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नरेन्द्र कोहली के मिथकीय उपन्यासों में आधुनिकता का बोध

कोहली जी सजग एवं चेतना संपन्न, सृजनशील लेखक हैं। उन्होंने भारत में प्रचलित रामकथा का पुनर्लेखन किया है। ‘रामचरितमानस’ के गहरे अध्ययन के कारण, लेखक की तर्कशील चेतना जागृत होने के कारण कोहली जी ने ‘रामकथा’ को आधुनिक संदर्भ में पुन: लिखा है। एक भेंटवार्ता के दौरान स्वयं कोहली जी ने कहा है– ‘मुझे अगर कुछ नया नहीं जोड़ना था तो फिर रामकथा को नये सिरे से लिखने की ज़रूरत ही क्या थी। मैंने जो कहना चाहा, वह कहा है।’

रामकथा के पुनर्लेखन के बारे में कोहली जी ने कहा है– ‘अंतत: मेरा सर्जक मन अपनी जानी-पहचानी पुराकथाओं तक पहुँचा और आतंक के संवेदनशील, किंतु कर्म असमर्थ बुद्धिजीवी डॉ. कपिला के रूप में रामकथा के विश्वामित्र को खोज लाया। डॉ. कपिला कर्म के धरातल पर कुछ नहीं कर सके, विश्वामित्र भी कर्म के रूप में स्वयं कुछ कर नहीं सके, किंतु वे राम को बुला लाए– शस्त्रधारी योद्धा राम को। मुझे भी एक शस्त्रधारी राम की आवश्यकता थी; किंतु समकालीन परिवेश में राम यथार्थ नहीं था। वह पुराकथा से ही लाया जा सकता था। तत्काल डॉ. कपिला का कॉलेज या आज के समस्त विश्वविद्यालय, सिद्धाश्रम में परिवर्तित हो गए और आज के धन तथा सत्ता-संपन्न वर्ग की गुंडा-गर्दी ताड़का, सुबाहु तथा मारीच की गुंडा-गर्दी में बदल गई। आज के विश्वविद्यालय के लिए मैं विश्वसनीय रूप में शस्त्रधारी डॉ. कपिला का निर्माण नहीं कर सकता था, किंतु सिद्धाश्रम में राम सरलता से जन-वाहिनी का निर्माण कर, राक्षसों पर सशस्त्र आक्रमण कर सकते थे। तब मैंने अनुभव किया कि पौराणिक नायक, हमारे आदर्शों का नीड़, एक ऐसा काल्पनिक पात्र है, जिसे वास्तविक पात्र की मान्यता प्राप्त है। वह वस्तुत: हमारी इच्छाओं और कामनाओं का प्रतिरूप है। बिहार के एक गाँव में धन तथा सत्ता-संपन्न राजपूतों द्वारा हरिजन कन्याओं के साथ बलात्कार करने तथा कुछ हरिजन पुरुषों को जीवित जला देने के समाचार आए थे। उन राजपूतों के आतंक के कारण न किसी डाक्टर ने घायल हरिजनों को उपचार करने का साहस किया और न किसी पुलिस अधिकारी ने रिपोर्ट ही लिखी थी। मेरे मन में उस घटना का रूप बदला। वे हरिजन गहन केवट के परिवार में बदल गए। राम से साहस पाकर वे सेनापति बहुलाख के पुत्र देवप्रिय  को पकड़ लाए और राम ने भ्रष्ट सत्ताधारी विलासी पुत्र को मृत्युदंड देते हुए लक्ष्मण को आदेश दिया कि वे उसका वध कर दें और पुत्र को बचाने के लिए सैनिकों सहित आए हुए सेनापति बहुलाख को उन्होंने स्वयं अपने हाथों मार डाला।’    

रामकथा को आधार बनाकर नरेन्द्र कोहली जी ने पाँच उपन्यास लिखे हैं। यथा 1) दीक्षा 2) अवसर 3) संघर्ष की ओर 4) युद्ध-1 और  5) युद्ध-2   

विश्वामित्र के सिद्धाश्रम से कोहली जी की रामकथा प्रारंभ होती है और रावण वध के बाद समापित। कोहली जी के अनुसार इस रामकथा का मूल स्रोत तुलसीदास विरचित ‘रामचरितमानस’ है। ‘मानस’ बार-बार पढ़ने के कारण मानस की कथा को लेकर, संदर्भों को लेकर अनेक प्रश्न उनके मन में उठ खड़े थे। उन प्रश्नों का समाधान कोहली जी ने अपनी ओर से ‘रामकथा’ के पुनर्लेखन के द्वारा दिये हैं। नये संदर्भों को भी उन्होंने अपनी ‘रामकथा’ में जोड़ा है। जैसे– ‘बंगला देश में क्रूर पाकिस्तानी सेनाएँ अबाध अत्याचार कर रही थीं। जन-सामान्य अन्यायी हिंस्र पशुओं के जबड़ों में पिस रहा था– बुद्धिजीवियों को चुन-चुनकर मारा जा रहा था। समाचार आ रहे थे कि अमेरिका की सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी ने उन बुद्धिजीवियों की तालिकाएँ बना-बनाकर, पाकिस्तानी सेना को भेजी थीं।’ कोहली जी बंगला देश के युद्ध के संदर्भ में अमेरिका के शासकों को रावण के रूप में, पाकिस्तानी शासकों को राक्षसों के रूप में देखा है। बिहार में अछूतों पर हुए अत्याचारों के संदर्भ में अछूतों की पीड़ा में ऋषि मुनियों तथा वनवासी समाज की दयनीय स्थिति को कोहली जी ने देखा है और उसी को रामकथा में जोड़ा है।

