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नरनाहर आज़ाद

असहयोग आंदोलन के दौरान जब सत्याग्रही के रूप में बालक आज़ाद पर मुक़दमा चला तो उस मुक़दमे में अदालत के द्वारा पूछे गये प्रश्नों का जिस अंदाज़ और बेबाकी से आज़ाद के द्वारा उत्तर दिया गया वह ख़ुद में इतिहास बन गया। यह अंग्रेज़ी आतंक पर उनका पहला पदप्रहार था। यह निडरता और दृढ़ता का अप्रतिम व्यवहार था! उस समय वह चौदह या पन्द्रह साल के रहे होंगे। बालक आज़ाद के तबके इस व्यवहार से उनके भविष्य के चट्टानी इरादों को समझा जा सकता है। 

मजिस्ट्रेट ने जब उनसे पूछा कि तुम्हारा नाम क्या है, तो उन्होंने सहज भाव से अपना नाम आज़ाद बताया। इसके बाद पिता तथा उनका घर कहाँ है, पूछने पर उन्होंने क्रमशः स्वाधीनता तथा जेलखाना बताया। प्रत्युतपन्नमति से दिए गए ये जवाब स्वाधीनता आंदोलन में नई पीढ़ी के प्रेरक वाक्य बन गए। बाद में चन्द्रशेखर आज़ाद के क्रांतिकारी जीवन के क़िस्से इतने मशहूर हुए कि लोग-बाग और क्रांति की धरा पर उतरने वाली नई पीढ़ी के लिए वह अलौकिक से लगे। जनश्रुति के आधार पर लोगों के द्वारा आज़ाद के व्यक्तित्व के अपने-अपने कल्पित चित्र गढ़ लिए गए। 

आज आज़ाद या भगतसिंह को उनके अप्रतिम शौर्य के लिए याद तो किया जाता है और बहुधा गाँधीवादी राजनीति के प्रतिद्वंद्वी के तौर पर उनको खड़ा करके राजनीतिक हितों को साधने की भी भरसक कोशिश की जाती है, पर अफ़सोस कि इन महान क्रांतिकारियों को कभी सम्पूर्णता में समझने की कोशिश नहीं की गयी। उनके सिद्धांतों को परे रखकर हमने सिर्फ़ उनको मिथिकीय चरित्रों में गढ़कर ही सन्तुष्टि पा ली। 

नई पीढ़ी आज़ाद और भगतसिंह के साहसिक कृत्यों से रोमांचित तो होती है, पर वह यह नहीं जानना चाहती कि उनके ये साहसिक प्रयास किन उद्देश्यों से प्रेरित थे? आश्चर्य होता है कि गाँधी और नेहरू को आज़ाद तथा भगतसिंह का अपराधी सिद्ध करने वाले ये तथाकथित राष्ट्रवाद के अभिनव प्रवक्ता आज़ाद की सैद्धांतिक निष्पत्तियों पर गहरी चुप्पी लगा जाते हैं। ज़ाहिर है, यहाँ पर आज़ाद और भगतसिंह जैसे तमाम क्रांतिकारी नेता उनके काम के नहीं। 

बात-बात पर आज़ाद-भगतसिंह के जयकारे लगाने वाले ये नेता उनके सिद्धांतों के प्रति खुलकर अपनी निष्ठा की घोषणा क्यों नहीं करते और अगर नहीं तो फिर यह कहने का साहस क्यों नहीं करते कि हम उनकी देशभक्ति को तो नमन करते हैं पर उनके (आज़ाद-भगतसिंह के) अमुक सिद्धान्तों से सहमत नहीं। 

और यदि ये कथित राष्ट्र के चौकीदार आज़ाद की सैद्धांतिक निष्ठाओं से असहमत होने के बावजूद उनकी देशभक्ति को प्रणम्य मानते हैं, तो फिर वे यही छूट अन्य कांग्रेसी देशभक्तों को क्यों नहीं देते? ज़ाहिर है राजनीतिक स्वार्थ इसकी अनुमति नहीं देते। 

आज आज़ाद की समाजवादी चिंताओं और धार्मिक सहिष्णुता की कितनी चिंता की जाती है, कहने की आवश्यकता नहीं।  ऐसे में सिर्फ़ जन्मतिथि और पुण्यतिथि पर महापुरुषों का स्मरण कर लेना महज़ एक ढोंग भर है। आज कितने हैं, जो बिस्मिल की आत्मकथा, यशपाल की सिंहावलोकन या फिर मन्मथनाथ गुप्ता और शिववर्मा के संस्मरण पढ़ने का शौक़ रखते हैं। अगर पढ़ते होते तो शायद आज की पीढ़ी अपने पूर्ववर्तियों की प्रगतिशील दृष्टि की तुलना में इतनी पिछड़ी न होती। भगतसिंह ने जिस कच्ची उम्र में मानवीय सन्दर्भों के वैश्विक फलक में अपने राजनीतिक दर्शन की निर्मित की, उसकी परिपक्वता आज भी चमत्कृत करती है। आज़ाद उच्च शिक्षा न अर्जित कर पाने के बावजूद अपने स्वाध्याय से विभिन्न सामाजिक चिन्तनधाराओं को समझने में समर्थ हो सके।

