट रिलीज़ हुआ; बजट सौ तो जनता तक पहुँचा एक। सुना है वे दिन बड़ी ईमानदारी के दिन थे। आदमी तो आदमी, गधा भी भगवान से डरता था। आज तो भगवान भी गधे से डरता है।

पर जबसे आदमी ने भगवान को सलाहकार बना अपने से कोसों दूर कुर्सी पर बैठाया है तबसे भगवान के पास हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने के सिवाय कोई काम नहीं बचा है। वैसे भी आज का दौर वह दौर है कि कोई पूरे पैसे देकर तो छोड़िए फ़्री में सरकारी दुकान के आटे-दाल को छोड़, सलाह लेने को तैयार नहीं। ऐसे में भाई साहब, पगार दे रहे हैं न, तो चुपचाप लेते रहो। हमें आपकी सलाह की ज़रूरत पड़ेगी तो ले ले लेंगे। अगर आपकी ज़रूरत सिस्टम को होती तो आपको निदेशक बनाते, सलाहकार क्यों? आप सबसे सीनियर हो तो होते रहें। यहाँ तो सीनियर वे हैं जो सत्ता के निकट हैं। दूसरों के तो सीनियर होने के बाद भी दिन विकट हैं। 

आज के सरकारी विभागों में सलाहकारों की पतली दशा देख भगवान से अपने दोनों हाथ जोड़े बस एक यही विनती है कि हे भगवान! चाहे तुम मुझे मास्टर से पीउन बनाना, पर विभाग में सलाहकार मत बनवाना। नामचीन सलाहकार को विभाग तो विभाग, विभाग का कुत्ता तक पूछने नहीं आता। उसको दिया पीउन तक उसे पानी तक नहीं पिलाता। आदमी तो छोड़िए, उसके आगे उसके अपने घर का कुत्ता तक पूँछ नहीं हिलाता। 

अंततः उसने सिर ऊँचा किए डॉक्टर से अपने पैदा होने के वक़्त डॉक्टर को मुँह माँगी फ़ीस दे भगवान की जगह अपने को अवतारी घोषित करवाया तो भगवान को लगा कि आदमी अब उससे आगे निकल गया या कि उसका बनाया आदमी उसके ही हाथ से फिसल गया। 

अपने अवतारी रूप में आते ही उसने भगवान से सत्ता हथियाने का अपने हिसाब से विधान-संविधान बनाया। जिन्होंने अपने दिमाग़ पर राजशाही की क़लमें कीं वे लोकतंत्र के आने के बाद भी अपने को ही भगवान मानते रहे। अपने उल्टे-सीधे आदेशों से जनता पर अत्याचार कर भगवान को हर बार सूली पर टाँगते रहे।

फिर कुछ ने राजशाही में समाजवादी ब्रांड की कनगुइया भाँग खा अपने दिमाग़ में मार्क्सवाद का, तो कुछ ने अपने दिमाग़ में लोकतंत्र का दीया टिमटिमाया। पर गोल-मोल कर सबका मक़सद बस एक ही था कि भगवान से उसकी पॉवर छीनी जाए। कुछ दिन तो भगवान परेशान रहे पर धीरे-धीरे अपने को एडजस्ट कर गए। वे जान गए थे या उन्हें पता था कि एडजस्ट करना ही ज़िंदगी है। भगवान और आदमी में एक ख़ास अंतर यही होता है कि वह आदमी की अपेक्षा अपने को स्थिति के हिसाब से वक़्त के साथ खड़े होने को तैयार कर लेता है।

देखते ही देखते कहीं मार्क्सवाद आया तो कहीं लोकतंत्र। चंद दिनों बाद दोनों दिमाग़ों के दिमाग़ में समाज के बारे में सोचना छोड़, अधिकार का बीज कुलबुलाने लगा। कोई अपने सिर पर सर्वहारा को, कोई अपने सिर पर रोटी - कपड़ा - मकान को तो कोई हसीन सपनों का टोकरा उठाए गलियों के चक्कर लगाने लगा। धीरे-धीरे इन दिमाग़ों को लगने लगा कि अधिकार कर्त्तव्य से ज़रूरी हैं। अधिकार अपने लिए होते हैं और कर्त्तव्य दूसरों के लिए। अधिकार पाने की चीज़ है और कर्त्तव्य कुछ सिखाने की तो कुछ मन बहलाने की। 

