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नज़र लागि राजा. . . 

जो लोग “एक बँगला बने न्यारा” के ख़्वाब पालते थे वे औसत दर्जे के लोग होते थे। आज के ठीक मिडिल क्लास की तरह. . .। हाई क्लास वाले, एक तो टू बीएच के -थ्री बी एच के चक्कर में होते नहीं थे। दूजा उनको बँगले पर ‘नज़र‘ लगने का अंदरूनी ख़ौफ़ छाया रहता था। वैसे भी उन्हें बाप-दादों की कोठीनुमा जायदाद मिला करती थी। जिसे केवल नज़र लगाने वालियों से बचाने का ज़िम्मा होता था। 

उन दिनों की नज़र लगाने वालियाँ अब कहाँ गई पता नहीं. . .?

वे फ़क़त कोठी-बँगला देख के ठाना करतीं थीं कि बँगले वाला मोटा असामी है या नहीं। वो बँगला देख के अंदाज़ा लगाया करतीं कि इस बँगला-धारी पर नज़र लगाने से कितने दिनों-सालों का जुगाड़ हो रहेगा?

कहीं ऐसा तो नहीं. . . , कम्बख्त काजल-मेहँदी उतरते ही मुँह फेर लेने वाला निकले।

वो दिन तब हुआ करते थे, जब शहर में चन्द रईस के, मात्र दो या तीन बँगले होते थे। उनमें भी ठाठदार एकाध ही होता था।

कमोबेश नज़र के मामले में यही हाल अब पॉलिटिक्स में हो गया है। दिखने में ख़ूबसूरत मगर कम होते हुए पॉलिटिकल बेस की पार्टियाँ, अपने से छोटी मगर टिकाऊ सरकार देने का प्रलोभन देने वाली पार्टी के साथ जुड़ने या उनके जमे-जमाये बँगले पर नज़र लगाने के लिए आजकल बेताब नज़र आती हैं।

आजकल हर शहर में ढेरों बँगले हैं, बेशुमार अट्टालिकाएँ हैं। इनमें कहीं भी 'नज़र लगाने वालियों' की दालें जो आसानी से पहले गला करतीं थीं, वो अब नहीं गलतीं।

सिवाय चोर-डाकुओं और किडनेपिंग करने वालों के कोई इन बँगलों की तरफ़ मुँह उठा के भी नहीं देख पाता।

वैसे, सरकारी महकमे में एक विभाग की इन बँगलों की निगरानी की ज़िम्मेदारी होती है। उनका काम रोज़ इनके इलाक़ों में साफ़-सफ़ाई की व्यवस्था को देखने जाना होता है। ये शहर के गणमान्य लोगों का इलाक़ा होता है अतः सफ़ाई, इन म्युनिस्पल विभागों की मजबूरियों में शामिल है। यूँ तो इनके इलाक़े में प्राइवेट में भी सफ़ाई का काम होते रहता है अतः: विभाग वाले यहाँ के भारी बजट में से थोड़ा ‘मार’ लेने का काम बख़ूबी कर लेते हैं।

एक और विभाग है जो निगरानी के नाम पर इनके रहने वालों की गतिविधियों पर नज़र रखता है; आय के ज्ञात-स्रोत की पूरी जानकारी इकठ्ठा करते रहता है।

पॉलिटिकली किस साहब के पीछे कौन से विभाग की जाँच आगे बढ़ेगी, यह इनकी ख़ुफ़िया रिपोर्ट पर निर्भर करता है। यह विभाग गुप्त रूप से अधिक चंदा दे सकने वालों की सूची भी, ऑन-डिमांड या आदेश पर मुहय्या करने में सक्षम होता है।
 
ये विभाग इन बँगलाधारकों के ख़िलाफ़ कुछ फ़ाइल यों भी तब ओपन कर लेता है जब कोई दिल-जला पड़ोसी या थानेदार का ‘पालतू’, ‘एन जी ओ’ पब्लिक कम्प्लेंट ले के नाम से बीच घुस जाय। इस विभाग की ज़िम्मेदारी तब और अहम हो जाती है जब बँगले के मालिक के पीछे सत्ता पक्ष या विपक्ष वाले हाथ धो के पीछे पड़ गए हों।

सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक़ पब्लिक कहती है कि बँगले का मालिक बीस साल पहले सायकल में दूध बाँटता था, कैसे अचानक इतने 'केले-छीलने' का सुख पा लिया और पचासों एकड़ में फैले बग़ीचे का मालिक बन गया. . . ?

इनके पगार -भत्तों को मिला कर गणित की क्लास खोली जाय तो भी बीस-सालों में पच्चीस लाख से ज़्यादा का असामी हो नहीं सकता। इसमें गुज़र-बसर पर किये ख़र्च, मोबाइल रिचार्ज, थ्री-पीस सूट जीन्स, कार में डीज़ल-पेट्रोल का हिसाब निकालने बाद पता चले कि इनके कुत्तों को खाने के लाले पड़ गए हों। 

पता नहीं वो क्या परिस्थितियाँ रहीं हों, जब कबीर-बाबा को इसी नाज़ुक-माहौल की परिस्थितियों में कहना पड़ गया था कि

’निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय
 बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुहाय’
 
यानी आप नज़र लगाने वालों से अपनी दो-तीन मंज़िलें, बढ़ते क़द को, जलने वालों से बचाना चाहते हों तो उन सभी को अपनी यथोचित सेवाएँ दें। वे आपके मुखर- विरोध में, एनॉनिमस-कम्प्लेंट या अर्जी लेकर आपके ख़िलाफ़, आर टी आई लगाते न मिलें।

नज़र लगाने का यह तरीक़ा आजकल ‘कंफ़र्ट-ज़ोन’ में गिना जाता है।

आपको किसी ईमेल पर, अपनी बातें अपने पड़ोसी के ख़िलाफ़ व्यक्त करनी होतीं हैं; ऐंटी-करप्शन वालों को कुछ सबूत हासिल करवा के आप तमाशा देख सकते हैं।  विघ्न-सन्तोषी के कलेजे को उस दिन फ़ुल-स्पीड एसी का मज़ा मिलता है, जब आपके पड़ोसी का घर पुलिस-छावनी में तब्दील होने लगता है।

मोबाइल और फोन करने के अधिकार से वंचित इंसान को आज के दिन में देखना कितना सुकून देता है।

भ्रष्ट पड़ोसी को. जिसने आपको तिल-तिल जलाया, उसे एयर-कंडीशन रूम में पसीने से लथपथ देखने का सौभाग्य किसी-किसी को मिल पाता है। आप उसे अपनी सिम्पथी दिखाते है, ’सब ठीक हो जाएगा’ जैसे जुमले फेंकते हैं, और मन ही मन जानते हैं, क्या ठीक होगा बच्चू. . . ? देखते जा आगे-आगे होता है क्या. . . ?

छापा-खाये व्यक्ति की गति-दुर्गति को, पूर्व में छापा-खाया हुआ ही जान सकता है। किसी अन्य सन्दर्भ में यह , ’जौहर की गति जौहरी जाने’ जैसा है।

खाने वाले को बदहज़मी तब मालूम होती है, जब संकट के घेरे में आता है। अच्छी-ख़ासी दाल-रोटी चल रही थी. . .। क्या ज़रूरत थी दिखावे के साजो-सामान, मोटर-गाड़ियाँ, विदेश यात्राएँ, गाँव में खेत पर खेत, फ़ॉर्म हाउस और बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएँ खड़ी करने की. . . ?

 आखिर, लग गई न. . .  नज़र. . . ?

 

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