स्पष्ट है कि मिथक आदिम मानव की अभिव्यक्ति का माध्यम रहा है। कथ्य और प्रयोजन की दृष्टि से ये मिथक पुनर्रचनाशील होते हैं। आदिम ग्रन्थों में मिलनेवाले चमत्कारतत्व भी आदिम विश्वास और मिथकीय कल्पना से जुड़े हुए हैं। कोहली जी ने आधुनिक मानवीय संपूर्णता की उपलब्धि के लिए मिथकीय उपन्यासों की रचना की है। आधुनिक काल में इस प्रकार के मिथकों को आधार बनाकर मिथकीय उपन्यास पहले पहल नरेन्द्र कोहली जी ने ही लिखा है। उनका यह प्रयास सोद्देश्यपूर्ण है। कोहली जी ने मिथक को मानवीय चेतना के प्रतिनिधित्व करनेवाला अभिव्यक्ति रूप समझकर बदलते नवीन परिवेश में नये दृष्टिकोण को लेकर रामकथा में कुछ नयी उद्भावनाओं को जन्म दिया है। उनकी यह आधुनिक कल्पना उचित जान पड़ती है। अपनी यथार्थ एवं तार्किक दृष्टि के कारण ‘रामचरितमानस’ में स्थित लीला, अलौकिकता को कोहली जी ने नहीं माना है। स्पष्ट है कि कोहली जी ने अपने विचारों के अनुसार मिथकीय प्रसंगों को आधुनिक संदर्भ में प्रस्तुत करने का सफल प्रयत्न किया है। इसके द्वारा उन मिथकीय प्रसंगों एवं पात्रों के प्रति जो आम धारणाएँ तथा विश्वास होते हैं, उनको लेकर पुनर्विचार व पुनरान्वेषण करने की प्रेरणा जगाई है।

अपने विचार एवं जीवन दर्शन के अनुकूल कोहली जी ने रामकथा में आधुनिकता के सिल-सिले में जहाँ कुछ प्रमुख नये प्रसंग और संदर्भों को जोड़ा है उनका विश्लेषण निम्नांकित है।

पुत्रेष्टि यज्ञ एवं राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न का जन्म: 

कोहली जी की रामकथा में पुत्रेष्टि यज्ञ का उल्लेख नहीं है। रामायण में प्राप्त इस कल्पित प्रसंग के बारे में उन्होंने लिखा है– ‘सम्राट के दरबारी कवियों और इतिहासकारों ने दशरथ के पुत्रहीन होने, पुत्र की कामना से अनेक विवाह करने तथा अंत में पुत्रेष्टि यज्ञ के माध्यम से चार पुत्रों की प्राप्ति की कथा बनाकर ग्राम-ग्राम में प्रचारित कर दी। पर क्या ऐसी कपोल-कल्पनाओं से तथ्य मिटाये जा सकेंगे?’ राम लक्ष्मण आदि के जन्म के बारे में उन्होंने लिखा है– ‘इस स्थल पर आकर राम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न के वय के विषय में जाने कब से जमी पड़ी जिज्ञासाएँ जाग उठ खड़ी हुईं। राम को एक नन्हे बालक के रूप में मेरे मन ने कभी स्वीकार नहीं किया। आर्यों का मर्यादा-पुरुषोत्तम, उनके आश्रम की मर्यादा भंग कर देगा? पचीस वर्षों के वय के पश्चात् गृहस्थ-आश्रम में प्रेवेश का विधान है और बारह अथवा सोलह वर्षों के राम ने सीता से विवाह कर लिया? दूसरा प्रश्न और भी बीहड़ था– रामायण में राम के प्रति उनके छोटे भाइयों का सम्मान बराबर के बड़े भाई का-सा न होकर पिता-तुल्य बड़े भाई का-सा है। अनेक स्थानों पर छोटे भाइयों के प्रति स्नेह से अभिभूत होकर राम उन्हें अपनी गोद में बैठा लेते हैं। ये सारी बातें मुझे बाध्य कर रही थी कि मैं इन चारों को समवयस्क न मानूँ। उनका समवयस्क होने का मूल आधार-पुत्रेष्टि-यज्ञ, मुझे किसी भी प्रकार स्वीकार्य नहीं था।’

परन्तु ‘मानस’ में पुत्रेष्ठि-यज्ञ का विस्तार से वर्णन है। पुत्रहीन दशरथ ने वशिष्ठ की सलाह से ऋषि शृंगी के नेतृत्व में पुत्र के लिए शुभ यज्ञ कराया। भक्ति सहित आहुति देने पर हाथ में हविष्यान्न(खीर) लिए अग्निदेव प्रकट हुए। तब वशिष्ठ ने कहा कि इस खीर को भाग बनाकर बाँट दो। तुम्हारा वह शुभ काम सिद्ध हो जायेगा।

