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निराला की साहित्य साधना और डॉ. रामविलास शर्मा

यह निर्विवाद सत्य है कि डॉ. रामविलास शर्मा के सबसे प्रिय कवि निराला हैं। नामवर सिंह के शब्दों में "डॉ. रामविलास शर्मा की दृष्टि में उनके सबसे प्रिय कवि निराला ऐसे हैं जैसे अठारह सौ सत्तावन का कोई वीर सेनानी युद्ध छोड़कर साहित्य के मैदान में चला आया हो। वह वीर सेनानी रामविलास शर्मा स्वयं हैं। योद्धा के रूप में उनकी ख्याति तो है ही, विशेष रूप से उल्लेखनीय है सत्तावन के स्वाधीनता संग्राम में उनका गहरा लगाव, सन् सत्तावन जैसे उनकी समस्त चिंतन की धुरी है और है उनके वैचारिक संघर्ष का बीज भाव" डॉ. राम विलास शर्मा मूलत: आलोचक हैं किन्तु विशुद्ध आलोचक नहीं। आलोचना वृत्ति को वे साहित्य तक परिसीमित नहीं मानते। वे इसे भाषा, दर्शन, इतिहास, समाज विज्ञान आदि अनेकानेक क्षेत्रों में फैलते हुए देखना चाहते हैं। उनका उद्देश्य भारतीय जन जीवन में नवीन सामाजिक चेतना का प्रसार करना है। हिंदी में यह परंपरा नई नहीं है। इसी तरह का व्यापक सांस्कृतिक सरोकार हमें आचार्य रामचन्द्र शुक्ल में दिखाई देता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने साहित्य - समीक्षा के साथ-साथ हिंदी साहित्य का भरा-पूरा इतिहास लिखा। 'बुद्ध चरित' की भूमिका में ब्रज भाषा और 'जायसी ग्रंथावली' की भूमिका में अवधी के स्वरूप पर गहराई से विचार किया। 'अवधी और खड़ीबोली की तुलना करते हुए उन्होंने जनपदीय बोलियों के तुलनात्मक अध्ययन की एक प्रणाली स्थापित की।'1 रामविलास जी ने इन सभी क्षेत्रों में आचार्य शुक्ल की परंपरा का विकास किया। साहित्य-समीक्षा के साथ-साथ उन्होंने इतिहास और भाषाविज्ञान को अपने अध्ययन का विशेष क्षेत्र बनाया। साहित्येतिहास संबंधी सामग्री के अतिरिक्त उनके इतिहास - ग्रंथ हैं - अठारह सौ सत्तावन की राज्य क्रान्ति (1957), भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद (1972) और मार्क्स और पिछड़े हुए समाज (1986)। सीधे भाषाविज्ञान और हिंदी भाषा से जुड़े हुए ग्रंथ है भाषा और समाज (1961), भारत की भाषा समस्या (1965) तथा भारत के प्राचीन भाषा - परिवार और हिंदी (तीन खंड, 1971-81) रामविलास शर्मा की आलोचना, इतिहास और भाषाविज्ञान तीनों की मूल प्रेरणा एक ही है - भारतीय जनमानस के ऐतिहासिक - सांस्कृतिक बोध को समृद्ध करना। आज की आर्थिक और सांस्कृतिक विश्व व्यवस्था (भूमंडलीकरण) के रूप में जो खतरा हमारे सामने मंडरा रहा है, उसका प्रतिरोध करने के लिए यह बोध आवश्यक है।

रामविलास शर्मा का लेखन लगभग सात दशकों में बिखरा है। उन्होंने इतिहास, साहित्य, समाज शास्त्र, अर्थ शास्त्र, विज्ञान, सभ्यता, भाषा और संगीत आदि विषयों पर आधिकारिक तौर पर लिखा है। मनुष्य के ज्ञान और भाव की जितनी शाखाएँ प्रस्फुटित हुईं उन सबकी आंतरिक संबद्धता में सृष्टि के व्यतीत और संभावित विस्तार को छूने की इच्छा उनके लेखन को व्यापक से व्यापकतर बनाती है।

