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नाटक की संप्रेषणीयता में रंगभाषा का महत्व

रंगमंच-सापेक्षता आज के हिन्दी नाटक की महत्वपूर्ण उपलब्धि मानी जा सकती है। लंबे समय से हिन्दी रंगमंच उपेक्षित रहा। लंबे समय तक हिन्दी नाटक अरंगमंचीय साहित्यिकता और असाहित्यिक रंगमंचीयता, दोनों अतिवादी दृष्टियों से मुक्ति के लिए छटपटाता रहा। लेकिन समय के साथ-साथ हिन्दी नाटक ने रंगकर्म का नवीन दृष्टि से पुनरान्वेषण किया और नाटक तथा रंगमंच को एक-दूसरे का पूरक सिद्ध किया। अन्योन्याश्रित होने के बाद रंगमंच के बिना नाटक अकल्पनीय बन गया और इसी दृष्टि से निर्देशक-नाटककार की नई प्रयोग-यात्रा के द्वार खुले। अब यह आवश्यक हो गया कि हिन्दी नाटक ने संवेदना और शिल्प के स्तर पर जो उपलब्धियाँ अर्जित की हैं, उनका रंगमंचीय दृष्टि से अध्ययन, मनन, विश्लेषण किया जाए। इसी परिप्रेक्ष्य में रंगभाषा की अवधारणा भी सशक्त और स्वाभाविक रूप में सामने आई और रंगभाषा से जुड़े सभी पहलुओं का विवेचन अब प्रासंगिक हो उठा।

नाटक को दृश्य-काव्य कहा गया है। एक नाटक को पूर्णता तभी प्राप्त होती है जब रंगमंच पर उसका मंचन किया जाता है। नाटक "पठन" की नहीं "मंचन" की कला है और उसकी सार्थकता मंच पर ही है। रंगमंचीयता की शर्त को पूरा करते हुए नाटक दर्शक की चेतना को जागृत करने का कार्य करता है। इस प्रकार, कहा जा सकता है कि एक नाटक की रचना दो स्तरों पर होती है। पहली बार, जब नाटक लिखा जाता है और दूसरी बार, जब इसका मंचन किया जाता है। अतः मंचन की इस प्रक्रिया में जिस एक नवीन भाषा की रचना होती है, उसे ही रंगभाषा कहा जाता है। वस्तुतः किसी भी रचना का मूल उद्देश्य होता है सम्प्रेषण। अन्य साहित्यिक विधाओं में भाषा इस संप्रेषणीयता में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है तथा इसके माध्यम से रचना पाठक के मस्तिष्क में जगह बनाते हुए विचार को जागृत करने का कार्य करती है। किन्तु नाटक के संदर्भ में यह भाषा एक विशिष्ट स्वरूप ग्रहण कर "रंगभाषा" बन जाती है जो विभिन्न रंग-संकल्पनाओं के माध्यम से नाटक की अर्थवत्ता को प्रमाणित करती है। हम कह सकते हैं कि रंगभाषा एक प्रकार का समन्वय और समायोजन है तथा यह कोई निश्चित या स्थिर भाषा नहीं है। यह निरंतर बदलती रहती है और इसमें नवीन संयोजनों और सुधारों की संभावना हमेशा विद्यमान रहती है। डॉ. गिरीश रस्तोगी इसी बात को अपने शब्दों में इस प्रकार व्यक्त करती हैं-

"रंगभाषा एक बनी-बनाई भाषा नहीं है, वह एक ताज़गी भरी संश्लिष्ट भाषा है। उसे हम उसकी समग्रता में ही अनुभव कर सकते हैं, एक ऐसी समग्रता और संश्लिष्टता जो पूर्व-निर्धारित नहीं है। उसमें अनेक सर्जक तत्व, अनेक कला रूप, सूक्ष्म सौंदर्यानुभव आकर जुड़ते जाते हैं- उसमें एकात्म भी हो जाते हैं और अपनी स्वतंत्र अनुभूति भी कराते रहते हैं।"1