‘सृंगी रिषिहि  वसिष्ठ बोलावा, पुत्र  काम  सुभ जग्य करावा॥ 
भगति सहित मुनि आहुति दीन्हे, प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हे॥’

अहल्योद्धार: 

रामकथा में यज्ञ रक्षा के बाद सिद्धाश्रम से मिथला को जाते समय बीच में विश्वामित्र राम-लक्ष्मण को अहल्या की कथा सुनाता है। गौतम मुनि के आश्रम में सात दिन का उत्सव, उसमें अनेक ज्ञानी, ऋषि, मुनि, पंडित आमन्त्रित होना, देवराज के रूप में इन्द्र का भी उपस्थित होना, देवराज इन्द्र वासना से प्रेरित होकर ऋषि पत्नी अहल्या की ओर आकर्षित होना और उन्हें प्राप्त करने के लिए दृढ़ निश्चय करना, अवसर देखकर गौतम के आश्रम के बाहर जाते देख अहल्या पर इन्द्र अत्याचार करना, अहल्या की चीख सुनकर आश्रम से बाहर सब आश्रमवासियों का इकट्ठा होना, गौतम के सामने ही इन्द्र आश्रम के बाहर आकर कलंक को अहल्या पर मढ़कर भाग जाना, पत्नी को गौतम की सांत्वना, आश्रमवासी आश्रम को छोड़कर नये आश्रम में चले जाना, सीरध्वज के द्वारा अहल्या को छोड़कर नये आश्रम के कुलपति बनने के लिए गौतम को आह्वान मिलना, अपने पति और पुत्र को स्वयं अहल्या ही भेज देना, समाज बहिष्कृत नारी के रूप में अहल्या आश्रम में ही तपस्या करती रहना, गौतम का नये कुलपति के रूप में देवराज इन्द्र को शाप देकर प्रतिशोध लेना आदि कथा को विश्वामित्र राम-लक्ष्मण को सुनाता है और अहल्या के आश्रम के पास ले जाता है। राम आश्रम में पहुँचकर अहल्या के चरण छूता है। तब विश्वामित्र कहता है– ‘पुत्र! तुम मेरी अपेक्षाओं से भी उच्च हो, परे हो। जाओ देवी! तुम्हें कौशल्या के पुत्र राम का संरक्षण प्राप्त है। अब कोई भी जड़ चिंतक, ऋषि, मुनि, पुरोहित, ब्राह्मण, समाज नियंता तुम्हें सामाजिक और नैतिक दृष्टि से अपराधी नहीं ठहराएगा।’  बाद में अहल्या गौतम के पास चली जाती है। वह समाज में पुन: प्रतिष्ठित होती है।

‘रामचरितमानस’ में यह अहल्या प्रसंग संक्षिप्त रूप से वर्णित है। गौतम के शाप से शिला बनी अहल्या राम के चरण स्पर्श से निज रूप प्राप्त करती है। मानसकार तुलसी जी ने विश्वामित्र से इतना ही कहलवाया है–

‘गौतम नारी  सापबस, उपल  देह धरि धीर। 
चरण-कमल-रज चाहति, कृपा करहु रघुवीर॥’

सीता विवाह-शिव धनुर्भंग: 

रामकथा में सीता विवाह और शिव धनुर्भंग के वर्णन में यथार्थ दृष्टि अपनाई गई है। मिथला के राजा सीरध्वज को खेत में सीता मिलती है। धरती की गोद से मिलने के कारण वह उसी की पुत्री मानी जाती है। सीता सीरध्वज की पत्नी सुनयना की गोद में डाल दी जाती है। वहीं वह पलती और फूलती है। युवावस्था में विवाह के समय सीता के असाधारण जन्म को लेकर आशंकित सीरध्वज रूपवती सीता को पाने की कोशिश करनेवाले राजाओं को रोकने के लिए उसे वीर्य शुल्का घोषित करता है और शिव धनुष संचालन के साथ जोड़ देता है– ‘उसने यह प्रण किया है कि जो कोई उस धनुष की प्रत्यंचा चढ़ा देगा, अर्थात् उस यंत्र को संचालित कर देगा, सीता का विवाह उसी के साथ होगा। पुत्र! जनक ने यह सोच रखा है कि कोई भी देवता, राक्षस, नाग, गंधर्व, किन्नर उस धनुष का संचालन नहीं कर सकेगा। अत: सीरध्वज जनक यह कह सकेगा कि उसकी परीक्षा पर कोई पुरुष पूर्ण नहीं उतरा, अत: सीता अविवाहित रहेगी। तब वह आर्य राजकुलों में जामाता न पा सकने की अक्षमता के आरोप से बच जाएगा और सीता अज्ञात कुलशीलता के कारण अविवाहित रह जाने के आक्षेप से मुक्त रहेगी।’

रामकथा में शिव धनुष भी यंत्र के रूप में चित्रित है। वह धनुष साधारण धनुष नहीं था। वह शिव का धनुष था। उसके द्वारा अनेक प्रकार के दिव्यास्त्र प्रक्षेपित किए जा सकते हैं। कभी महादेव शिव ने युद्ध से निरस्त होकर अपने धनुष को सीरध्वज के पूर्वजों को प्रदान किया था। इस शिव धनुष के संचालन को विश्वामित्र राम को सिखाता है।

