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नशा मुक्ति केंद्र में लेखक

कई दिनों से मुझे यह तो अहसास हो गया था कि अपने मुहल्ले में जो नया सा बंदा ख़ूबसूरत बीवी के संग किराए पर रहने आया है वह किसी लत का शिकार ज़रूर है। पर फिर मैंने सोचा मुझे क्या? लत यहाँ किसे नहीं? सभी किसी न किसी नशे के शिकार होकर सड़क से लेकर संसद तक धक्के खा रहे हैं, सो चुप रहा।

ल बंदे की बीवी रोती हुई मेरे घर आई तो कलेजा मुँह को आ गया। सच कहूँ, जब किसी की बीवी रोती हुई दिखती है तो पता नहीं क्यों मेरी आँखों में आँसू न होने के बाद भी अचानक टप- टप आँसू कहाँ से बहने लगते हैं? अपनी तो अपनी, रोती हुई बीवी तो मुझे दुश्मन की भी बुरी लगती है।

वे आईं तो आते ही फफक- फफक कर रोती हुईं बोली, "भाई साहब! बड़े दिनों से कहना चाह रही थी आपसे, पर हिम्मत नहीं हो रही थी। आज सब्र का बाँध टूट गया सो..." शुक्र है देश में किसीके सब्र का बाँध तो टूटा। सुन बहुत राहत मिली।

"क्या बात है? ये आँसू और आपकी आँखों में? जिन आँखों में सुरमा होना चाहिए था उन आँखों में आँसू? ये आँसू आख़िर तुम्हारी बिल्ली सी आँखों में दिए किसने? उसका नाम बता दो तो अभी जाकर उसे ऐसा सबक सिखाऊँ कि वह तो वह, उसकी पिछली दस पुश्तों तक को भी पता चल जाए कि मैं आख़िर कौन हूँ," कह मैं आपे से बाहर हुआ तो वे इशारों ही इशारों में मुझे अपनी खाल में रहने को समझाती बोलीं, "क्या है न कि भाई साहब! अब तो हद ही हो गई। पिछला कमरा भी इसीलिए छोड़ कर आए थे। मकान मालिक ने हमें कहा था कि...."

"क्या कहा था? हर महीने कमरे का किराया नहीं दे पाए थे क्या?" सोचा, समय रहते अपने दोस्त को सूचित कर उसके प्रति अपनी वफ़ादारी का उदाहरण पेश करूँ।

"वह बात नहीं थी भाई साहब!" 

"तो क्या बात थी? महाशय चौबीसों घंटे पीकर रहते हैं क्या? सच कहूँ तो जब से आप लोग मुहल्ले में आए हो महीना हो गया आपको आए, पर साहब के दर्शन नहीं हुए। आख़िर क्या करते रहते हैं वे दिन भर पड़े-पड़े? बाहर की हवा उन्हें रास नहीं आती या...."

"क्या बताऊँ भाई साहब! सोच रही हूँ अब उन्हें नशा निवारण केंद्र में ले जा उनका इलाज करवा ही लूँ। अब तो पानी सिर से ऊपर हो गया है," उन्होंने कहा तो लगा बंदा ज़रूर चरसी होगा। सभ्य आदमी से उसकी बीवी कभी शिकायत नहीं करती। वही सबसे उसकी शिकायत करता है। भंगी होगा? या कि हरदम गुटखे से मुँह भरे होता होगा? कि पी कर पड़ा रहता होगा हरदम चारपाई पर। तभी तो जब से हमारे मुहल्ले में आया है, उसके दर्शन ही नहीं हुए हैं।

"तो ये बात है?"

"जी भाई साहब!" कह वे कुछ नॉर्मल हुईं।

"तो??"

"आपके यहाँ नज़दीक कोई नशा मुक्ति केंद्र हो तो मैं इन्हें वहाँ एक बार दिखाना चाहती हूँ ताकि उन्हें इस लत से मुक्ति मिले और मैं सफल वैवाहिक जीवन इनके साथ जी सकूँ।"

"कोई बात नहीं। आपका दर्द अब हम सबका सांझा दर्द है," कह मैंने उन्हें सांत्वना दी तो उन्होंने पूछा, "तो कब चलें इन्हें लेकर वहाँ?"