आज़ाद का व्यक्तित्व अद्भुत था और नेतृत्व विलक्षण। एक ऐसा नेतृत्व जो आत्मविज्ञापन से कोसों दूर सिर्फ़ देश के लिए स्वयं को उत्सर्ग करने के लिए जी रहे थे। उनके लिए नेतृत्व के मायने दल में अपनी प्रभुता का स्थापन नहीं था। वह साथियों के सुख-दुख के साथ जीते थे। दल के साथी उन्हें अपने प्राणों से भी ज़्यादा प्यारे थे। उनकी दृष्टि में दल के प्रत्येक साथी का जीवन अमूल्य था। आज़ाद का अपने साथियों के प्रति सहज स्नेह देखते बनता था। वह घर के मुखिया की तरह अपने दल के सदस्यों का ख़याल रखते थे। क्रांतिकारी शिववर्मा लिखते हैं कि "आज़ाद हमारे सेनापति ही नहीं थे। वे हमारे परिवार के अग्रज भी थे, जिन्हें हर साथी की छोटी से छोटी आवश्यकता का ध्यान रहता था। मोहन (बी.के.दत्त) की दवाई नहीं आई, हरीश (जयदेव) को कमीज़ की आवश्यकता है, रघुनाथ (राजगुरु) के पास जूता नहीं रहा, बच्चू (विजय) का स्वास्थ्य ठीक नहीं है आदि उनकी रोज़ की चिंताएँ थीं।" 

जब भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त असेम्बली में बम फेंकने को लेकर अपने-अपने नाम के लिए अड़ गए तो आज़ाद ने बहुत भारी मन से इसे स्वीकृति दी। वह अपने इन बहुमूल्य साथियों को खोना नहीं चाहते थे। बाद में उन्होंने ने शिववर्मा से बातचीत में कहा कि "प्रभात! अब कुछ ही दिनों में ये दोनों (भगतसिंह और दत्त) देश की संपत्ति हो जाएँगे; तब हमारे पास इनकी याद भर रह जायेगी। तब तक के लिए मेहमान समझकर इनकी आराम-तकलीफ़ का ध्यान रखना"। बताते हैं कि एक बार दल की बैठक में किसी सदस्य का अनजाने में उस अख़बार पर पैर पड़ गया जिसमें भगतसिंह और दत्त की फोटो छपी हुई थी। ज्ञात हो कि उस समय ये दोनों गिरफ़्तार हो चुके थे। पैर पड़ते ही आज़ाद गरज उठे। उनका इस तरह अचानक नाराज़ हो जाना किसी की समझ में न आया। शीघ्र ही उन्होंने अपने पर क़ाबू पाकर उस साथी को प्यार से अपने पास बिठाकर कहने लगे, "ये लोग अब देश की संपत्ति हैं! शहीद हैं! देश इनको पूजेगा। अब इनका दर्जा हम लोगों से बहुत ऊँचा है। इनके चित्रों पर पैर रखना देश की आत्मा को रौंदने के बराबर है।" कहते-कहते उनका गला भर आया।

इसी तरह वायसराय पर हाथ आज़माने को लेकर शिववर्मा के प्रस्ताव पर आज़ाद भावुक होकर कहने लगे, "दल के सेनापति के नाते क्या मेरा यही काम है कि लगातार नये-नये साथी जमा करूँ, उनसे अपनापन बढ़ाऊँ और फिर योजना बनाकर अपने ही हाथों उन्हें मौत के हवाले कर दूँ और मैं आराम से बैठकर आग में झोंकने के लिए नये सिरे से नया ईंधन बटोरना शुरू कर दूँ?"

आज़ाद का एक रूप यह भी था। आज़ाद को दल में सब भैय्या या पंडितजी कहते थे। दल में वरिष्ठ होने के कारण कोई उनका नाम नहीं लेता था। उनके प्रति सभी सम्मान का भाव रखते थे। वह बहुत ही दुस्साहसी व्यक्ति थे, जिनके लिए अपने प्राणों का कोई मूल्य नहीं था।

काकोरी कांड में वही एक व्यक्ति थे, जिनको पुलिस गिरफ़्तार न कर सकी। काकोरी कांड बिस्मिल के नेतृत्व में हुआ था। आज़ाद यद्यपि अँग्रेज़ी नहीं पढ़े थे मगर वह अँग्रेज़ी के अख़बार और पुस्तकें यशपाल, शिववर्मा और भगतसिंह आदि से पढ़वाकर वर्तमान राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम से परिचित रहते थे। वह दल में पठन-पाठन पर बल देते थे और राजनीतिक मुद्दों पर गम्भीर विमर्श के हिमायती थे। आज़ाद संकीर्ण सोच के नहीं थे। उनके दल का उद्देश्य शोषण विहीन समाज की स्थापना का था। भगतसिंह के समाजवादी मूल्यों से प्रभावित हो दल के नाम में समाजवादी शब्द को जोड़े जाने का समर्थन किया।