'निराला की साहित्य साधना' कृति तीन वृहतकाय खंडों में लिखी हुई जीवनीपरक आलोचना है। इन तीनों ही खंडों के प्रकाशन काल में प्रयाप्त अंतर है। प्रथम खंड 1969, द्वितीय खंड 1972 और तीसरा खंड 1976 में प्रकाशित हुआ। इन तीनों खंडों में बहुचर्चित प्रथम खंड रहा है, क्योंकि इस खंड में रामविलास जी ने निराला के जीवन के अंतरंग को बहुत निकट से अनुभव के आधार पर आँका है और उसे भावनात्मक ऊर्जा के साथ महिमामंडित किया है। निराला के जीवन के आरोह और अवरोह, दोनों पक्षों का संतुलित चित्रण प्रथम खंड में किया गया है। इस कृति को रामविलास जी ने शिवपूजन सहाय की पुण्य स्मृति को सादर समर्पित किया है, जिसे निराला जी ने स्वयं सराहा। इस ग्रंथ को लिखने के उद्देश्य को रामविलास जी ने पुस्तक की भूमिका में स्पष्ट कर दिया है। उन्हीं के शब्दों में - "इसे लिखते समय मेरा ध्यान उनके व्यक्तित्व के अध्ययन की ओर रहा है। पंद्रह अध्यायों में जीवन कथा है, अगले तीन अध्यायों में उनके व्यक्तित्व का विश्लेषण है। एक अध्याय पंत और निराला के व्यक्तित्वों पर - उनके साम्य और वैषम्य पर - है। अंतिम अध्याय में तथ्य संग्रह और जीवनी लिखने की समस्याओं का चित्रण है। यह एक साहित्यकार का जीवन चरित है, इसलिए इसमे किसी हद तक उनके साहित्य का मूल्यांकन भी शामिल है पर यह पुस्तक उनके साहित्य की आलोचना नहीं है। निराला के पारिवारिक, सामाजिक परिवेश से, उस युग की सांस्कृतिक परिस्थितियों से, उनके जीवन के बाह्य रूपों के साथ उनके अंतरजगत से पाठकों को परिचित कराना मेरा उद्देश्य है।" (निराला की साहित्य साधना - प्रथम खंड - भूमिका)

'निराला की साहित्य साधना' के दूसरे खंड में उनकी कला और विचारधारा का विवेचन हुआ है, और तीसरे खंड में उनके जीवन और साहित्य से संबंधित अध्ययन सामाग्री तथा पत्र समाहित हैं। निराला की साहित्य साधना के प्रथमखंड के प्रकाशन से रामविलास जी के समकालीन साहित्यकारों में उनके प्रति एक विशेष आदर का भाव जागा। इस संदर्भ में अमृतलाल नागर ने अपनी खुशी जाहिर करते हुए लिखा है कि "डॉ. रामविलास शर्मा द्वारा लिखित 'निराला की साहित्य साधना' का प्रथम खंड पाकर मैंने ऐसा संतोष भरा हलकापन अनुभव किया, मानो मेरी ही बरसों की मेहनत सफल होकर सामने आई हो। रामविलास जी की दो अन्य पुस्तकें - 'सन् '57 की राज्य क्रान्ति तथा 'भाषा और समाज' पाकर भी मुझे कमोबेश ऐसा ही अनुभव हुआ था। इस पुस्तक को लिखने का संकल्प रामविलास जी ने तब किया था जब उनकी अन्य यशस्वी कृतियों की कोई योजना उनके मस्तिष्क में नहीं आई थी। यह पुस्तक उनके चिंतन - मनन और अथक श्रम का सुफल है। रामविलास शर्मा के प्रति निराला के मन में अमित आत्मीयता से भरा वात्सल्य भाव था। निराला जी उनके जीवन में तब आए जब या तो वे अपने भक्तों से घिरे थे या कटु आलोचकों से। रामविलास शर्मा निराला की दृष्टि में निरालाविद् सिद्ध हुए। 2 रामविलास शर्मा से निराला जी को उनकी खूबियों की सराहना तो मिलती ही थी, साथ ही उन्हें अपनी उन विशेषताओं का भी पता चलता था जिनकी ओर स्वयं उनका ध्यान तब तक न गया होता। 'निराला की साहित्य साधना' पुस्तक ऐसे समय में प्रकाशित हुई जब कि निराला युग एकदम भूले-बिसरे जमाने की कहानी नहीं बन पाया था। 'निराला की साहित्य साधना' का प्रथम खंड उनके जीवन पर आधारित है और यह उनकी जीवनी ही है। इसमें निराला का चरित्र चित्रांकन करने में रामविलास जी ने बहुत तन्मयता साधी है। निराला के योगी-भोगी, गृहस्थ - अगृहस्थ और उनके कठिन - कोमल चरित्र को सूझबूझ भरी मर्मभेदी दृष्टि से देखकर उनके जीवन क्रम को यथावत सँजोने में उन्होंने अपनी औपन्यासिक प्रतिभा का परिचय दिया है। इस ग्रंथ के प्रथम अध्याय से ही कहानी का ऐसा समां बंधता है कि किताब पूरी पढ़े बिना रहा नहीं जा सकता। निराला का जीवन तो अनेकों नाटकीय पड़ावों से होकर गुज़रता है। इस खंड की रचना में कथा-शिल्प को साधकर रामविलास शर्मा ने एक उपन्यासकार की तरह निराला के जीवन को प्रस्तुत करने में सफलता हासिल की है। परंतु इस विधा को अपनाकर भी वे एक क्षण के लिए भी इतिहासकार होने के दायित्व से नहीं हटे।