दूसरे शब्दों में, किसी नाटक की रंगभाषा की रचना, उसके विकास में कई तत्व शामिल होते हैं। यह मात्र शब्दों तक सीमित न रहकर व्यापक फ़लक पर विस्तृत होकर विभिन्न माध्यमों को भी भाषा के भीतर समाहित हर लेती है। सृजनात्मक स्तर पर रंगभाषा के रूप में एक ऐसी भाषा का जन्म होता है जिसके माध्यम से अमूर्त विचार भी सार्थक अभिव्यक्ति प्राप्त करता है। यहाँ उल्लेखनीय है कि किसी नाटक की रंगभाषा का अध्ययन-विश्लेषण विभिन्न घटकों और प्रतिमानों के आधार पर किया जा सकता है।

नाटक की भाषा और संवादीय संरचना

इन्हें रंगभाषा की रचना के बुनियादी घटक के रूप में माना जा सकता है, क्योंकि यह एक मूल सत्य है कि समस्त रंगीय और भाषेतर माध्यमों के बावजूद भी नाटक एक शाब्दिक कला है। यद्यपि यह ठीक है कि नाटक दृश्य-काव्य है और इस नाते उसकी भाषा संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, विशेषण आदि पदों वाली भाषा मात्रा नहीं है- वह दृश्य-विधान, अभिनय और रंग-तत्वों की अभिव्यक्तिपरक क्षमताओं के साथ ही अपने को सार्थक करती है, किन्तु वस्तुतः मंच पर नाट्य रूप में जो कुछ भी दृश्य के रूप में उभरता है, वह भाषा पर निर्भर है और भाषा के बीच से ही उभरता है। इस दृष्टि से रंगभाषा के सन्दर्भ में नाटक के अध्ययन के लिए उसकी भाषा और संवादीय संरचना का महत्व बढ़ जाता है।

भरतमुनि ने जहाँ शब्द को नाट्य का कलेवर कहा और उसे पूरे यत्न के साथ संजोकर रखने की बात कही है, वहीं उन्होंने अभिनय को संवाद की व्यंजना का मूल आधार भी बताया है। इस बात की पुष्टि उनके निम्नलिखित श्लोक से होती है -

"वाचि यत्नस्तु कर्तव्यो नाट्य स्यैषा तनुः स्मृता।
अंगनैपथ्यसत्वानि वाक्यार्थं व्यंजयन्ति हि॥"2

फिर भी, प्राचीन नाटकों में शब्द की तुलना में भाषेतर तत्व उपेक्षित रह जाते थे, क्योंकि वहाँ ऐसे संवादों का प्रयोग ही बहुतायत में होता था जिनमें काव्यात्मक उक्तियों की भरमार थी। किन्तु इधर नए नाटककारों ने संवादों की रचना में जागरूक रंगकला का परिचय दिया है, तथा उनकी नाट्यभाषा और संवाद स्वयं रंग-संभावनाओं से परिपूर्ण लगते हैं। वस्तुतः यह एहसास निरंतर बढ़ता जा रहा है कि नाटक की भाषा और संवादों की समस्त रंग-क्षमताएँ उसी के भीतर समाहित कर दी जाएँ। धर्मवीर भारती, जगदीशचन्द्र माथुर, मोहन राकेश, सुरेन्द्र वर्मा, शंकर शेष आदि की नाट्यभाषाएँ इस प्रवृत्ति का सशक्त उदाहरण मानी जा सकती हैं।