पर भगवान से वह अभी भी डरता रहा।

जब टॉनिक-शानिक खा पी आदमी दिन दुगना, रात चौगुना ताड़ के पेड़ सा समझदार होने लगा तो उसे लगा- मंत्री, चेयरमैन का पद भगवान के पास ही क्यों रहे? धरा के गधों का मंत्री बन कर वह ही क्यों असंख्य सुख भोगे? जनता के दुख पर नेता का हक़ हो या न, पर जनता के हर सुख पर तो उन जैसों सबका हक़ है। भगवान तो स्वर्ग में रहता है, उसे धरती के भगवानों की बढ़ती इच्छाओं का क्या पता? अतः उसने हर मंत्री पद को जैसे-कैसे अपने हाथ में लेने की ठानी। 

पगडंडी से लेकर फोरलेन तक कर्त्तव्य को भूल अधिकारों की दौड़ में सरकार के साथ हर दिमाग़ दौड़ने लगा। वह दूसरों द्वारा टाँग अड़ाने से गिरता रहा पर जैसे-कैसे आगे बढ़ता रहा। अधिकारों के चक्कर में कई टाँगें टूटीं तो कई टाँगें अपनों से छूटीं।

भगवान चुप थे। सलाहकार होने के नाते वे बीच-बीच में अपनी पगार को जस्टिफ़ाई करते औसत दोजख को सलाह देते रहे। पर दोजख दिमाग़ उनकी सलाह मानने को अब क़ायदे से बाध्य नहीं था। जहाँ पर सामाजिक बाध्यताएँ न हों वहाँ पर मान्यताएँ कैसीं? सो वह अपने हिसाब से चलता रहा, वह किसीको मसलता रहा तो कोई उसे मसलता रहा। 

रोज़ की तरह बीते दिनों को याद करते आज फिर भगवान सलाहकार की कुर्सी पर सलाहों का जाला बुनते, उसमें ख़ुद ही उलझते बैठे थे कि नारद आ गए। बोरियत से बचने के लिए उन्होंने नारद से पूछा, "नारद, कहाँ से आ रहे हो?"

"प्रभु! दिल्ली से आ रहा हूँ।" 

"वहाँ की प्रजा के क्या हाल हैं? आप के क्या हाल हैं?"

"कुल मिलाकर प्रभु, नंगा सबसे चंगा!" 

"पर सबसे चंगा तो ईमानदार होता है। सबसे चंगा तो सच बोलने वाला होता है।"

"होता है नहीं प्रभु, होता था। बीते दिनों की बात अब न करो। अब तो नंगा ही हर जगह सबसे चंगा है। जितनी मौज समाज में आज नंगों की है, उतनी किसीकी नहीं," कह नारद ने अपनी खरताल बजाई। 

"मतलब??" भगवान अचंभित।

"असल में प्रभु आज समाज में ईमानदार को अपनी ईमानदारी बचाए रखने को जीने से भी अधिक मशक़्क़त करनी पड़ रही है। अगर वह ज़रा सी भी बेईमानी करने की सोचता भर है तो उसे लगता है गई उम्र भर की कमाई पानी में। लोग जागे हुए तो जागे हुए, सोए हुए भी उसके बेईमान होने से पहले ही कोसने लगे जाते हैं। सो बेचारा ईमानदार चाह कर भी बदनाम होने के डर से ईमानदारी नहीं छोड़ता।