राम और सीता का दर्शन पुष्प वाटिका में नहीं, विश्वामित्र को सीरध्वज से आह्वान मिलने पर होता है। स्वयंवर भी एक दिन का नहीं। कभी कोई आता शिव धनुष के संचालन करने का प्रयत्न करता।

‘शिव धनुष भंग’ की घटना भी रामकथा में विशिष्ट रूप से वर्णित है– ‘असाधारण आत्म विश्वास के साथ, अत्यन्त जानकार की भाँति उन्होंने गुरु के निर्देशानुसार, उस यंत्र की कल पर हाथ रखा.... कल का निर्माण कुछ इस ढंग से हुआ था कि कहीं कोई जोड़ दिखाई नहीं पड़ता था।.....राम ने मुट्ठी में पकड़ी कल को अपनी ओर खींचा। उनके बल का उस पर कोई प्रभाव नहीं हुआ, जड़वस्तु अपने  स्थान से नहीं हिली। राम ने प्रयत्न कर अपने शरीर की समस्त शक्ति का अपनी बाँहों में आह्वान किया। कल को पूरी शक्ति से अपनी ओर खींचा। कल अब भी अपने स्थान पर स्थिर थी।.....गुरु के शब्द उनके मस्तिष्क में गूँज रहे थे– बल और कौशल, दोनों का प्रयोग....बल और कौशल दोनों....राम ने गुरु निर्देशित दूसरे उपकरण को पैरों से दबाया...शरीर की शक्ति दो भागों में बँट रही थी। कमर से नीचे का शरीर पैरों के नीचे के उपकरण को दबा रहा था, और कमर के ऊपर का शरीर हाथ में पकडी कल को अपनी ओर खींच रहा था। ....अपूर्व शक्ति संतुलित प्रयोग बल, कौशल, ज्ञान और संतुलन.... राम के शरीर की पेशियाँ कठोर होती जा रही थीं। शरीर सधता जा रहा था। सारा रक्त जैसे चेहरे पर संचित होता जा रहा था.... राम के पैरों के नीचे की कल धँसी और तक्षण ही हाथ की कल अपने स्थान से डोली....उस विराट यंत्र का एक खण्ड अकस्मात ही ऊपर उठता जा रहा था....शिव धनुष अब जड़ नहीं था, वह सक्रिय हो उठा था। भुजा क्रमश: ऊपर उठ रही थी....इससे पूर्व कि उस यंत्र में कोई अन्य परिवर्तन होता, अथवा वह फिर से पूर्ववत् जड़ हो जाता राम अपने हाथों में पकड़ कल के सहारे प्राय: झूल-से गए और अपने दोनों पैरों की सम्मिलित शक्ति से उन्होंने एक विकट प्रहार किया। साथ ही वे कूदे और यंत्र से कई पग दूर जाकर खड़े हो गए। यंत्र का आत्म-विस्फोटक तत्व प्रेरित हो चुका था। निमिष मात्र का भी समय नहीं लगा। किसी बंद पात्र के भीतर गूँजनेवाले विस्फोट का-सा भयंकर शब्द हुआ और अजगव के दो खण्ड हो गए।’

‘मानस’ में भी सीता विवाह को लेकर विस्तार से वर्णन है। वहाँ राम के अवतार रूप को ही दर्शाया गया है। शिव धनुष भी यंत्र नहीं, स्वयंवर भी एक ही दिन में होता है, पुष्प वाटिका में सीता और राम का प्रथम मिलन होता है। राम शिव धनुष को चढ़ाते हैं तो सीता उनकी ओर कटाक्षपूर्ण दृष्टि से देखती है, जबकि रामकथा में शिव धनुष संचालन के लिए प्रयत्न करनेवाले राम को देखकर तथा राम की पीड़ा देखकर स्वयं सीता पीड़ित होती है।

राम के युवराज्यभिषेक और निर्वासन: 

कोहली जी की रामकथा में दशरथ कैकेयी को ब्याहते समय कैकेयी के पिता को कैकेयी के पुत्र को युवराज्याभिषेक करने का वचन देता है। कैकेयी के भय से राम की न्यायप्रियता की ओर दशरथ झुकता है। जब भरत और शत्रुघ्न ननिहाल गये हैं तब ही राम का युवराज्याभिषेक करना चाहता है। वह भी प्रमुख व्यक्तियों को ही बताकर। कैकेयी को भी यह मालूम नहीं होता है। जब मंथरा कैकेयी को विषय बताती है तो कैकेई प्रसन्न होती है मगर दशरथ की शंका समझ में आते ही वह क्रोधित होती है और दशरथ से राम के निर्वासन 14 साल के लिए और भरत के युवराज्याभिषेक के दो वर, जो शंबर युद्ध के बाद दशरथ ने दिये थे, माँगती है।

‘मानस’ में कैकेयी मंथरा की बातों में आकर स्वार्थवश दशरथ से दो वर माँगती है, जबकि रामकथा की कैकेयी प्रतीकार करने के लिए माँगती है। रामकथा के दशरथ में कैकेयी के प्रति शंका होती है। भरत के अपने नाना के घर चले जाने पर उसकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर युवराज पद पर राम का अभिषेक करना चाहता है।– ‘उसे तत्काल अभिषेक करवाना होगा... युद्धार्जित की तैयारी से पूर्व, भरत के लौटने तथा कैकेयी को गंध मिलने से पहले।’

