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निराला की कविताओं में काव्य के विविध पक्ष

अपने नाम के अनुरूप निराले व्यक्तित्व और विलक्षण कृतित्व से हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने वाले ‘निराला’ का जीवन-पुष्प कष्ट कण्टकों में विकसित हुआ और स्वाभिमान, आत्मगौरव एवं विद्रोह की सुगन्ध-सुषमा बिखेरकर मौन भाव से अनन्त में विलीन हो गया। 

महिषादल के रहने वाले निराला का बचपन एक आदर्श सम्पन्न परिवार में हुआ जो परंपरानिष्ठ एवं अनुशासन प्रेमी थे। महिषादल रहते हुए वे सिपाही की नौकरी करने लगे थे। छोटी नौकरी की असुविधाओं और मान-अपमान का परिचय निराला को आरम्भ से ही प्राप्त हआ। सामंतवर्ग अपने कर्मचारियों से भी अधिक ज़ुल्म किसानों पर करता था। निराला ने दलित-शोषित किसान के साथ हमदर्दी का संस्कार अपने अबोधपन से ही अर्जित किया। सुख-सुविधा का अभाव उन्हें बचपन से ही था। तीन वर्ष की आयु में माता का और बीस वर्ष का होते-होते पिता का देहांत हो गया। अपने बच्चों के अलावा संयुक्त परिवार का भी बोझ निराला पर आ पड़ा था। पहले महायुद्ध के बाद जो महामारी (प्लेग) फैली उसमें न सिर्फ़ पत्नी मनोहरा देवी का बल्कि चाचा भाई और भाभी का भी देहान्त हो गया था। शेष कुनबे का बोझ उठाने में महिषा दल की नौकरी अपर्याप्त थी। फिर भी निराला ने इस क्षीण सहारे को ग्रहण किया। अपने श्रम पर विश्वास रखने वाले निराला अपने सम्मान के प्रति सचेत थे। चाटुकारिता से आगे बढ़ने वालों की भाँति निर्लज्ज और स्वाभिमानरहित वे न हो सकते थे। किसानों के पक्ष में बोलने वाले निराला महिषादल राज्य के अधिकारियों के साथ लम्बे समय तक निभा पाते यह कठिन था। स्वभावतः राजा साहब के हाउस होल्ड सुपरिटेन्डेन्ट से विवाद हुआ और नौकरी छूट गई।

इसके बाद का सारा जीवन आर्थिक अनर्थ और संघर्ष का जीवन है। इस जीवन में उतार-चढ़ाव, मस्ती-साहस, निराशा और पौरुष के अनेक मोड़ देखे जा सकते हैं। निराला के जीवन की सबसे विशेष बात यह है कि कठिन-से कठिन परिस्थिति में भी उन्होंने सिद्धांत त्यागकर समझौते का रास्ता नहीं अपनाया, संघर्ष का साहस नहीं गँवाया। अंतिम दिनों में वे शरीर से बेहद जर्जर हो गये—मानसिक असंतुलन के भी क्षण आते थे, हार्निया आदि रोगों से भी बेहद पीड़ित थे। जीवन का उत्तरार्ध इलाहाबाद में व्यतीत हुआ। यही दारागंज मुहल्ले में अँग्रेज़ों के बनाए राय साहब की विशाल कोठी के ठीक पीछे सीलन और अंधकार से भरी एक कोठरी (काल कोठरी) में अपनी जीवन-लीला समाप्त कर दी। 

साहित्यकार के रूप में भी निराला का जीवन बहुत संघर्षमय था। रूढ़िवादी साहित्यकारों और पत्रकारों का दल संगठित होकर निराला का विरोध करता था। निराला के काव्य में इस विरोध का ज़िक्र बार-बार आता है। स्वभावतः साहित्यिक मान्यता निराला को उतनी आसानी से नहीं मिली। साथ ही साहित्य-सेवा निराला की आजीविका चलाने में भी असमर्थ थी। साहित्य-सेवा और आजीविका के बीच इस विरोध का बड़ा मार्मिक चित्र निराला ने अपनी पुत्री के निधन पर अपनी एक अत्यन्त श्रेष्ठ कविता ‘सरोजस्मृति’ (1935) में खींचा है—‘कवि जीवन में व्यर्थ ही व्यस्त’ है। शब्दों की कविता की इस सेवा में ‘जीवित कविता’ की उपेक्षा होती है। एक दिन सिर्फ़ दुःख और पीड़ा झेलते हुए यह ‘जीवित कविता’ समाप्त हो जाती है। सरोज के माध्यम से अपने पूरे साहित्यिक और आर्थिक जीवन की समीक्षा करते हुए कवि सरस्वती के प्रकाश को व्यर्थ होता हुआ अनुभव करता है, पीड़ा और ग्लानि से भरकर अपने कविकर्म पर वज्रपात करता है। 

