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नरेश सक्सेना - गिरना से लेखन का उठना तय हुआ है

तद्भव के अंक 19 जनवरी 09 में नरेश सक्सेना की कविता गिरना पढ़ी । सक्सेना जी की इस कविता से यकीनन तद्भव की खूबसूरती बढ़ी है । इस तरह की लेखनी तद्भव का शृंगार है । तद्भव की आँख की काजल है, इसकी होंठों की लिपिस्टिक है, कान की बाली है । यकीनन युवा वर्ग इसे पढ़कर लिखना सीखेगा । कथ्य को किस तरह शिल्प में ढाला जाता है, सरल शब्दों से कैसी लय बनाई जाती है, आम भाषा से कैसे ख़ास बात पैदा की जाती है इसका अद्भुत संगम है कविता में । कविता में लेखक की विचारधारा भी कूट-कूट कर भरी है और कहने के लहजे में कवितापन भी अपनी पूरी गरिमा के साथ मौजूद है । कविता में लेखक अपनी बात पूरी ताक़त के साथ कह जाता है और पाठक को ऐसा आभास भी नहीं होता कि उसे उपदेश दिया जा रहा है, यही कविता की सफलता है । मैं इस कविता को जितनी बार पढ़ता हूँ यह मुझे हर बार नये अर्थ प्रदान करती है । इसके विषय की गहराई में जाओ तो लेखक की ऊँचाई का पता चलता है । इस वृक्ष की मज़बूती तने में नहीं जड़ में है । इसे पहली बार पढ़ो तो लगता है यह विश्लेषण है, दूसरी बार पढ़ो तो महसूस होता है यह प्रवचन है, तीसरी बार पढ़ो तो आभास होता है यह काव्य लेखन का प्रशिक्षण केन्द्र है । किसी वस्तु का गिरना और किसी व्यक्ति का गिरना, इस गिरने को कवि ने जो अर्थ और व्यापकता प्रदान की है, सरल शब्दों से जो प्रभाव पैदा किया है, सोच और अभिव्यक्ति का जो टेम्पो इसमें मौजूद है उसमें जिस सलीके से बात कहने की स्पीड को नियंत्रित किया गया है यह लेखक की क़ाबलियत को दर्शाता है । गद्य लेखन की तुलना में काव्य लेखन ज़रा ज़्यादा कठिन हो जाता है क्योकि यहाँ लेखक को अपनी बात आठ दस पृष्ठों में कहने की सुविधा नहीं होती है कि आप एक-एक बात को फैला-फैला कर बता सको । काव्य लेखन में तो सीमित शब्दों में असीमित बात कहनी होती है और साथ ही यह ध्यान रखना होता है कि जो कविता का फारमेट है वह बना रहे । नरेश सक्सेना लेखन की पाठशाला बन कर उभरे हैं । अक्सर यह देखा जाता है कि क्लिष्ट भाषा का इस्तेमाल स्थापित लेखकों को ज़रा ज़्यादा ही भाता है हालाँकि वह भी लेखन का ही हिस्सा है और उस तरह की भाषा को ज़रा भी नकारा नहीं जा सकता है लेकिन यह भी साबित हो चुका है सरल शब्दों का प्रयोग जो छाप छोड़ जाते है वह बात क्लिष्ट भाषा में नहीं है और यह बात सर्वविदित है कि सरल शब्दों का प्रयोग कठिन काम है । नरेश जी जब अपने विचारों को शब्दों में तब्दील कर पाठकों के सामने परोसते हैं तो जो ज़ायका पैदा होता है ज़रा उसका स्वाद तो चखिये -

अरस्तू का कथन है कि, भारी चीज़ें
तेज़ी से गिरती हैं 
और हल्की चीज़ें धीरे धीरे
लेकिन अभी आप अरस्तू के इस सिद्धांत को
गिरता हुआ देखेंगे ।

यहाँ लेखक गिरने के नियम को चुनौती देता है लेकिन चुनौती में उत्तेजना नहीं है, क्रोध नहीं है बल्कि एक प्रकार का शिष्टाचार है, भाषा पर पूरी तरह नियंत्रण है । लेखक चोट कर रहा है पर उसके हाथ में पत्थर नहीं है फूल है । यह एक आदर्श भाषा है । लेखन की आचार संहिता । इस तरह की लेखनी के कारण ही कहा जाता है कि साहित्य इंसान को बेहतर इंसान बनाता है । नरेश सक्सेना कविता के माध्यम से जब अपनी बात कहते हैं तो पढ़ कर यह बात स्पष्ट समझ में आ जाती है कि बात कहने के लिये कविता लिखी गई, यानी कवि को कविता लिखना उतना ज़रूरी नहीं लग रहा था जितना ज़रूरी बात कहना लग रहा था । शब्दों का इस्तेमाल विषय के अनुरूप किया गया है । विषय जिस वर्ग के लिये है उसी वर्ग की भाषा में बात कही गई है, विषय और भाषा इस कविता को अतिरिक्त अंक प्रदान करती है । कवि कितने सहज अंदाज़ में बात आरंभ करता है और किस तरह पगडंडी को छोड़ मुख्यमार्ग पर आ जाता है पता ही नहीं चलता और अचानक मालूम पड़ता है कि यह तो कलम पर सवार होकर हाई-वे पर भाग रहा है । बड़ी बात कहने वाली यह छोटी सी कविता की शुरूआत लेखक कितनी सादग़ी से करता है और देखते ही देखते यही सादग़ी उसका गहना बन जाती है । यह साहित्य का ब्यूटी पार्लर है जहाँ सोच को चमकाया जाता है । कम से कम शब्दों में ज़्यादा से ज़्यादा कहने की कोशिश करने वाला यह कवि अत्यंत सादग़ी से बात कहना शुरू करता है -