निराला का जीवन जितना ही जटिल और अंतर्विरोधों से भरा हुआ था उतना ही उनका साहित्य भी जटिलताओं से भरा है। प्रकृति, मनुष्यता, जीवन संघर्ष और पराजय, भक्ति और ज्ञान सौन्दर्य बोध और राष्ट्रीयता जैसे वैविध्य पूर्ण चिंतन की सरणियों से होकर निराला का मानसिक और भौतिक जगत एक पहेली बनकर दुनिया के सामने आता है। उनके जीवन में सामाहित इतने अंतर्विरोधों को प्रशंसा और आलोचना के जोखिम से बचते हुए, तटस्थ होकर लिख पाना दुष्कर साहित्यिक कर्म है जिसे रामविलास जी ने बखूबी निभाया। निराला का जीवन और कृतित्व इस बात का जीता-जागता प्रमाण है कि वे जीवन भर अपने व्यक्तित्व और लेखन दोनों से ही अतिवादी प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न करते रहे, और उनकी मृत्यु के बाद भी उनके बारे जो कुछ लिखा गया है उसमें श्रद्धांजलि का भाव अधिक है, एक समर्थ कृतिकार और तेजस्वी व्यक्ति का वस्तुपरक मूल्यांकन या विश्लेषण बहुत कम। इस पुस्तक का उद्देश्य निस्संदेह बड़ा और महत्वाकांक्षी है। रामविलास शर्मा ने निराला के जीवन का भरसक वस्तुपरक जीवन चित्र दिया है, जिसका उद्देश्य पाठक को मुग्ध करना नहीं बल्कि विवेक से निराला के व्यक्तित्व को समझने में सहायक होना है। रामविलास शर्मा का निराला के साथ लंबे समय तक बड़ा गहरा और निजी संबंध रहा है इसीलिए वे निराला के बहुत से बाहरी और आंतरिक संघर्षों के साक्षी रहे। निराला के व्यक्तित्व और कृतित्व के साथ उनका लगाव और तादात्म्य भी ऐसा रहा है जो सूक्ष्म अंतर्दृष्टि और सहानुभूति के साथ लिखने में सहायक हुआ। जाहिर है कि अपनी इस पुस्तक में उन्होंने निराला के जीवन से संबंधित बहुत सी नई सामग्री का बड़ी मेहनत और लगन के साथ विभिन्न स्रोतों से संग्रह कर बहुत सी परिचित और अल्प-परिचित घटनाओं, परिस्थितियों और प्रसंगों को एक तर्क संगत क्रम में रखने की कोशिश की है। विशेषकर जिस युग में निराला की प्रतिभा विकसित होकर निखरी, उस पूरे दौर के साहित्यिक इतिहास की बहुत सी महत्वपूर्ण स्थितियों और घटनाओं से निराला के संबंध को स्पष्ट किया । किसी भी जीवनीकार के लिए यह आवश्यक है कि वह सभी महत्वपूर्ण तथ्यों को लेकर, चाहे वे कितने ही अप्रिय या अवांछनीय क्यों न हों, एक निष्पक्ष जीवन वृत्त प्रस्तुत करे और उन तथ्यों में अभिव्यक्त आंतरिक विरोधों, असंगतियों और विविधताओं के बीच से एक जीवंत व्यक्तित्व को उभारकर रख दे। इस कार्य में जितनी सहानुभूति और अंतर्दृष्टि की आवश्यकता है उतनी ही निष्पक्षता और निर्मम तटस्थता की भी। इस दृष्टि से यह स्पष्ट है कि रामविलास शर्मा द्वारा प्रस्तुत निराला का जीवन चित्र वस्तुपरक से अधिक रोमांटिक है साथ ही उनकी प्रतिभा को महिमामंडित करने का उद्देश्य प्रधान है। "इसीलिए इस ग्रंथ में निराला के व्यक्तित्व का जो विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है वह उसके बुनियादी अंतर्विरोध का बेझिझक सामना करने की बजाय उसके नोविश्लेषणमूलक या अन्य प्रकार के औचित्य खोजने में उलझ जाता है।" (नेमिचन्द्र जैन - अंतर्विरोधों का सरलीकरण - निबंध)