उनके साहित्यिक-जीवन का दूसरा पक्ष यह है कि नये प्रगतिशील चिंतन वाले साहित्यकार पूरी दृढ़ता से निराला के साथ खड़े हुए। हमारे युग के सबसे महान आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा ने अपना पहला लेख निराला पर 1935 में लिखा। लखनऊ और इलाहाबाद में नये, प्रगतिशील साहित्यकारों की टोली निराला के आसपास रहती थी। इस दृष्टि से देखा जाय तो प्रकट होता है कि निराला का साहित्य ही नहीं उनकी शारीरिक उपस्थिति भी रूढ़िवादी रीतिवादी साहित्यकारों और नये, प्रगतिशील लेखकों-विचारकों के बीच संघर्ष का प्रेरक था। निराला के व्यक्तित्व और साहित्य की यह विशेषता है कि कोई उनकी उपेक्षा करके नहीं निकल सकता-उसे या तो निराला के साथ होना पड़ेगा या उनके विरुद्ध।1

निराला जीवन और साहित्य में विरोध मानने वाले न थे इसलिए यह स्वाभाविक था कि वे अपने काव्य में भी संघर्ष को जीवन के एक बड़े मूल्य के रूप में प्रतिष्ठित करें। निराला की ख़ूबी यह है कि वे अपने ही नहीं, समाज में अन्य व्यक्तियों और वर्गों के संघर्ष को भी बराबर महत्व देते हैं। अक्सर उन्हें संघर्ष और पौरुष का, परिवर्तन, विद्रोह और क्रान्ति का कवि कहा जाता है—इसका कारण यही है। उनके कहानी उपन्यास में भी समाज के दलित और संघर्षरत मनुष्यों का गौरव निखरकर सामने आता है। अकारण नहीं है ‘बादल राग’ में अधीर कृषक ‘विप्लव के वीर’ को बुलाता है और ‘इलाहाबाद के पथ पर’ चिलचिलाती लू में पत्थर तोड़ती मज़दूरनी निराला की सहानुभूति में रंग जाती है। ‘देवी’, ‘चतुरी चमार’, ‘कुल्लीभट’, ‘जागो फिर एक बार’ जैसे संघर्षरत चरित्र और उनके साथ पूरा किसान समुदाय अँग्रेज़ों और उनके सहायक ज़मींदारों के ख़िलाफ़ अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ता हुआ निराला की रचनाओं में गौरवान्वित होता है। निराला ने इन कविताओं के माध्यम से किसान वर्ग और मज़दूर वर्ग की मानवीय संवेदना को चित्रित किया है जो इन पंक्तियों में दृष्टिगत होती है—

"दुर्बल वह—
छिनती संतान जब
जन्म पर अपने अभिशप्त
तप्त आँसू बहाती है
किंतु क्या?
योगजन जीता है,
पश्चिम को उक्ति नहीं
गीता है, गीता है,
स्मरण करो बार-बार
जागो फिर एक बार"2

कहने का तात्पर्य यह है कि निराला की सहानुभूति हर उस व्यक्ति या वर्ग से है, जो जीवन में सताया हुआ है, जो अपने ऊपर होने वाले अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष के लिए आगे बढ़ता है और दूसरों को लूटकर फलने-फूलने के बजाय अपने श्रम से जीविका अर्जित करता है। 

निराला के सामने किसान सबसे अधिक पिछड़ा और पीड़ित था। निराला का सहज बोध भारतीय किसान के साथ अटूट रूप से बँधा है। यह किसान अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ लड़ने वाली शक्ति है और रूढ़ियों में जकड़े हुए सामंती बन्धनों को तोड़कर भारतीय समाज की प्रगति का द्वार खोलने वाली शक्ति भी है। किसान का यह रूप निराला के निबन्धों, कहानियों और कविताओं में सर्वत्र देखा जा सकता है। साथ ही वे यह भी मानते हैं कि भारतीय प्रकृति और सांस्कृतिक समृद्धि का भी मुख्य आधार किसान है। किसान के साथ अनेक सहज बोध के दृढ़ संबंध के कारण निराला प्रकृति के सौंदर्य और जीवन के उल्लास के भी उतने ही बड़े कवि है, जितने संघर्ष के। सौन्दर्य, उल्लास और संघर्ष में आपसी विरोध नहीं है। इसका कारण है जीवन में, मनुष्य के कर्म में और सुखमय भविष्य में, निराला की अडिग आस्था। 