लेकिन ‘मानस’ में राम के युवराज्याभिषेक को लेकर कूटचक्र का संकेत नहीं है। इसमें इस घटना को रहस्य भी नहीं रखते। समाचार पाकर सब माताएँ पहले प्रसन्न ही होती हैं।

चित्रकूट प्रकरण: 

चित्रकूट के पास भरत पहुँचता है तो भरत के मंतव्य के बारे में लक्ष्मण के क्रोध का चित्रण रामकथा तथा ‘मानस’ में मिलता है। रामकथा का लक्ष्मण कहता है– ‘पर भैया, यह न भूलें कि भरत कैकेयी का पुत्र है।’

लेकिन ‘मानस’ का लक्ष्मण भरत के साथ शत्रुघ्न को भी इस कुचक्र में सम्मिलित समझता है और घोषणा करता है कि आज युद्ध में अच्छा सबक सिखाऊँगा।

रामकथा के राम में भरत के प्रति प्रतिशंका होती है। गुह-प्रसंग में राम गुहराज से कहता है– ‘संभावना बहुत कम है....किंतु यदि हमारा अनिष्ट करने के लिए भरत ने इस ओर सैनिक अभियान किया तो तुम बाधा दोगे, और चित्रकूट में हमें इसकी सूचना भिजवाओगे।’

सेना सहित आनेवाले भरत को देखकर रामकथा के राम-लक्ष्मण दोनों ही युद्ध  की संभावना के बारे में सोचते हैं– ‘जैसे-जैसे भरत के निकट आने के समाचार मिलते जा रहे थे जिज्ञासाओं की भीड़ भी बढ़ती गयी थी। .....निकट के विभिन्न आश्रमों से सूचनाएँ मिलीं कि भरत की सेना आ पहुँची है। लक्ष्मण ने कवच कस लिया और अनेक दिव्यास्त्रों से सज्जित हो गए। उन्होंने आश्रम के पिछले मार्ग से मुखर को, उद्घोष के ग्राम की ओर दौड़ा दिया कि वह विभिन्न ग्रामों तथा आश्रमों में से सशस्त्र युवकों को एकत्रित कर शीघ्रातिशीघ्र पहुँचे।’ ‘मानस’ में भरत के प्रति कोई शंका उत्पन्न नहीं होती है।

‘मानस’ में राम भरत को अयोध्या लौट जाने के लिए बाध्य करता है। रामकथा में ऐसा चित्रण कहीं भी नहीं है। चित्रकूट प्रसंग का वर्णन इस प्रकार है– ‘भरत अयोध्या  और मिथिला के राज-परिवार, मंत्रि-परिषद्, पुरोहित वर्ग, प्रमुख प्रजाजन, सेनापति, सैनिक परिषद् तथा सेना की अनेक टुकड़ों लेकर उन्हें लिवाने आये थे। वे तत्काल राम का राज्याभिषेक करना चाहते थे। ....किंतु एक बात के लिए भरत एक दम सजग नहीं थे। भरत के साथ-साथ भरद्वाज, वाल्मीकि तथा अनेक ऋषि भी आए थे। जो ऋषि आ नहीं पाए थे– राम जानते थे– उनके चर आश्रम के चारों ओर मँडरा रहे थे। वे भयभीत थे, कहीं राम भरत की बात न मान ले। ....जब संपूर्ण राजवंश एक स्वर में कह रहा था कि राम अयोध्या लौट चलें– एक भी ऋषि इस इच्छा का समर्थन नहीं कर रहा था। ....अंत में भरत को निराश लौट जाना पड़ा। अयोध्या से लायी गयी राजसी-खड़ाउओं को वे राम के चरणों से हुआ भर सके, उन्हें पहना नहीं सके।’

सीता-हरण प्रसंग: 

खर-दूषण के वध के पश्चात् रावण के द्वारा हुई सीता के हरण की घटना का चित्रण रामकथा और ‘मानस’ में भिन्न रूप से चित्रित है। कोहली की रामकथा में शूर्पनखा-विरूपीकरण और राम के पराक्रम की सूचना पहले ‘अंकपन’ नामक राक्षस से रावण को मिलती है। वह सीधा राम से युद्ध करना चाहता है मगर शूर्पनखा की मंत्रणा से जनस्थान में राम से युद्ध करने की बात छोड़ देता है। तब शूर्पनखा रावण को सीता की सुंदरता के बारे में बताकर उसका हरण करने के लिए प्रेरित करती है– ‘इतनी सुंदर है? रावण, फिर से आत्मलीन हो गया। शूर्पनखा समझ गयी कि रावण का मन उसकी मनोवांछित दिशा में गतिशील हो चुका था.....सीता का हरण करवा लो, शूर्पनखा रावण के कानों फुफकारी।’