प्रायः यह देखा गया है कि हिन्दी के अनेक नाटककारों ने रंगभाषण की अपेक्षाओं को अस्वीकार किया है जिससे उनकी नाट्य भाषा में शब्द-बाहुल्य, कथा तत्व का गैर-ज़रूरी विस्तार, दृश्य-तत्व की तुलना में श्रव्य पर बल आदि प्रवृत्तियाँ दिखाई देती हैं। आवश्यकता इस बात की है कि नाटककार रंगीय अपेक्षाओं को भलीभाँति समझे और नाट्यलेखन को रंगोन्मुखी बनाए। तभी नाटकीय संवाद रंगीय संभावनाओं से पुष्ट होंगे तथा स्वस्थ रंगभाषा की रचना संभव हो सकेगी। गोविंद चातक जी ने भी नाटक की भाषा और संवादीय संरचना की रंगीय संभावनाओं को इन शब्दों में प्रकट किया है - "वस्तुतः संवाद रचना एक सचेतन शिल्प है जो संबोधक, संबोध्य, स्थिति और परिवेश की आंतरिक अपेक्षाओं के साथ भाषा और भाषेतर माध्यमों को जन्म देता है।"3

रंगभाषा की रचना में निर्देशक की भूमिका

निर्देशक नाट्यकला को एक नवीन सृजनात्मकता प्रदान करता है। हमारी भारतीय परम्परा में निर्देशक की कोई परिकल्पना नहीं थी, सूत्रधार की थी या अभिनेता-प्रधान नाट्य की थी। निर्देशक की परिकल्पना पश्चिम की है और वह हमारे आधुनिक रंगमंच में भी एक सृजनशील रंगकला में दक्ष शक्तिशाली व्यक्तित्व के साथ स्थापित हुआ। नाटककार और अभिनेता की प्रमुखता की भारतीय अवधारणा का स्थान निर्देशकीय परिकल्पना ने ले लिया। इस निर्देशक ने नाटककार की लिखित रचना में मौलिक पुनर्सृजन की खोज की। निर्देशक के माध्यम से एक रचनात्मक सहयोगी प्रयास उभरकर सामने आया जिसमें नाटककार, अभिनेता और रंगकला के सहयोगी घटकों के साथ निर्देशक के नए समीकरण विकसित हुए। इस निर्देशकीय दृष्टि ने किसी भी लिखित नाटक को एक "रंगमंचीय अनुभूति" में बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। डॉ. गिरीश रस्तोगी निर्देशक की इसी भूमिका को इन शब्दों में प्रकट करती हैं- "सच्चाई यह है कि गंभीर, संवेदनपूर्ण, कल्पनाशील निर्देशक नाटक के टेक्स्ट को बदल देता है, उसे नया विज़न देता है, अपने जीवन-चिंतन को, मूल्यों को, अपनी सोच को एक संश्लिष्ट कला के माध्यम से अभिव्यक्ति देता है।"4 वस्तुतः एक ही निर्देशक अपने हर नाटक के लिए अपनी सृजन प्रक्रिया में परिवर्तन करता रहता है। हर निर्देशक की सोच, उसका व्यक्तित्व अलग होता है। उसके निर्देशन की प्रक्रिया, प्रस्तुति की शैली और प्रस्तुतीकरण की कला भी भिन्न होती है। किन्तु महत्वपूर्ण यह है कि इस भिन्नता के बावजूद दर्शकों तक जिस रंग सृष्टि का सम्प्रेषण होता है और जो विशेष सृजन जन्म लेता है, वह अपने आप में विशिष्ट और उल्लेखनीय होता है।

एक सफल निर्देशक की पहचान यही है कि वह कम से कम शब्दों के नाटक को भी दूसरे तत्वों की सहायता से एक नई रंगभाषा रचकर पुनर्सृजित और प्रेक्षकों तक सम्प्रेषित कर देता है। इस प्रकार, निर्देशक बनी-बनाई, सधी-सधाई भाषा के व्याकरण को तोड़कर एक नवीन, ताज़गी-युक्त जीवंत भाषा की रचना करता है, शब्देतर माध्यमों के प्रयोग से नई दिशाओं का अन्वेषण करता है। अलग-अलग निर्देशक एक ही नाटक को अपने-अपने व्यक्तित्व के अनुसार अलग-अलग अर्थ-सौंदर्य देते हैं और प्रस्तुति शैली में अंतर लाते हैं। इस तरह प्रत्येक निर्देशक एक नई और विशिष्ट रंगभाषा की रचना करता है।