निराला के जीवन को रामविलास शर्मा ने सफलता की कुछ ऐसी रोमांच कथा के रूप में प्रस्तुत किया जैसे किस प्रकार सुर्जकुमार तेवारी नामक एक साधारण गरीब परिवार में जन्म लेने वाला बालक, शिक्षा के अवसरों, साधनों और सुविधाओं से वंचित और अपने सहज स्वाभाविक क्षेत्र से दूर प्रतिकूल प्रदेश में रहकर भी केवल अपनी 'कल्पना, मेधा, और ऊर्जा' के बल पर, अपने अनवरत स्वाध्याय और अथक परिश्रम के सहारे, अपनी भीतरी क्षमता, प्रतिभा और प्रेरणा के ज़ोर से, अमानवीय परिस्थितियों, विरोधों और शोषण के विरुद्ध संघर्ष करता हुआ, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला - तुलसीदास के बाद हिंदी का महानतम कवि बन गया। निराला के बारे में इस तस्वीर की शायद ज़्यादातर बातें, अलग से अपनी-अपनी जगह कमोबेश सही हैं। पर रामविलास शर्मा ने उन्हें जिस चौखट में और जिस अभिभूत भाव से पेश किया है वह इस समग्र चित्र को वस्तुपरक से अधिक कल्पनारंजित बना देता है। इस रुझान से सामना पहले ही अध्याय में होता है जिसमे बालक सुर्जकुमार की कथा बड़े प्रगीतात्मक लहजे में, किसी उपन्यास के काल्पनिक चरित्र की सृष्टि के अंदाज़ से कहानी जैसी सजावट और बनावट के साथ लिखी गयी है। निस्संदेह यह अंश अपने आप में बड़ा रोचक लगता है पर उसकी विश्वसनीयता वस्तुपरक जीवनी जैसी न होकर एक जीवनीमूलक कहानी जैसी है। दरअसल रामविलास शर्मा ने अपने इस ग्रंथ में निराला को शत्रुओं, विरोधियों और शोषकों से घिरे हुए पीड़ित किन्तु निरंतर संघर्षशील क्रांतिकारी योद्धा की भांति देखा और अंकित किया है। उस समय साहित्य जगत निराला-समर्थक और निराला-विरोधी दो शिविरों में विभाजित था, जिसमें रामविलास जी दृष्टि में निराला का आलोचक और विरोधी, अक्षम्य था। उन्होंने कवि के जीवन की प्राय: सारी घटनाओं और स्थितियों को इसी अंदाज़ में अपनी खास और विचित्र 'द्वन्द्वात्मक तर्क -पद्धति' से क्रमबद्ध और संयोजित ही नहीं किया, बल्कि उनको संपादित और संतुलित किया है। इसलिए सारे प्रसंग यथार्थ होकर भी खास ढंग से सजाये हुए लगते हैं, चाहे रवीन्द्रनाथ से श्रेष्ठता का दावा हो, चाहे मतवाला मण्डल के सदस्यों से मतभेद हो, चाहे महावीरप्रसाद द्विवेदी, उग्र, रूपनारायण पाण्डेय, बनारसीदास चतुर्वेदी से झड़प हो। हर प्रसंग में कुछ ऐसा आभास निरंतर होता है कि रामविलास निराला के व्यवहार या विचार को उचित और सही तथा दूसरे को अनुचित और गलत साबित करने का निश्चय पहले ही कर चुके हैं। शायद इसीलिए ऐसे प्रसंगों की, जिनमें उनकी निगाह में कवि की तस्वीर कुछ कम गौरवशाली दिखाई पड़ती है, या तो वे टाल गए हैं या बचा गए हैं। कई जगह उन्होंने कहने के लिए कुछ उल्लेख कर दिया है जिससे औपचारिकता तो पूरी हो जाए पर बात खुले नहीं। ऐसे प्रसंगों में निष्पक्षता या वस्तुपरकता से अधिक व्यावहारिकता प्रकट होती है। निराला के जीवन की विसंगतियों के अनेकों प्रसंगों एवं घटनाओं का रामविलास जी ने उल्लेख नहीं किया है। उनके परवर्ती जीवन का चित्र बड़ा अस्पष्ट, अधूरा और भ्रामक है। लगता है रामविलास कोई ऐसा प्रसंग नहीं लिखना चाहते जो निराला की प्रतिष्ठित मूर्ति को खंडित करे। कहीं कहीं पाठक को इस बात से खीझ होती है कि निराला की नायक या योद्धा जैसी तस्वीर बनाए रखने के मोह में रामविलास शर्मा ने या तो जानबूझकर उनके जीवन की बहुत सी घटनाओं का संग्रह ज़रूरी नहीं समझा, या संग्रह किया भी तो उन्हें छोड़ दिया, और जिनको शामिल किया उन्हें पूरी निरपेक्षता और वस्तुपरकता से नहीं रखा।