"कब क्या?? अभी ले चलते हैं," असल में मुहल्ला विकास समिति का सह सचिव रामदीन लंच करने अपने घर आया था और लंच करके ऑटों लेकर जाने ही वाला था। उसे सामने देख मैंने उसको पास बुला सब बाताया तो वह मुहल्ला विकास समिति का सहसचिव होने के नाते जनहित के लिए एकदम राज़ी हो गया।

हमने आव देखा न ताव, तीनों ने उनके पति को उनके कमरे से ज़बरदस्ती उठाया और ऑटो में डाल दिया। उस समय महाशय पूरी तरह सुरूर में थे।

आधे घंटे में हम तीनों महाशय को नशा मुक्ति केंद्र में पहुँचाने में सफल हो गए। रामदीन को पता था था कि काम जनकल्याण का है, सो जहाँ भी उसे लगता कि ऑटो बंद कर भी चल सकता है, वहाँ-वहाँ वह पूरा रिस्क ले ऑटो बंद कर ही चला रहा था। हालाँकि उनके पति ने इस अप्रत्याशित हमले से बचने की कोशिश भी की पर वह क्या मेरे चंगुल से कैसे बच जाता क्योंकि आज तक कोई मेरे चुंगल से बचा ही नहीं।

जैसे ही ऑटो नशा मुक्ति केद्र में पहुँचा तो बंदे के होश उड़े हुए। हम तीनों ने जैसे कैसे उसे नशा मुक्ति केंद्र में डॉक्टर के सामने कुर्सी पर पटक दिया। उस समय जो डॉक्टर ड्यूटी पर तैनात था उसके हाव-भाव देख कर वह सही हालत में बिलकुल नहीं लग रहा था। पर इस देश में ड्यूटी टाइम में किसी को कुछ कहना सबसे बड़ी मूर्खता होती है सो हम तीनों चुप रहे। आख़िर डॉक्टर साहब ने हमें घूरते हुए पूछा, "क्या हुआ है इसे?"

"साहब डेड लती है," मैंने उसे कुर्सी पर बिठा सँभालते कहा।

"क्या नशा लेता है? गुटखा खाता है?"

"नहीं," उसकी बीवी ने सिर झुकाए कहा।

"चेन स्मोकर है?"

"नहीं," उनकी बीवी ने फिर सिर झुकाए कहा।

"चरसी है?"

"जी नहीं।"

"तो शराब पीता है?" पूछने के साथ- साथ डॉक्टर साहब की खीझ भी बढ़ती जा रही थी। 

"नहीं?"

"तो रिश्वत लेने की लत होगी इसे? इस लत ने आज भगवान तक को नहीं छोड़ा।"

"जी नहीं, आज तक इन्होंने रिश्वत ही दी है।"

"तो इधर-उधर मुँह मारने की बीमारी होगी? ये इंजेक्शन अभी लगता हूँ। ये तो क्या इस इंजेक्शन को बनाने वालों को दावा है कि जो मजनू, रांझा को लगता तो वे तो क्या उनके पुरखे तक इश्क़-मुश्क भूल गृहस्थ जीवन जीते।"

"नहीं डॉक्टर साहब! इधर-उधर क्या ख़ाक मुँह मारेंगे? ये तो मुझे भी नहीं देखते। बस, जब देखो, शून्य में ही कुछ निहारते रहते हैं।"

"ज़बरदस्ती विवाह तो नहीं हुआ है इससे आपका? कहीं पुराने प्रेम का रोग तो नहीं हैं इसे? हो सकता है विवाह के बाद भी गई प्रेमिका को शून्य में देखते रहता हो? कोई बात नहीं, उसकी भी दवाई है हमारे नशा मुक्ति केंद्र में। ऐसी डोज़ दूँगा कि प्रेमिका तो प्रेमिका, अपनी घरवाली तक को न भूल जाएँ तो वीआरएस ले प्राइवेट काम शुरू कर दूँ।"

"विवाह तो इनकी मर्जी से ही मैंने किया है इनसे," उनकी बीवी ने कहा तो मेरे पैरों तले से ज़मीन सरकी।

"तो आख़िर नशा क्या करता है ये नशेड़ी?" डॉक्टर ने शुक्र है मेरा नहीं, अपना ही माथा पीटा।

"इन्हें लिखने का नशा है डॉक्टर साहब। वह भी इतना कि जब ये लिखने बैठते हैं तो अपनी सुध-बुध ही खो देते हैं। जबसे इनसे विवाह-सूत्र में बँधी हूँ, मैंने इन्हें कभी भी सही हालत में नहीं देखा। जब देखो, बस, लिखने की धुन। न भूख, न प्यास। दिन हो या रात, बस काग़ज़ों से लिपटे रहते हैं। न रोटी की फ़िक्र न पानी की। इनको दी चाय दस बार गर्म करनी पड़ती है। सुबह की चाय रात को पीते हैं तो रात का खाना सुबह खाते हैं। अपनी तो इन्हें सुध है ही नहीं, पर मेरी भी नहीं है।"

"तो लिखने की लत है इसे??" डॉक्टर साहब चीखे।

"हाँ डॉक्टर साहब!" बंदे की समझदार बीवी ने सिसकते हुए कहा तो डॉक्टर पगलाया, "तो इसे किसी अख़बार के संपादक के पास ले जाओ। मेरा दिमाग़ क्यों ख़राब कर दिया सुबह-सुबह!"

"पर डॉक्टर साहब अब तो शाम के पाँच बज रहे हैं," मैंने कहा तो वे मुझे खाने वाली नज़रों से घूरने लगे।
 

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