चीज़ों के गिरने के नियम होते हैं ।
मनुष्य के गिरने के कोई
नियम नहीं होते ।
लेकिन चीज़ें कुछ भी तय नहीं कर सकतीं
अपने गिरने के बारे में
मनुष्य कर सकते हैं।

बचपन में नसीहतें मिलती रही
कि गिरना हो तो घर में गिरो
बाहर मत गिरो
यानी चिट्ठी में गिरो
लिफाफे में बचे रहो, यानी
आँखों में गिरो
चश्मे में बचे रहो, यानी
शब्दों में बचे रहो
अर्थों में गिरो ।
यही सोच कर गिरा भीतर
कि औसत कद का मैं
साढ़े पाँच फीट से ज़्यादा क्या गिरूँगा
लेकिन कितनी ऊँचाई थी वह
कि गिरना मेरा ख़त्म ही नहीं हो रहा ।

कविता आरंभ से अंत तक एक ही मार्ग पर नहीं जाती । उसमें जगह-जगह मोड़ हैं । कहीं ढलान है तो कहीं चढ़ान है । चिकनी सड़क है तो उबड़-खाबड़ मार्ग भी है । प्रवाह इतना तेज़ है कि शब्दों की ट्रेन कब पटरी बदल लेती है पढ़ने वाले यात्री को आभास ही नहीं होता । नरेश जी की कलम में अनुभव की स्याही है, जो हर लाईन में छलकती है । कवि जब अपने विचार को कविता की थाली में परोसता है तो उसमें दर्शन का तड़का, मनोविज्ञान का बघार कर के उसका मज़ा दुगना कर चुका होता है । नरेश सक्सेना अपनी कविताओ में गाईड बन कर मौजूद रहते हैं जो पाठकों को भटकने नहीं देता और उसके दिये हुए समय का एक-एक क्षण का सदुपयोग कर लिया जाता है । नरेश जी कविता में दिशा निर्देश भी देते हैं, मार्गदर्शन भी करते हैं, शिक्षा भी देते हैं । उनकी बातें किसी घटना का बयान नहीं बल्कि बेहतर जीवन जीने के तौर-तरीके की समझाईश है । कविता पढ़ने के दरम्यान पाठक अपने कवि की हर बात को ”कैच” करता है क्योंकि थ्रो सटीक है । थ्रो और कैच की सफल जुगलबंदी ही लेखन की सफलता है और नरेश सक्सेना अपने मिशन में सफल होते हैं । जैसे-जैसे कविता आगे बढ़ती है सोच के द्वार खुलते जाते हैं और कविता का क्षेत्रफल बढ़ता जाता है । गिरना में कवि ने ख़ुद को खूब उठाया है- बानगी देखिये -

गिरो जैसे गिरती है बर्फ
ऊँची चोटियों पर
जहाँ से फूटती है मीठे पानी की नदियाँ /
गिरो प्यासे हलक में एक घूँट जल की तरह/
गिरो आँसू की एक बूँद की तरह
किसी के दुख में/
गेंद की तरह गिरो
खेलते बच्चों के बीच/
अँधेरे पर रोशनी की तरह गिरो
गिरो गीली हवाओं पर धूप की तरह
बारिश की तरह गिरो सूखी धरती पर/

गिरना में लगातार विचारधारा का उठना जारी रहता है, इसमें अतीत की परतों को कुरेदा नहीं गया है बल्कि भविष्य की राहों को टटोला गया है । बीते हुए कल पर छाती पीटने के बजाये आने वाले कल की संभावनाओं पर सकारात्मक विचार किया गया है क्योंकि समय आगे को चलता है पीछे की तरफ नहीं, कवि वर्तमान में बैठकर भविष्य को रचता है इसीलिये कवि है वरना इतिहासकार होता । जो लेखन स्वयं के लिये होता है वह इतना लम्बा सफ़र तय नहीं करता है जितना नरेश जी ने किया है । वही लेखन टिका रहता है जो औरों के लिये होता है । औरों में देश, समाज, दुनियां सब शामिल है । कवि को पढ़ते हुए ऐसा अहसास होता है कि कवि लिखना भले स्वयं के सुख के लिये शुरू किया होगा लेकिन अंत तक आते-आते उसका सुख औरों के सुख में परिवर्तित हो जाता है । अपनी इसी ज़िम्मेदारी को निभाते हुए कवि लिखता है -

गिर गये बाल
दाँत गिर गये
गिर गई नज़र और
स्मृतियों के खोखल से गिरते चले जा रहे हैं
नाम, तारीख़ें, और शहर और चेहरे
और रक्तचाप गिर रहा है
तापमान गिर रहा है
गिर रही है ख़ून में निकदार होमोग्लोबीन भी
इससे पहले कि गिर जाये समूचा वजूद
एकबारगी
तय करो अपना गिरना
अपने गिरने की सही वज़ह और वक़्त
और गिरो किसी दुश्मन पर
गाज की तरह गिरो
उल्कापात की तरह गिरो
वज्रपात की तरह गिरो
मैं कहता हूँ
गिरो ।

नरेश सक्सेना जी ने इतनी सुदर कविता लिखी और अखिलेश जी ने उसे तद्भव के माध्यम से हमारे तक पहुँचाया इसके लिये दोनों को साधुवाद ।

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