शैली की दृष्टि से इस कृति की रचना शैली में बहुत विविधता है। इसमें कहीं कथात्मक शैली अपनाई गई है, कहीं बिशुद्ध वर्णनात्मक, कहीं व्यंग्य और वाद-विवाद की और कहीं शुद्ध निबंध की। पद्धतियों के इतने परिवर्तन करने के कारण प्रभाव की समग्रता बाधित होती है। रामविलास शर्मा ने इस रचना के माध्यम से निराला से संबंधित विपुल मात्रा में तथ्यों का उपयोगी संग्रह प्रस्तुत किया है जो निराला के अध्येताओं की भावी पीढ़ी को निराला के व्यक्तित्व और कृतित्व को समझने में सही दिशा प्रदान करेगी। जिन अंशों में सामग्री अधूरी या अनुपलब्ध है उनके कुछ स्रोतों का भी अनुमान इस पुस्तक से हो जाता है। साथ ही निराला के जीवन के अतिरिक्त, हिंदी साहित्यिक इतिहास के चालीस साल के इतिहास से संबंधित बहुत सी नई और उपयोगी सामग्री इसमें मौजूद है। इस ग्रंथ में विशेषकर सन् 1920 से 50 तक के दौर के साहित्यिक बहसों, उलझनों, समस्याओं और उनके संदर्भ में व्यक्तियों और संस्थाओं का विपुल विवरण प्राप्त होता है। इससे कई स्थलों पर निराला के सामाजिक और सांस्कृतिक-साहित्यिक परिवेश की बड़ी जीवंत तस्वीर बनी है और साथ ही कई साहित्यिक तथा राजनैतिक - सामाजिक घटनाओं के गहरे बुनियादी संबंधों पर भी प्रकाश पड़ा है जिससे पूरे युग का साहित्यिक परिदृश्य उभर आया है। इसमें केवल शुष्क ब्यौरा भर नहीं, एक प्रकार की सर्जनात्मक सजीवता है। इसलिए निराला के जीवन में हिस्सा लेने वाले अनेकों साहित्यिक व्यक्तित्व जीवंत रूप में किसी उपन्यास के पात्रों की भांति इस जीवनी में सामने आते हैं, जैसे : महावीरप्रसाद द्विवेदी, महादेवप्रसाद सेठ, मुंशी नवजादिक लाल, शिवपूजन सहाय आदि। एक युगविशेष के साहित्यिक परिदृश्य की दृष्टि से इस पुस्तक का महत्व अक्षुण्ण है।

निराला की कुछ कविताओं को तथा उनके भाव जगत की समस्याओं को उनके जीवन की घटनाओं और परिस्थितियों से जोड़ने में भी रामविलास शर्मा ने बहुत सूझ-बूझ का परिचय दिया है। इससे उनकी कई कविताओं के एकदम नए और अनोखे अर्थ तथा व्यंजनाएँ उभर आती हैं। किसी कवि के व्यक्तित्व को उसके परिवेश से जोड़ना साहित्यिक इतिहास लेखन तथा मूल्यांकन का बड़ा महत्त्वपूर्ण कार्य है।
डॉ. रामविलास शर्मा निराला की जीवनी के माध्यम से हिंदी साहित्य की तत्कालीन परंपरा का भी अध्ययन करना चाह रहे थे। यह जीवनी-कृति केवल निराला की साहित्य साधना तक ही सीमिति नहीं है, बल्कि इसमें उस युग के कई साहित्यकारों की साहित्य-साधनाएँ भी हैं जिन्हें बड़े कौशल के साथ निराला की जीवनी का हिस्सा बनाया गया है। यह रामविलास जी के जीवनी लेखन की स्वार्जित अवधारण थी जिसका प्रयोग उन्होंने 'भारतेन्दु हरिश्चंद्र और हिंदी नाबाजागरण की समस्या' और 'महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण' जैसी रचनाओं में किया, परंतु फिर भी इन्हें 'निराला की साहित्य साधना' जैसी औपन्यासिकता नहीं मिल सकी।