रंगभाषा की सर्जना में अभिनेता की भूमिका

भारतीय दृष्टि और मान्यता के अनुसार अभिनेता को रंगमंच और रंगकला का सबसे प्रमुख माध्यम माना गया है क्योंकि वह ही नाटक की जीवंतता और प्रत्यक्ष अनुभूति को अनुभव कराता है। वास्तव में, अभिनेता का पूरा व्यक्तित्व रंगभाषा का काम करता है। उसके शरीर की बनावट और आकृति, उसकी उम्र, उसके खड़े होने, उठने-बैठने, चलने-फिरने का ढंग, उसका व्यवहार, उसकी प्रत्येक मुद्रा और भाव-भंगिमा चारित्रिक विशिष्टता को अभिव्यक्त करती है। उसकी वाणी, स्वर-नियंत्रण, स्वर का उतार-चढ़ाव, लय-टोन आदि नाटक की संवेदना और कथ्य को प्रेक्षक तक संप्रेषित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। एक अच्छे अभिनेता को शरीर, वाणी मन-मस्तिष्क से अधिक अनुशासित, ऊर्जावान और भिन्न-भिन्न स्रोतों से ज्ञान की प्राप्ति कर और सक्षम और समर्थ होना पड़ता है। नाट्यशास्त्र में आंगिक, वाचिक, आहार्य, सात्विक अभिनय का विवेचन किया गया है। गहन प्रशिक्षण के माध्यम से तथा जीवन और जगत को करीब से देखकर-जानकर अभिनेता इन पर महारत हासिल कर सकता है। "अभिनय की भाषा" को विकसित करने के लिए अभिनेता को सजग और सक्रिय तो होना ही चाहिए, साथ ही मानसिक रूप से संतुलित, अनुशासित और आवेगों को नियंत्रित करने वाला भी होना चाहिए। अभिनय कला के लिए "ऑब्ज़र्वेशन" और "एकाग्रता" नितांत आवश्यक हैं। डॉ. गिरीश रस्तोगी ने रंगभाषा के स्वरूप-निर्माण में अभिनेता के योगदान पर महत्वपूर्ण विचार प्रकट किए हैं। वे मानती हैं कि अभिनेता ही नाटककार की रचना के अर्थ और अभिप्राय को प्रकट करके उसे सजीव और प्राणवान बनाता है। उनके शब्दों में, "अभिनेता ही नाटकीय अभिप्राय को सामने लाता है। नाटककार की भाषा में, उसके शब्दों में अर्थ, व्यंजना, संकेत, उच्छ्वास, प्राण अभिनेता भरता है।"5 आगे भी वे कहती हैं, "अभिनेता में नृत्यकार जैसी शारीरिक, मानसिक साधना चाहिए और एक घुमक्कड़ जैसी संचरणशील वृत्ति भी।"6 अर्थात् जिस प्रकार एक नर्तक शारीरिक परिश्रम और गहन् मानसिक साधना के बल पर अपनी कला की सम्पूर्णता प्राप्त करता है, उसी प्रकार अभिनेता को भी शारीरिक और मानसिक स्तर पर गहन् साधना की अपेक्षा होती है।

इस प्रकार इसमें कोई सन्देह नहीं कि अभिनेता का कंठ और शरीर, उसके वाचिक, कायिक, आहार्य, सात्विक अभिनय और रंग कला के विभिन्न तत्व मिलकर लगातार एक मौलिक सृजन करते रहते हैं तथा रंगभाषा की बुनावट में अभिनेता की भूमिका एक साथ ही बेहद सूक्ष्म और व्यापक होती है।