रावण सीता-हरण करने के लिए मारीच नामक राक्षस की सहायता लेता है। वह साधु का वेष धारण करके पंचवटी में राम के आश्रम में आता है। राम उसका स्वागत करता है तो मारीच स्वर्ण मृग चर्म को निकाल कर बिछाता है तो सीता आकर्षित होकर आसक्ति दिखाती है तो मारीच जंगल में अनेक स्वर्ण मृग होने की बात कहता है। सीता मारीच के प्रलोभन में आकर राम से स्वर्ण मृग को लाने के लिए कहती है। मारीच स्वर्ण मृग को दिखाने के लिए राम को साथ बुला ले जाता है और काफ़ी दूर जाने के बाद वह दौड़ते हुए राम से आगे जाता है तो राम उसके पीछे भागता है। काफ़ी दूर जाने के बाद मारीच ‘अहा! लक्ष्मण’ कहकर पुकारता है। राम मारीच को मार देता है और राक्षसों के कपट को जान लेता है। मगर मुखर और लक्ष्मण आश्रम में रहने की बात सोचकर नहीं डरता है। मारीच की पुकार को सुनकर सीता व्याकुल होती है, लक्ष्मण जाने से मना करने पर कटुवचन कहती है और स्वयं जाने की बात कहती है तो लक्ष्मण मुखर को वहाँ रखकर राम को ढूँढते हुए जंगल में जाता है। कोई रेखा नहीं खींचता है।

‘मानस’ में मारीच ही स्वर्ण मृग बनता है। राम उसे मारता है तो वह लक्ष्मण का नाम लेकर पुकारता है। सीता लक्ष्मण से राम की सहायता करने जाने के लिए कहती है तो लक्ष्मण नहीं मानता है। सीता कटुवचन कहती है तो लक्ष्मण आश्रम के द्वार पर रेखा खींच कर बाहर न आने के लिए कहकर चला जाता है। आश्रम  में  सीता  के  अलावा कोई नहीं रहता है।

कोहली की रामकथा में लक्ष्मण के जाने के बाद राम आश्रम के पास आता है तो मुखर उसका सामना करता है। रावण मुखर का वध कर देता है और सीता की ओर दौड़ता है तो सीता धनुष-बाण लेकर युद्ध करती है। एक बाण रावण को लगता भी है। फिर भी वह सीता को पकड़कर कंधे पर उठाकर भागता है और दूर पर खड़े किये रथ में चढ़ता है। जटायु यह देखकर रावण को रोकने का प्रयत्न करता है तो रावण जटायु को ख़ूब मारकर और धराशायी करके रथ पर वेग से भाग जाता है। जटायु ही राम को ‘रावण’ का नाम बताकर मर जाता है।

‘मानस’ में रावण साधु वेश में आकर नाना प्रकार की कथाएँ सुनाकर सीता को रथ पर बिठाकर आकाश मार्ग से चल पड़ता है। ‘मानस’ के अनुसार राम का जन्म राक्षसों के नाश के लिए हुआ है और उस के लिए सीता-हरण आवश्यक हो जाता है।

सुग्रीव से भेंट एवं वालि वध: 

कोहली की रामकथा और ‘मानस’ में इस प्रसंग को लेकर कुछ भिन्नता दिखाई पड़ती है। राम एवं सुग्रीव की भेंट हनुमान द्वारा कराई जाती है। रामकथा में भेंट के बाद राम और सुग्रीव एक दूसरे की सहायता करने के लिए तैयार हो जाते हैं– ‘सुग्रीव! आज से हम-तुम बन्धु हुए। तुम मुझे लक्ष्मण के समान प्रिय रहोगे। एक-दूसरे के सुख-दु:ख में हम सह-भागी होंगे। तुम्हारा मित्र मेरा भी मित्र होगा और तुम्हारा शत्रु मेरा भी शत्रु होगा।’ सुग्रीव के मुख पर स्थित दु:ख में अपने दु:ख का साम्य राम देखता है– ‘सुग्रीव! तुम्हारा चेहरा मेरे अपने हृदय का दर्पण है। स्त्री के अपहरण की पीड़ा और अपमान को जितना मैंने अपनी अनुभूति से जाना है, उतना ही तुम्हारे मुख-मंडल से भी जाना है।’

‘मानस’ में राम-लक्ष्मण ही हनुमान से मिलते हैं। प्रभु राम को हनुमान भक्ति के कारण पहचानता है और सुग्रीव के पास ले जाता है। राम सुग्रीव की कथा को सुनकर सहायता करने का वचन देता है। सुग्रीव वालि के क्रोध का कारण बताते हुए मायावी की घटना का वर्णन करता है। ‘मानस’ का मायावी मयपुत्र है। वह कोहली के मायावी के समान लंका का राक्षस, शराब एवं स्त्रियों का व्यापारी नहीं है। ‘मानस’ में वालि उसे युद्ध में मार डालता है।

हनुमान द्वारा समुद्र संतरण: 

कोहली की रामकथा तथा ‘मानस’ में इस प्रसंग को लेकर बहुत अंतर है। ‘मानस’ के हनुमान समुन्दर को आकाश मार्ग से पार करता है तो कोहली जी के हनुमान समुन्दर को तैर कर पार करता है। रामकथा के अनुसार हनुमान सहित वानर-सेना दक्षिण की दिशा में आगे बढ़ती है। कुछ दिनों के बाद एक दिन उन्हें प्यास लगी तो पानी नहीं मिला। हनुमान एक गुफा से पक्षी निकलते देख उसमें घुसता है तो वह रास्ता सीधा एक उपवन में ले जाता है। वहाँ उन्हें एक स्त्री मिलती है। वह उसे खाने के लिए फल तथा समुन्दर के पास जाने का आसानी रास्ता बताती है। तब सब समुन्दर के पास जाते हैं। जटायु के भाई संपाति से  भी सीता का समाचार मिलता है। सागर को लाँघने में सबको असमर्थ पाकर हनुमान तैयार होता है।