डॉ. रामविलास शर्मा ने केवल विद्रोही निराला की खोज नहीं की। अगर उन्होंने ऐसा किया होता तो जीवनी का अंतुलन बिगड़ जाता। उन्होंने निराला के संदेह, सौहार्द्र, त्याग, मित्र धर्म और क्षमा कर्म का भी चित्रांकन किया। उनके अनुसार निराला के व्यवहार में बड़े-छोटे का भेद नहीं था, वह दूसरे के व्यक्तित्व, उसके सम्मान और मर्यादा का बराबर ध्यान रखते थे। वह व्यंग्य करके कभी हँसते थे तो बराबर वालों पर, छोटों पर नहीं। (240) 'निराला के मित्रों और परिचितों में छात्र, अध्यापक, शहर और देहात के नौजवान और बूढ़े, गायिकाएँ, नर्तकियाँ, अत्यंज, मुसलमान, जमींदार, संगीत शास्त्री, राजनीतिज्ञ, गुंडे - सभी तरह के लोग थे।' (241) डॉ. शर्मा ने नतीजा निकाला था कि निराला के व्यक्तित्व की रचना 'पक्ष और विपक्ष' दोनों ने मिलकर की थी। डॉ. शर्मा ने निराला के व्यक्तित्व का मूल निर्माता उनके पारिवारिक परिवेश को माना है। इसलिए उन्होंने निराला के परिवार का वर्णन बड़े विस्तार के साथ किया। इसी परिवार में निराला के मानस में तरह-तरह की वृत्तियाँ संवर्धित और पुष्ट हुईं थीं। सबसे अधिक पिता रामसहाय तेवारी फिर पत्नी मनोहरा देवी और तदनंतर पुत्री सरोज, इन सबके संबंधों के परिवेश में निर्मित निराला के स्वीकृतियों और निषेधों का स्पष्ट रेखांकन कर डॉ. शर्मा ने जीवनी लेखन में अनेक सजीव सघनताएँ और विरलताएँ संयोजित कीं। उनके अनुसार - 'निराला के मन में बहुत सी ग्रंथियां, बहुत से तनाव, अनेक अंतर्विरोध, अनेक निषेध भावनाएँ और दमित कामनाएँ, एक दूसरे से उलझी हुई, सतत क्रियाशील उन्हें बेचैन करती रहती थीं' (431)। यह देखा गया है कि अधिकांश जीवनी लेखक अपने वर्ण्य - चरित्र की बेचैनी को देखने समझने की कोशिश नहीं करते, इसलिए वे बेचैनी के कारणों के अन्वेषण में सफल नहीं हो पाते। अंग्रेजी में बासवेल और हिंदी में रामविलास शर्मा को अपने साध्य चरित्रों, जॉन्सन और निराला के अंतर्मानस का जितना ज्ञान था, उतना शायद ही किसी में रहा हो। निराला की परिस्थितियों के सम्यक अध्ययन के बाद डॉ. शर्मा ने लिखा था - 'निराला आधे मन में भोगी हुए, आधे से सन्यासी।' जीवन चरित्र लिखने में इस प्रकार के निष्कर्ष 'महाप्राण निराला' (गंगा प्रसाद पाण्डेय), 'प्रेमचंद घर में (शिवरानी देवी) और 'कलाम का सिपाही' (अमृतराय) में नहीं दिए जा सके थे। निराला की साहित्य साधना - 1 के पाँच वर्षों बाद लिखी जीवनी पुस्तक 'आवारा मसीहा' (विष्णु प्रभाकर) में भी इस प्रकार के मनोग्रन्थि - साधक प्रसंग नहीं के बराबर हैं। भवदेव पाण्डेय के शब्दों में 'अगर गौर से देखा जाय तो अज्ञात नहीं रहेगा कि डॉ. शर्मा ने निराला की जीवनी को किसी सीमा तक 'रामचरित मानस' जैसा गौरव -ग्रंथ बना दिया। 'रामविलास शर्मा ने निराला की जीवनी को आह्लादक तो बनाया ही, साथ ही उनके युग का सांस्कृतिक - साहित्यिक इतिहास भी लिखा।

डॉ. रामविलास शर्मा इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं थे कि पाठकीयता जीवनी - लेखक की उपलब्धि होती है। इसलिए रचना की पाठकीयता ही उनके सर्जना की कसौटी बनी। इसी अवधाराणा से प्रेरित होकर ही रामविलास जी ने निराला के जीवन की घटनाओं का चयन और चित्रण किया। उन्होंने अनुभव किया कि 'कुल्लीभाट' में निराला ने पाठकों को अपने लेखन का मूल उद्देश्य माना था। इसीलिए रामविलास जी ने भी निराला के इस कौशल को अपनाया और पाठकों की मानसिकता के अनुकूल इस जीवनी को प्रस्तुत किया। 