रंगभाषा की दृष्टि से प्रेक्षक की भूमिका

रंगमंच एकमात्र कलारूप है जिसमें अनेक सर्जक तत्वों की संश्लिष्टता के साथ-साथ सामने उपस्थित समूह की संवेदना और कल्पना-शक्ति का भी हाथ होता है। वह भी रंगभाषा का जीवंत सर्जक माना जा सकता है। दर्शक के मन में क्या-क्या उथल-पुथल चल रही है और प्रस्तुति के बाद उसकी प्रतिक्रिया, अनुभव क्या है, यह सब एक सृजनात्मक प्रक्रिया का रचनात्मक हिस्सा है। दर्शक केवल द्रष्टा नहीं है, वह सहृदय, संवेदनशील "प्रेक्षक" है। दर्शक की उदासीनता, उसकी प्रतिक्रिया, उसकी भागीदारी, उसकी ईमानदारी, सब कुछ अप्रत्यक्ष रूप में रंगभाषा में कुछ जोड़ती चलती है। रंगमंच के दर्शक को ही पूर्ण छूट है अपनी ओर से प्रतिक्रिया उसी समय व्यक्त करने की। यदि प्रेक्षक में अपेक्षित कलात्मकता और मर्मज्ञता है तो वह सहृदय के रूप में नाटक का आस्वादन करता है। नाट्य चिंतकों और नाटककारों ने दर्शक का ध्यान केन्द्रित करने के लिए ही मनोरंजन तत्व को ज़रूरी माना। वर्तमान समय के बड़े से बड़े निर्देशक भी रंगकर्म में सबसे बड़ी हस्ती दर्शक को ही मानते हैं। उसके बिना नाटककार, अभिनेता और निर्देशक, किसी का कोई अस्तित्व नहीं। नाटक और प्रस्तुति, दोनों का उद्देश्य दर्शकों तक अपने कथ्य को पहुँचाना, दर्शकों द्वारा उसका आस्वाद कराना होता है और इस प्रकार दर्शक एक विशिष्ट रंगभाषा की रचना के लिए एक महत्वपूर्ण प्रेरक तत्व बन जाता है।

रंगभाषा से सम्बद्ध अन्य महत्वपूर्ण तत्व

ऊपर रंगभाषा की रचना के सन्दर्भ में मुख्यतः नाटककार, निर्देशक, अभिनेता और दर्शक की भूमिकाओं के महत्व और उनके अंतर्संबंधों पर चर्चा की गई है। किन्तु बहुत सारे अन्य सर्जक तत्व भी हैं जो संश्लिष्ट होकर रंगभाषा की सृजनात्मकता में वृद्धि करते हैं तथा उसके आकर्षण और संप्रेषणीयता को बढ़ाते हैं। संवादों की अदायगी के साथ जो तत्व महत्वपूर्ण रूप से जुड़ा हुआ है वह है उनकी लयात्मकता। ऐसा कहना किसी भी प्रकार से अत्युक्ति नहीं माना जाएगा कि लय संवादों में उतरने से पहले एक तरह से भावों में जन्म लेती है। जहाँ तक आंगिक चेष्टाओं का प्रश्न है, उनमें भी लय की प्रधानता होती है। वस्तुतः एक दृश्य-काव्य के रूप में नाटक के लिए लय एक अनिवार्य उपादान बन जाती है। लय की महत्ता और उपयोगिता को गोविंद चातक इन शब्दों में व्यक्त करते हैं, "समग्र नाट्यकृति में जो एक प्रकार का संतुलन, अन्विति अथवा उत्कर्ष होता है, तथा उसके ऊपरी और निचले तलों पर जो सामंजस्य रूपायित होता है, वह लय का ही प्रतिरूप है।"7 अर्थात् लय के माध्यम से ही नाट्य रचना में अपेक्षित संतुलन और पारस्परिक संबद्धता आ पाती है और नाटक के विभिन्न घटकों में सामंजस्य स्थापित हो पाता है। लय की ही भाँति एक अन्य महत्वपूर्ण तत्व है गति। अभिनेता अपने भावों को अभिव्यक्त करने के लिए जितना संवादों से, अपनी वाक्-शक्ति और उसके सूक्ष्म कौशल से काम लेता है, उतना ही गतियों से भी। गति और नाट्य एक-दूसरे से बहुत गहरे जुड़े हैं। नाट्यशास्त्र में गतियों के उपयोग की विधि बताई गई है। गति की काव्यात्मकता और कलात्मकता को ही भरतमुनि ने "चारी" माना है। कुशल अभिनेता गति का बहुत संतुलित और सार्थक प्रयोग करता है। वह अपनी सीमाओं-संभावनाओं को, नाटक और प्रेक्षक को समझकर गति को नाटकीय व्यंजना का अनिवार्य अंग बना देता है।