सशस्त्र क्रान्ति के संवाहक आज़ाद और उनके साथी मानव जीवन को बड़ा पवित्र मानते थे और अकारण मानव हत्या करने से बचते थे। वह बहुत ही विषम परिस्थितियों में ही हिंसा का सहारा लेते थे। यही कारण था कि असेम्बली बमकांड में भगतसिंह द्वारा जो बम इस्तेमाल किया गया उसमें मानवीय क्षति होने की संभावना न के बराबर थी। बम सिर्फ़ धमाके के लिए ऐसी जगह फेंका गया था, जहाँ कोई नहीं था। बम अत्याचारी और बहरी सरकार को सुनाने के लिए किया गया था। 

क्रांतिकारी मानवीय मूल्यों के सबसे बड़े संरक्षक थे। 

ऐसे ही एक बार किसी ने संगठन की आर्थिक आवश्यकताओं को सुलझाने के लिए झाँसी के पास किसी स्टेट के एक नाकारा राजा को मारकर उसके धन को हासिल करने की सलाह दी गयी। इस सलाह में वहाँ के कुछ स्थानीय लोगों के अपने स्वार्थ जुड़े थे। वे आज़ाद को इस्तेमाल करना चाहते थे। आज़ाद ने इस प्रस्ताव को सिरे से ख़ारिज कर दिया। उन्होंने जो कहा वह स्मरणीय है। उन्होंने कहा कि, "हमारा दल आदर्शवादी क्रांतिकारियों का दल है, देशभक्तों का दल है, हत्यारों का नहीं। पैसे हों, चाहे न हों, हम लोग भूखे पकड़े जाकर फाँसी भले चढ़ा दिये जाएँ, परन्तु ऐसा घृणित कार्य हम लोग नहीं कर सकते।"

आज़ाद और नेहरू को लेकर के भी तमाम बातें जानबूझकर फैलाई जाती हैं। निश्चित ही दोनों परस्पर विरोधी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते थे। वैचारिक स्तर पर दोनों विपरीत ध्रुव पर थे, पर यह विरोध वैयक्तिक नहीं था। आज़ाद, पंडित मोतीलाल नेहरू से भी मिल चुके थे। मोतीलालजी ने आज़ाद को साथ बिठाकर भोजन किया। उन्होंने काकोरी कांड में भी क्रांतिकारियों की भरपूर मदद की थी। 

आज़ाद जवाहरलाल नेहरू के दृष्टिकोण से सहमत नहीं थे। वह नेहरू द्वारा फ़ासिस्ट कहे जाने पर ख़ासे नाराज़ थे, पर उन्होंने ने ही दल की आर्थिक सहायता के लिए यशपाल को पंडित नेहरू के पास भेजा और बाद में उन दोनों के बीच हुई बातचीत से सन्तोष भी प्रकट किया। ख़ुद नेहरू ने यशपाल सहित अन्य क्रांतिकारियों के रूस जाने के लिए धन मुहैया कराया था। कई बार ग़लतफ़हमियाँ संवादहीनता के चलते पैदा हो जाती थीं, क्योंकि क्रांतिकारी अपनी योजनाओं और उद्देश्यों को स्पष्ट करने के लिए उस तरह खुलकर जनता के बीच नहीं जा सकते थे जिस तरह गाँधीवादी जनसंवाद क़ायम करते थे।  दूसरे कई बार क्रांतिकारियों से सहानुभूति रखने वाले कांग्रेसी नेता क्रांतिकारियों पर कोई संकट न आ जाए इसलिए उनके बारे में सार्वजनिक तौर पर खुलकर कुछ भी कहने से बचते थे।

 विरोधी विचारधारा के बावजूद एक-दूसरे के प्रति लोग कैसा सम्मान रखते थे इसका बेहतरीन उदाहरण आज़ाद की शहादत पर देखा जा सकता है। क्रांतिकारी यशपाल ने लिखा है कि,  "इलाहाबाद के राष्ट्रीय भावना रखने वाले और कांग्रेसी लोग आज़ाद का अंतिम संस्कार उचित ढंग से करना चाहते थे। नेहरू जी की पत्नी स्वर्गीय कमला नेहरू और बाबू पुरुषोत्तमदास जी टण्डन ने भी अंतिम संस्कार के लिए आज़ाद का शरीर पुलिस से पाने का बहुत यत्न किया। पुलिस प्रदर्शन की आशंका में उनका शरीर देने में आनाकानी कर रही थी। अंत मे एक व्यक्ति को आज़ाद के भाई के रूप में उनके शव की माँग करने के लिए पेश किया गया।... शव का जुलूस न निकाले जाने की ख़ास ताक़ीद थी फिर भी अर्थी के साथ बड़ी संख्या में लोग एकत्र हो गए थे और चिता की भस्म को चुटकी-चुटकी श्रद्धा से उठा ले गए।" तो ऐसे थे हमारे आज़ाद और उनके चाहने वाले। वैचारिक विरोध अपनी जगह था और स्नेह व दायित्व अपनी जगह।

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