'महाप्राण निराला' ग्रंथ में गंगाप्रसाद पाण्डेय ने लगभग 112 पृष्ठों में निराला की जीवनी प्रस्तुत की, जो अतिशय भावुकता तथा आलोचनात्मक हो जाने के कारण आम पाठकों को प्रभावित नहीं कर सकी। निराला की साहित्य साधना -1 में रामविलास जी ने इस कमी को दूर किया है। इसे प्रेमचंद के उपन्यासों की तरह पठनीय बना दिया। इसमे घटनाओं के सहज समीकरण बने, चयन और संयोजन की नई शैली बनी तथा प्रभावी सम्प्रेषण कौशल ने इसे विशिष्ट बना दिया।
रामविलास शर्मा ने निराला के जीवन का अध्ययन करते हुए अनुभव किया कि निराला की लेखकीय संवेदना हिंदी भाषी जनता से एकाकार हो चुकी है । उन्होंने जीवनपर्यंत अपने पाठकों को अपार स्नेह प्रदान किया। उनके लिए निराला की जीवनी को केवल साहित्यकार वर्ग तक सीमित रखना स्वयं चरितनायक की भावना को उपेक्षित करना था। निराला की साहित्य साधना - के माध्यम से निराला के व्यक्तित्व के तीन पक्ष स्पष्ट होकर प्रकट होते हैं - "निराला एक नहीं तीन थे और तीनों महान थे। एक निराला व्यंग्यों की आधुनिकता सिरजता है, दूसरा निराला अनुराग सम्राट और विराग योगी है, तीसरा निराला भक्ति और ज्ञान के सहज समन्वय का महान कवि है। ये तीनों निराला अजेय हैं।" (स्मृति के वातायन : पृ 49-50) परंतु जब रामविलास शर्मा निराला का अवलोकन करने लगे तो उन्हें अगणित निराला दिखाई पड़े। 'निराला के मन में अथाह भावात्मक गहराई थी। वे आरंभ से स्वपनशीली थे' (नि सा सा - 67) डॉ. शर्मा ने निराला की स्वप्नशीलता को जमीन पर उतारा उसे वास्तविकता की कसौटी पर परखा और तब जो विश्वसनीय परिणाम मिले उन्हें जीवनी में साकार रूप प्रदान किया।

निराला की जीवनी लिखने में रामविलास शर्मा ने आत्मीयता पूर्ण तटस्थता का परिचय दिया है। उन्होंने तटस्थता को उदासीन और निष्क्रिय होने से बचाया। यही कारण है कि निराला की साहित्य साधना के जीवनी खंड को व्यापक सराहना मिली। रामविलास शर्मा के लेखन का विस्तार भले ही अनेक क्षेत्रों रहा है, लेकिन अधिकांशत: उनकी छवि एक साहित्य आलोचक की है और इस क्षेत्र में रची उनकी पुस्तकें ही उनकी स्थायी ख्याति का आधार रहेंगी। इस क्षेत्र में उन्हें सर्वाधिक प्रसिद्धि मिली, उनके निराला संबंधी अध्ययन से। उनकी कृति निराला की साहित्य साधना को साहित्य अकादमी पुरस्कार तो मिला ही , इसका जीवनी खंड विष्णु प्रभाकर की ; आवारा मसीहा ' में चित्रित शरत की जीवनी के समान ही लोकप्रिय हुआ। निराला की साहित्य साधना के दूसरे खंड में निराला के साहित्य का जो अध्ययन रामविलास शर्मा ने प्रस्तुत किया है, वह एक तरीके से निराला साहित्य की गहराई में पैठकर उनके द्वारा किए गए अध्ययन का मानक बनकर प्रस्तुत हुआ है। इस ग्रंथ के तीसरे खंड में निराला के पत्रों का संग्रह है। साहित्यकार के व्यक्तित्व का श्रेष्ठ निदर्शन - उसका कृतित्व होता है। इस कृतित्व का विवेचन पुस्तक के दूसरे खंड में हुआ है। पहला खंड उसकी भूमिका मात्र है। निराला जब तक जीवित रहे, उनका विवेक-शून्य विरोध ही अधिक हुआ। उनकी मृत्यु के बाद उनका व्यक्तित्व श्रद्धा की फूल मालाओं के नीचे छिप गया। निराला के जीवन काल में और उनकी मृत्यु के बाद जो लोग उनके साहित्य के सही मूल्यांकन में लगे रहे हैं, उनके कार्य की एक कड़ी - यह पुस्तक है। काव्य, कथा