इसी तरह प्रतीक, बिंब, संकेत, मौन आदि भी रंगभाषा के सृजन में अपना-अपना योगदान देते हैं। कई बार नाटककार अपनी बात को शब्दों में न कहकर प्रतीकों और संकेतों में अधिक प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करता है। इसी प्रकार भाषा में बिम्बात्मकता नाटक के प्रभाव में वृद्धि लाती है और "अप्रस्तुत" को भी जीवंत और सजीव रूप में प्रस्तुत कर देती है। निर्देशक भी बहुधा दृश्य-बंधों की स्थूलता में न पड़कर प्रतीकों और संकेतों का उपयोग करता है और नए-नए प्रयोगों के माध्यम से रंगभाषा में परिवर्तन करता रहता है। नाटक में मौन के प्रयोग की भी अपनी सार्थकता होती है। वस्तुतः मौन में भी किसी न किसी रूप में संवाद की स्थिति छिपी रहती है। यह भी एक प्रकार से अनकही भाषा ही है जो प्रायः कहे गए शब्दों से भी अधिक कह जाती है।

इन सब बातों के अतिरिक्त रंगमंच पर संवाद का एक अंग दृश्यबंध भी होता है क्योंकि उसी के द्वारा देशकाल और नाटकीय पृष्ठभूमि का एहसास होता है। कथानक के विकास, पात्रों को अभिनय की दिशा देने में, अर्थ देने में भी दृश्यबंध की भूमिका होती है। उसकी सहजता, आकर्षण और सार्थकता महत्वपूर्ण है। इसके साथ ही रंगभाषा में, अभिनय की भाषा में और भी तत्व हैं जो उसमें जुड़ते जाते हैं और वे हैं वेशभूषा और रूपसज्जा। इनका सम्बंध सीधे अभिनेता से, उसके शरीर से, उस चरित्र से है जिसकी सृष्टि वह मंच पर करता है। वेषभूषा के द्वारा ही अभिनेता उस पात्र के मन, शरीर, बुद्धि, स्वभाव, व्यवहार के निकट पहुंचता है। जैसा नाटक हो या जिस रूप में भी नाट्य प्रस्तुति की जा रही हो, वेशभूषा उसी के अनुसार बदल जाती है। कभी-कभी रंगमंच पर विभिन्न रंगोपकरण भी रंगभाषा के सृजन में योगदान देते हैं। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में रंगोपकरण आहार्य अभिनय के अंतर्गत आ जाते हैं। आहार्य अभिनय भले ही अभिनय प्रकारों की तुलना में स्थूल और बाह्य हो पर अभिनय का आधारभूत है।

प्रकाश और ध्वनि प्रभाव भी रंगमंच पर अभिनय की भाषा बन जाते हैं। ये केवल यांत्रिक चीज़ नहीं बल्कि एक सृजन हैं। रंगमंच की रचनाधर्मिता और कलात्मकता को समझकर ही प्रकाश योजना और ध्वनि प्रभाव रचे जाते हैं। उनका नाटक के गूढ़ अर्थ और पात्रों की आंतरिक परतों को, विरोधाभास को, हर प्रकार के मूड को व्यंजित करने में रचनात्मक सहयोग होता है।