‘मानस’ में भी इसी प्रकार का वर्णन है। कुछ अलौकिक घटनाएँ भी हैं। जैसे सूरज की गरमी से जले पंखवाले संपाति को सीता के बारे में हनुमानादि को बताने के बाद फिर पंख निकल आना, समुद्र के इस पार से अशोक वन में स्थित सीता को संपाति गिद्ध होने के कारण देख सकना, समुद्र को लाँघकर जाने के बारे में सब अपनी असमर्थता व्यक्त करने पर हनुमान पर्वताकार रूप धारण कर तैयार होना आदि हैं।

कोहली जी का हनुमान लंका जाने के लिए समुद्र में कूद कर तैरने लगता है। तैरेते-तैरते वह महेन्द्रगिरि के पास जाता है और वहाँ पर स्थित सर्पों से तथा शिला खण्डों से बचकर आगे बढ़ता है। तैरनेवाले हनुमान का चित्रण इस प्रकार है– ‘हनुमान के शरीर पर उत्तरीय नहीं था। बहुत आवश्यक होने पर ही वे उत्तरीय लेते थे, अन्यथा काम-काज में बाधा मानकर, उससे मुक्त ही रहते थे। धोती को यद्यपि उन्होंने कस रखा था, किन्तु तैरने में कदाचित् वह विघ्नकारक हो, सोचकर उन्होंने उसे घुटनों से भी ऊपर समेटकर कमर से भली प्रकार कस लिया। हाथ से टटोलकर देखा– राम की दी हुई मुद्रिका सुरक्षित थी।’

मैनाक पर्वत को पार करने के बाद हनुमान को एक पर्वताकार साँप दिखाई पड़ता है। वह सर्प हनुमान को निगलने के लिए तैयार होता है। वह नाग माता सुरक्षा के आकार का विराट सर्प था। सर्प को काफी परेशान करने के बाद हनुमान सीधे सर्प के मुख के पास जाता है तो वह सर्प मुख खोलता है। हनुमान धनुष से छूटे बाण के समान उसके खुले मुख के निकट से होते हुए आरपार निकल जाता है। काफ़ी दूर तैरने के बाद सिंहिका जैसी जल राक्षसी हनुमान को खाने आती है। हनुमान उससे लड़ने तथा बचने का प्रयत्न करता है। वह मंडुकाकार में बैठकर सिंहिका के मुख में जाता है और सीधा खड़ा जाता है। वह जल दैत्य मुख को बन्द करने लगता है तो हनुमान उसे घायल कर मुख से बाहर निकलता है। बाद में हनुमान लंका पहुँच जाता है। वहाँ लंका राक्षसी हनुमान को रोकती है तो हनुमान उस राक्षसी से लड़कर आगे बढ़ता है।

‘मानस’ में इस घटना को अलौकिक बना दिया गया है। ‘मैनाक पर्वत’ अधिक ऊपर बढ़कर हनुमान को विश्राम देना चाहता है तो हनुमान अस्वीकार करके आगे बढ़ता है। देवता हनुमान की परीक्षा लेने के लिए सुरसा नामक सर्प राज को हनुमान से टकराने के लिए भेजते हैं तो हनुमान अपने शरीर को बढ़ाकर बाद में क्षुद्र रूप धारण करके उसके मुँह में घुसकर फिर बाहर निकल आता है। बाद में वह सर्प हनुमान को आशीर्वाद देकर चला जाता है। बाद में आकाश में जानेवाले पक्षियों को भी मारने वाली राक्षसी को भी मारकर हनुमान लंका पहुँच जाता है।

युद्ध के पहले रावण का कपट: 

इस प्रसंग का वर्णन रामकथा में है मगर ‘मानस’ में नहीं है। रामकथा में रावण मंत्रियों के परामर्श लेकर युद्ध के लिए पूरे आत्म विश्वास के साथ तैयार होता है। वह सीता को राम की ओर से निराश करने के लिए सुबह ही सीता के पास जाकर राम का वध कर देने की बात कहता है तो सीता भयकंपित हो जाती है– ‘सागर पार करते-करते बेचारा बहुत थक गया था। युद्ध से पहले थोड़ा विश्राम कर लेना चाहता था; इसलिए सागर के दक्षिण तट पर सेना-सहित गहरी नींद में सो रहा था। मैंने सोचा, प्रात: उठकर युद्ध करेगा तो पुन: थक जाएगा। इसलिए मैंने उसे वहीं चिरनिद्रा में सुला दिया है। अब वह कभी नहीं थकेगा....मैंने अपने हाथों से राम का वध किया है। रावण बोला, ‘उसके जटाजूट को पकड़, अपने चंद्रहास खड्ग के एक वार से उसका सिर उसके शरीर से अलग कर दिया है। उसका सिर इस समय भी मेरे रथ में मेरे पैरों से ठुकराए जाने के लिए पायदान पर पड़ा है।’  विभीषण की पत्नी सरमा आकर रावण के कपट के बारे में बताती है तो सीता राहत का अनुभव करती है।

