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नसीब

अपने स्वभाव के प्रतिकूल वह, बकरी बन गई थी। उपाय भी क्या था। कुछ भी तो उसके अनुकूल नहीं था, इस दुनिया में। न रूप, न शरीर, जो पुरुष के लिए अभिनंदनीय था। बस थोथा स्वाभिमान था। मरने का हौंसला नहीं था, इसलिए जीना था ही, चाहे परिस्थिति कितना भी मुँह चिढ़ाए। हाँ, विद्या नामक डिग्री तो थी उसके पास, जिसका उसे अभिमान भी था। मगर डिग्री का तो तब मोल होता जब नौकरी रहती, कोई भी, कैसी भी, कहीं भी। यहाँ समय ने भी उसे अँगूठा दिखा दिया। अब दूसरा एक ही रास्ता बचा, जो गैंडे वाली मोटी खाल थी, उसे सहन शक्ति भी कहा जाता था। उसके सामने रात-दिन, किसी भी पहर, उसकी कमियाँ गिनायी जा सकती थीं, और उससे सिर्फ़ और सिर्फ़ मुस्कुराना चाहिए, की उम्मीद की जाती थी। यहाँ यह बताना नितांत आवश्यक है, कि पूर्व जन्म में नहीं, इसी जन्म में, बकरी पहले बाघ हुआ करती थी, धड़ाक से शिकार की गर्दन दबोचने में माहिर, उससे भयभीत रहने वालों की संख्या भी पर्याप्त थी। अब वह जब से बकरी बनी, ख़ुद ही सबकी शिकार हो गई थी। और लोग समझ रहे थे, वो जी रही थी। वैसे लोगों को क्या फ़र्क पड़ने वाला था, उसके जीने से या मरने से। फिर भी, जी तो वह रही थी ज़िंदगी को ही। 

सारा बोझ अपने पीठ पर उठाए कभी वह गदही बन जाती, तो कभी घोड़ी। उसे लगता, सेवा करके भी तो वह इस परिवेश में अपना स्थान बना ले, ताकि बैठ कर खाने वालों या धरती का बोझ न समझी जाय। धरती पर चंद लमहे स्वाभिमान से जी सके। मगर लोगों को फिर भी उससे कष्ट था, फलस्वरूप जब-तब अकारण, अथवा घमंड के फलस्वरूप उनकी सहनशीलता की सीमा लाँघ जाती, और इस आक्रोश की चपेट में आई बेचारी बकरी मिमियाने लग जाती। थोड़ी देर बाद उन्हें अपनी ज़्यादती का आभास होता, तो वे बकरी को समझाने-बुझाने लगते,  "अपने आप को बदलो, नहीं तो तेरा जीना मुश्किल हो जाएगा”। 

बकरी मिमियाती, “अब मैं कितना बदलूँ अपने आप को, बकरी से क्या बनूँ?”

बात आई गई हो जाती। उस पर कुछ हल्की सी दया दिखा दी जाती। बकरी भी अपनी असलियत समझती थी। मगर उसका डीएनए भी तो बकरी का नहीं था, मजबूरी का क्या नाम दिया जाए। असमय हलाल होने के पक्ष में नहीं थी। जीवन संघर्ष है, उसे ख़ूब पता था, कभी कुछ दारुण दुख से दुखी हो जब वह ज़ोर से, व लगातार मिमिया जाती, तो घर में हल्ला होने लगता;  “आख़िर कितना कोई बर्दाश्त करे, ऐसी ही हालत में लोग तलाक़ ले लेते हैं”। 

वह इस भयंकर चाबुक से आहत हो, पिछला दर्द भूल कर सहम जाती। बाहर की कष्टप्रद दुनिया के बारे में उसे ख़ूब मालूम था। कुछ समय के बाद, कुछ सोच-विचार कर, फिर उसके चालाक मालिक द्वारा सामने हरा-हरा घास डाल दिया जाता। सब कुछ भूलकर, वह उन घास को पहले सब को खिलाती, फिर उसके खाने की बारी आती। तब तक घर में शांति फैली हुई होती। 

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टिप्पणियाँ

Sunil Rai 2019/10/21 07:48 AM

Marmik hai. Congratulations for penning such a heart wrenching commentary.

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