पिछले वर्षों में निरंतर सृजनशील रंगकर्म के साथ हिन्दी रंगमंच में रंग संगीत की मौलिकता और शक्ति प्रतिष्ठित हुई। भारतीय नाट्य परम्परा- संस्कृत, लोक या पारसी थिएटर- संगीत कों अनिवार्य रूप में लेकर चलती रही है। आज़ादी के बाद नए नाटक और रंगांदोलन के साथ क्रमशः रंग संगीत ने अपनी सृजनशीलता को मूर्त किया है। अशोक वाजपेयी के शब्दों में – "...... नाटक में संगीत की हैसियत महज एक अलंकार वस्तु की नहीं है, वह समग्र रंगानुभव के एक प्रभावी घटक के रूप में प्रतिष्ठित है- अक्सर रंगानुभव के ही एक अनुषंग के रूप में।"8 अर्थात रंग-संगीत का नाटक से अलग हटकर कोई महत्व नहीं है, वह नाटक से स्वतंत्र नहीं है और पूरे सन्दर्भ से जुड़ता है। अतः इसमें कोई सन्देह नहीं कि विवेकोचित और संश्लिष्ट ढंग से प्रयुक्त होने पर रंग-संगीत सृजनात्मक रंगभाषा की रचना करता है और नवीन रंग-संभावनाओं के द्वार खोलता है।

अंत में कहा जा सकता है कि रंगभाषा की रचना में अनेक मूर्त-अमूर्त तत्व अपनी भूमिका निभाते हैं किन्तु इनमें से कोई भी तत्व अपने आप में स्वतंत्र नहीं है। ये नाटक के साथ संश्लिष्ट होकर, पूरे सन्दर्भ से जुड़कर समग्रता में ही अपनी भूमिका का निर्वाह करते हैं। इन सभी सर्जक तत्वों के बीच के सामंजस्य और तनाव के क्रम से ही रंगभाषा के वैचित्र्य और वैशिष्ट्य का निर्माण होता है।

संदर्भ ग्रंथ सूची :-

1. रंगभाषा, डॉ. गिरीश रस्तोगी, प्रकाशक- राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली, पृ.105। 
2. नाट्यशास्त्र, भारतमुनि, अध्याय 14, श्लोक दो। 
3. नाट्यभाषा, गोविंद चातक, तक्षशिला प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.79। 
4. रंगभाषा, डॉ. गिरीश रस्तोगी, प्रकाशक- राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली, पृ.127। 
5. रंगभाषा, डॉ. गिरीश रस्तोगी, प्रकाशक- राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली, पृ.108। 
6. रंगभाषा, डॉ. गिरीश रस्तोगी, प्रकाशक- राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली,पृ.109। 
7. नाट्यभाषा, गोविंद चातक, तक्षशिला प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.83। 
8. रंगभाषा, डॉ. गिरीश रस्तोगी, प्रकाशक- राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली,पृ.176। 

शोध सारांश

नाटक एक जीवंत अनुभव है जो अपनी जीवंतता रंगमंच पर ही प्राप्त करता है। यद्यपि अन्य साहित्यिक विधाओं की तरह नाटक भी भाषागत अभिव्यक्ति का माध्यम है और शब्दबद्ध होने के कारण उसमें भी भाषा की अभिव्यंजना-शक्ति को उतनी ही प्रधानता दी जाएगी जितनी कहानी या उपन्यास में, लेकिन शब्दबद्ध होने पर भी उसे कोरा साहित्य नहीं कहा जा सकता। संवादात्मक होने के कारण नाटक में वाच्य तत्व मुख्य हो जाता है। जहाँ कृति रचनाकार से निर्देशक, निर्देशक से अभिनेता और अभिनेता से दर्शक तक तथा पूरी परिस्थितियों से, रंगकर्मियों से होती हुई प्रेक्षक तक पहुँचे वहीं नाटक की विशिष्टता, मौलिकता, जटिलता प्रत्यक्ष होने लगती है। इसी परिप्रेक्ष्य में रंगभाषा की अवधारणा महत्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि वह रंगभाषा ही है जो विभिन्न रंग-युक्तियों के माध्यम से नाटक को प्रेक्षक तक संप्रेषित करती है।

विकास वर्मा
शोधार्थी, गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, 
ग्रेटर नोएडा, गौतम बुद्ध नगर,
उत्तर प्रदेश।
मो. 9313325170

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