रावण वध: 

इस प्रसंग को लेकर रामकथा और ‘मानस’ में अंतर है। ‘मानस’ के रावण के युद्ध में हाथ, सिर आदि कटने पर फिर उग आते हैं। तब राम विभीषण की ओर देखता है। विभीषण रावण की मृत्यु के रहस्य को स्पष्ट करता है कि रावण अपनी नाभि में स्थित अमृत के कारण नहीं मरता है। यह जानकर राम रावण की नाभि के अमृत भांड को बाण से फोड़ देता है तो रावण की मृत्यु हो जाती है। कोहली जी की रामकथा में रावण को लेकर ऐसा चित्रण नहीं है। राम-रावण युद्ध में राम के अचूक बाण से रावण की मृत्यु होती है। ‘मानस’ में रावण वध से दुखित विभीषण का वर्णन है तो रामकथा में नहीं है। कोहली की रामकथा में राम लंका को विभीषण को सौंपकर निस्वार्थ से पालन करने के लिए कहकर अयोध्या लौट जाता है। ‘मानस’ में भी ऐसा ही है मगर उपदेश में अंतर है।

सीता की अग्नि-परीक्षा: 

इस प्रसंग को लेकर ‘मानस’ में और रामकथा में बहुत अंतर है। ‘मानस’ में अग्नि-परीक्षा का प्रसंग असली सीता को अग्नि से पुनर्ग्रहण करने के लिए है। खरदूषण वध के पूर्व राम लीला करने के लिए सीता को अग्नि प्रवेश कराकर माया सीता को पाता है। रावण वध के बाद राम सीता से अग्नि में जल कर आने के लिए कहता है। सीता ऐसे ही करती है। तब अग्नि दर्शन देकर सीता को राम को सौंपकर चला जाता है–

‘धरि रूप पावक पानि गहि श्री सत्य सृति जग बिदित जो।’

कोहली जी की रामकथा में अग्नि परीक्षा ही नहीं है। रावण वध के बाद विभीषण और हनुमान मिलकर सीता को राम के पास लाते हैं तो राम सीता को देखकर प्रसन्न होकर कहता है– ‘आओ सीते। राम ने अपने हाथ बढ़ाए, अपने राम से अब और दूर नहीं रहो। एक वर्ष की दीर्घ अग्नि परीक्षा दी है तुमने। अब तुम्हें कुछ सुख भी मिलना चाहिए।’

राम और सीता के बीच जो संवाद होते हैं उनसे राम का आर्दश रूप स्पष्ट हो जाता है।

निष्कर्ष: 

कोहली जी ने अपने वास्तविक एवं तर्कबद्ध दृष्टिकोण के कारण ‘रामचरितमानस’ में प्रस्तुत लीला, अलौकिकता आदि को नहीं माना है। उनकी रचनाओं में शुद्ध व्यावहारिक यथार्थ तथा मानवीय बोध है। उनकी रामकथा के राम जनस्थान का नायक है, जो जनस्थान के भील, ग्रामीण, वानर भालू आदि निम्न जाति के लोगों को इकट्ठा कर शस्त्राभ्यास देकर रावण जैसे क्रूर राक्षस राजा को मार देता है।

स्पष्ट है कि कोहली जी ने अपनी धारणाओं के अनुसार मिथकीय प्रसंगों को आधुनिक संदर्भों में प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया है। तत्द्वारा उन मिथकीय प्रसंगों एवं पात्रों के प्रति जो आम धारणाएँ तथा विश्वास होते हैं, उनको लेकर पुनर्विचार व अन्वेषण करने की प्रेरणा जगायी है। रामायण की कथा को दोहराना उनका उद्देश्य कदापि नहीं रहा। बल्कि ऐसे स्थल व प्रसंगों को चुनकर जो बहुत काल्पनिक, अलौकिक तथा अवास्तविक लगते हैं। उनके व्यावहारिक धरातल पर सम्बन्ध सूत्र जोड़ने का अथक प्रयास किया है। रामायण हमारा राष्ट्रीय महाकाव्य है। राष्ट्रीय संस्कृति एवं परम्पराओं का धरोहर है। उसकी जो काल सम्बन्धी व काव्य-वेश सम्बन्धी अतिकल्पनाओं को हटाकर ऐतिहासिक, प्रामाणिक तथ्यों व तर्कों को जुटाने में कोहली जी ने जो अथक परिश्रम किया है जिसके लिए उन्होंने पाठकों के मन में अप्रतिम तथा अमोघ स्थान बना लिया है। उनकी रामकथात्मक औपन्यासिक परियोजनाएँ हिन्दी उपन्यास साहित्य में एक नयी परम्परा का सूत्रपात हैं, जो सर्वथा नये भाव-बोध को जगाने  में सक्षम हैं।

संपर्क : जे.आर.पी.-हिन्दी, एन.टी.एस.-आई, भारतीय भाषा संस्थान, मैसूरु-570 006, मोबाईल नं. 9480405650 
 

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