निराला की काव्यकला की सबसे बड़ी विशेषता है—चित्रण कौशल। आन्तरिक भाव हो या बाह्य-जगत के दृश्य रूप, संगीतात्मक ध्वनियाँ हों या रंग और गंध, सजीव चरित्र हों या प्राकृतिक दृश्य सभी अलग-अलग लगने वालों को घुला मिलाकर निराला ऐसा जीवंत-चित्र उपस्थित करते हैं कि पढ़ने वाला उनके माध्यम से ही निराला के मर्म तक पहुँच सकता है। निराला के चित्रों में उनका भाव-बोध ही नहीं, उनका चिंतन भी समाहित रहता है। इसलिए उनकी बहुत सी कविताओं में दार्शनिक गहराई उत्पन्न हो जाती है। इस नए चित्रण-कौशल और दार्शनिक गहराई के कारण ही अक्सर निराला की कविताएँ कुछ जटिल हो जाती हैं जिसे न समझने के नाते विचारक लोग उन पर दुरुहता आदि का आरोप लगाते हैं। निराला आन्तरिक भावों या दार्शनिक विचारों को उद्गार या भाषण के रूप में प्रस्तुत नहीं करते, दृश्य रूपों पर आधारित चित्रें की रचना में इन भावनाओं और विचारों का ईंट-गारे के रूप में इस्तेमाल करते हैं। इससे इनकी कला में न सिर्फ दृढ़ता का गुण उत्पन्न होता है, बल्कि कलाकार के रूप में उनके सामर्थ्य और दृष्टि का भी परिचय मिलता है। 

निराला छायावादी कवि थे। छायावाद की स्वच्छन्द पद्धति के अनुरूप कविता को मुक्त किया—दरबार की चाहारदीवारी से बाहर लाकर उन्होंने कविता को साधारण जनता से जोड़ा, नायिकाओं के अंगों और नायकों की लालसाओं के अलावा जीवन के स्वस्थ-प्रेम, प्रकृति और अन्य नये-नये विषयों पर कविता लिखने की प्रवृत्ति को आगे बढ़ाया। मनुष्य की वास्तविक कठिनाइयों और संघर्षों को चित्रित करके तथा सुखी भविष्य के उसके सपनों को जगाकर निराला ने अपने मानववाद के नये रूप को उजागर किया। यहाँ निराला ने कविता में संघर्ष का चित्रण इन शब्दों में व्यक्त किया है—

"होगा फिर से दुर्घर्ष समर
जड़ से चेतन का निशिवासर
भारती इधर है, उधर सफल
जड़ जीवन के संचित कौशल,
जब, इधर ईश हैं उधर सबल मायाकर"3

उन्होंने कविता को दोहे-सवैये के अलावा नये-नये छंदों में ढाला, लोक-संगीत का महत्व पहचाना और भावों के अनुरूप कविता की लय पर बल देते हुए छन्दों की अनिवार्यता को अस्वीकार किया। भाषिक संरचना की दृष्टि से कविता को बहुआयामी बनाया, लोकभाषा से लेकर परिनिष्ठत सामासिकता तक में अनेक रूपों को अपनाया तथा कविता को हिंदी, उर्दू, संस्कृत, अंग्रेजी आदि अनेक भाषाओं के शब्दों से सजाया। 

निराला की स्वच्छंद प्रवृत्ति का आधार उनका किसान बोध था। इसलिए उनके काव्य में आरम्भ से ही विद्रोह का स्वर प्रबल रहा है। उनके किसान बोध ने ही उन्हें छायावाद की भूमि से आगे बढ़कर यथार्थवाद की नई भूमि निर्मित करने की प्रेरणा दी। विशेष स्थितियों, चरित्रों और दृश्यों को देखते हुए उनके मर्म को पहचाना और इन विशिष्ट वस्तुओं को ही चित्रण का विषय बनाना निराला के यथार्थवाद की उल्लेखनीय विशेषता है।

"क्लेब-युक्त अपना तन दूँगा,
मुक्त करूँगा तुझे अटल,
तेरे चरणों पर देकर बलि
सकल श्रेय-श्रम-सिंचित फल।"4