यही बात सच बोलने वाले के साथ है। वह समाज में अपनी सच्चाई की नाक को बचाते-बचाते अपनी नाक कटा-कटा मर जाता है। उसकी अपनी नाक धूल चाट जाए तो चाट जाए। उसे बस और कोई डर हो या न, पर यह डर सोए-सोए भी लगा रहता है कि जो किसीने उसकी जीवन भर की कमाई सच्चाई पर, यों ही भी कीचड़ उछाल दिया तो गई सारी उम्र की सच की पूजा गई पानी में। पर नंगों के साथ ऐसा-वैसा कुछ नहीं होता। क्योंकि नंगई का कोई विधि-विधान नहीं होता। उसके लिए कोई मान-अपमान नहीं होता, उसे अपने गुणगान से बढ़कर दूसरा कोई गान नहीं होता। उसकी कोई ज़मीन नहीं होती, उसका कोई आसमान नहीं होता। नंगा नैतिकता, मूल्यों को अपनाता नहीं, वह नैतिकता, मूल्यों का धंधा करता है। नंगा ईमानदारी को अपनाता नहीं, ईमानदारी के बहाने बेईमानी का चोखा धंधा करता है। नंगा सच को नहीं अपनाता, सच के बहाने झूठ का खुलकर धंधा करता है। वह विधि-विधान से कोसों ऊपर उठा होता है। वह ज़मीन-आसमान से कोसों ऊपर होता है। वह कुछ भी दम खम के साथ कहने के लिए प्राधिकृत होता है, अधिकृत होता है। वह कपड़े नहीं, नैतिकता ओढ़ता है। वह कपड़े नहीं, सच की मायावी सदरी जोड़ता है। उसकी करनी में नहीं, उसके सिद्धांतों में गहनता है। यही उसकी सबसे बड़ी समझने लायक़ चरित्रगत महानता है।

इसलिए उसे कोई कुछ नहीं कहता। उसकी किसी भी हरकत पर नोटिस नहीं लेता। उसे अपनी नंगई को प्रमाणित करने को कोई परीक्षा नहीं देनी पड़ती। वह समाज में नंगा भी घूमे तो किसीको उससे कोई शिकवा नहीं होता, उससे कोई शिकायत नहीं होती। क्योंकि नंगे से सामाजिक होने की कोई उम्मीद नहीं होती। भले ही वह अपने को समाज का सबसे बड़ा सामाजिक घोषित करता फिरे। बल्कि समाज को बुरा तो तब लगता है कि जो वह किसी दिन ग़लती समाज में नंगा हो सज-धज कपड़े पहन घूमने निकले। नंगे को अज्ञात डर के सभी आदर से गले लगाते हैं या कि सभी को उसके गले आदर दे लगना पड़ता है। इसलिए कि वह कहीं उनको भी अपनी बिरादरी में शामिल न करे दे। पर एक ये नंगे होते हैं कि हरदम भोले-भालों को अपनी जात में लाने के बहाने ढूँढते रहते हैं । नंगों के लिए समाज में कोई बंधन नहीं होता, कोई विधान नहीं होता। इन्हें नंगा देख गधा तक इन पर नहीं हँसता, इन्हें नंगा देख कुत्ता तक नहीं रोता।

नंगों की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि उन्हें अपने बदन पर कपड़ों का अहसास भले ही न हो पर वे समाज को अपने बदन पर हरदम कपड़े होने का आभास करवाते रहते हैं। वे बेहूदा रंग-बिरंगे कपड़ों की आभासी दुनिया में जीते हैं।

प्रभु! सच कहूँ तो आज का दौर नंगों का दौर है। इस छोर से लेकर उस छोर तक नंगों की जय-जयकार हो रही है। हर जगह भगवन् आपसे पहले उनकी आदर सत्कार हो रहा है। अब तो दिन-रात शरीफ़ों के कपड़े उतरवा ये नंगे उन्हें अपने संप्रदाय में दीक्षित कर नंगों की संख्या बढ़ा रहे हैं। इन नंगों को जो किसी तीज-त्योहार पर ढाँप भी दिया जाए तो ये नंगे जिसने इनके शरीर पर कपड़े डाले थे, उसके ही कपड़े उतरवा उसका उद्धार करके ही साँस लेते हैं।" 

"तो इसका मतलब है कि....," भगवान ने लंबी साँस लेते पूछा तो नारद ने मुस्कुराते कहा," प्रभु! धरती पर कोई जो सबसे चंगा है तो बस समझो वह नंगा है। शेष तो बस कुरते-लंगोटी में उलझे हैं।" 
 

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