साहित्य, आलोचनात्मक निबंधों के अलावा निराला ने देश की राजनीतिक, सामाजिक समस्याओं पर बहुत कुछ लिखा है। ऐसी काफी सामाग्री 'सुधा' की संपादकीय टिप्पणियों में बिखरी हुई है। इसका अध्ययन निराला के कलात्मक साहित्य के भरे पूरे विवेचन के लिए आवश्यक है। रामविलास शर्मा ने निराला की साहित्य साधना के दूसरे खंड में 'विचारधारा' अध्याय के अंतर्गत, स्वतन्त्रता संग्राम के काल के राजनीतिज्ञों के विचारों, देश की सांस्कृतिक चेतना और अंग्रेजी राज के प्रति भारतीय जनता की मानसिकता, नारी की स्वाधीनता, जातीयता और हिंदी, वेदान्त और विकासवाद, वेदान्त और भारतीयता, भाषा और राष्ट्रीयता, शास्त्र और रूढ़िवाद आदि गूढ गंभीर विषयों पर निराला द्वारा व्यक्त विचारों का विश्लेषण प्रस्तुत किया है। 'भाव बोध' शीर्षक के अंतर्गत रामविलास जी ने निराला के मनोभावों का सूक्ष्म अध्ययन प्रस्तुत किया है । प्रकृतिपूजा, माया ब्रह्म, काम चेतरना, ऋतुचक्र, आत्मप्रवंचना, मोह भंग : विकृति, हास्य और करुणा, मृत्यु आदि विषयों की व्याख्या की है। 'कला' के अंतर्गत निराला ने काव्य रचना के लिए प्रयुक्त शैली और शिल्प के अनेकों उपकरणों को परिभाषित किया है जिसका वर्णन और विश्लेषण रामविलास जी शास्त्रीय पद्धति से इस खंड में किया है। 'गद्य साहित्य' अध्याय में निराला की गद्य रचनाओं की व्याख्या और आलोचना प्रस्तुत की गयी है वैसे ही 'परंपरा' के अंतर्गत निराला के सुप्रसिद्ध काव्यांशों का विश्लेषण और पुनर्पाठ प्रस्तुत किया गया है जो कि निराला साहित्य के अध्येताओं और आलोचकों को चिंतन की नई दिशाएँ प्रदान करने में सार्थक है।
डॉ. रामविलास शर्मा का लेखकीय महत्व आँकने के लिए हम कल्पना करें कि उनका लेखन नहीं है। हिंदी वाङमय से उनका लेखन खारिज कर दें तो भारतेन्दु, निराला, प्रेमचंद, महावीरप्रसाद द्विवेदी, रामचन्द्र शुक्ल, और किशोरीदास वाजपेयी का महत्त्व, हिंदी भाषा और समाज का संबंध और हिंदी जाति की अवधारणा से हिंदी साहित्य रहित हो जाएगा। भारतेन्दु आधुनिकता के प्रवर्तक हैं, निराला महाकवि हैं, प्रेमचंद महान उपन्यासकार हैं, रामचन्द्र शुक्ल महान आलोचक हैं, किशोरीदास वाजपेयी विश्व स्तर के वैयाकरण हैं, लेकिन रामविलास शर्मा को छोड़कर इन सबों का मूल्यांकन हिंदी में साहित्य ने कैसा किया है इसे स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं है। अपने समय के इतने कालजयी रचनाकारों, चिंतकों का ऐसा कालजयी मूल्यांकन हिंदी में किसने किया है, हम इस पर विचार करें। भले ही हम रामविलास शर्मा के विचारों से सहमत हों या असहमत, लेकिन यह मानेंगे कि उनके द्वारा विवेचित विषय या लेखक को पहले किसी ने इस रूप में नहीं देखा था। भारतेन्दु, प्रेमचंद, निराला, रामचन्द्र शुक्ल, महावीरप्रसाद द्विवेदी, किशोरीदास वाजपेयी, वाल्मीकि, कालिदास, भवभूति, तुलसीदास उनके हैं, अभूतपूर्व हैं और जिस विषय या व्यक्ति पर उन्होंने लिखा है वह अभी तक उसी रूप में प्रतिष्ठित है। आज हिंदी में उन विषयों और व्यक्तियों की जो छवि मान्य है, वह रामविलास शर्मा द्वारा मूल्यांकित छवि है। हिंदी भाषी समाज ने डॉ. शर्मा द्वारा मूल्यांकित छवियों को यूं ही नहीं स्वीकार कर लिया है बल्कि उनकी स्थापनाओं को अपनी तार्किक सहमति दी है।

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