निराला के भावबोध, चिंतन और कला की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए उनकी असंगतियों की चर्चा प्रायः नहीं की जाती। इसका कारण यह है कि निराला के विकास की मुख्य दिशा और उनके साहित्यिक अवदान का मूल्यवान अंश वह नहीं है, जिसमें उनकी असंगतियाँ व्यक्त होती हैं। लेकिन उन असंगतियों पर पर्दा डालकर निराला की शक्ति और महत्व को नहीं समझा जा सकता। निराला पर अध्यात्मवाद और रहस्यवाद जैसी जीवन-विमुख प्रवृत्तियों का भी असर है। इस अवसर के चलते वे बहुत बार चमत्कारों से विजय प्राप्त करने और संघर्षों का अन्त करने का सपना देखते हैं। लेकिन यथार्थ का दबाव उनके उस सपने को तोड़कर उन्हें सघर्ष की नई भूमि पर आने को बाध्य करता है। निराला की शक्ति यह है कि वे चमत्कार के भरोसे अकर्मण्य होकर नहीं बैठ जाते और संघर्ष की वास्तविक चुनौती से आँखें नहीं चुराते। कहीं-कहीं रहस्यवाद के फेर में पड़ा निराला वास्तविक जीवन-अनुभवों के विपरीत चलते हैं। हर ओर प्रकाश फैला है, जीवन आलोकमय महासागर में डूब गया है, इत्यादि ऐसी ही बातें हैं। लेकिन यह रहस्यवाद निराला के भावबोध में स्थायी नहीं रहता, वह क्षणभंगुर ही साबित होता है वे मनुष्य के ‘नरकत्रस’ से परिचित हैं और उसे इस नरकत्रस से छुटकारा दिलाने के लिए दैवी शक्ति की आराधना से लेकर मनुष्य की संगठित शक्ति जगाने तक के सभी प्रयत्न करते हैं जो उनके ज्ञानी होने का परिचायक है। इन पंक्तियों में भी यही बात स्पष्ट होती है—

"श्रीमुख से सुना था जहाँ भारत ने
गीता-गीत-सिंहनाद
मर्मवाणी जीवन-संग्राम की
सार्थक समन्वय ज्ञानकर्मभक्ति योग का।"5

यह प्रयत्न ही उन्हें मानवतावाद और यथार्थवाद से अभिन्न रूप में जोड़े रखता है। अनेक बार निराला शब्दों, ध्वनियों आदि को लेकर खिलवाड़ करते हैं। इन खिलवाड़ों को कला की संज्ञा देना कठिन है। लेकिन सामान्यतः वे इन खिलवाड़ों के माध्यम से बड़े चमत्कारपूर्ण कलात्मक प्रयोग करते हैं। इन प्रयोगों की विशेषता यह है कि वे विषय या भाव को अधिक प्रभावशाली रूप में व्यक्त करने में सहायक होते हैं। निराला के प्रयोगों में एक विशेष प्रकार के साहस और सजगता के दर्शन होते हैं। यह साहस और सजगता ही निराला को अपने युग के कवियों से अलग और विशिष्ट बनाती है। 

इस प्रकार कहा जा सकता है कि निराला छायावादी काव्य-प्रवृत्तियों के एक समर्थ कवि होने के साथ-साथ राष्ट्रीय चेतना एवं प्रगतिवादी स्वर के भी सक्षम उद्घोषक थे।

"फैला दुख, अब सुख-स्वरित जाल
फैला यह केवल कल्प-काल
कामिनी-कुमुद-कर-कलित ताल पर चलता
प्राणों की छवि मृदु मंद स्पन्द,
लघु-गति, नियमित-पद, ललित छंद,
होगा कोई, जो निरानंद, कर मलता।"6

कविता को छन्दों के बन्धन से मुक्त करने वाले महाप्राण कवि ने हर क्षेत्र में मुक्ति और स्वायत्त चेतना का राग अलापा, इन्होंने अपनी महान कृतियों के द्वारा हिन्दी साहित्य की जो सेवा की, उसके लिए वे सदा स्मरणीय रहेंगे। 

‘यह है बाजार’ कविता कवि निराला द्वारा रचित है। यह कविता सामाजिक यथार्थ का तीव्र बोध कराती है। यह कविता सन् 1936 के बाद की है। डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं कि—यथार्थवादी प्रवृत्ति सन् 1936 के बाद निराला के काव्य में दृढ़ होती है। यह प्रवृत्ति प्रकृति और नारी से लेकर सामाजिक जीवन के चित्रण तक में दिखाई देती है। वस्तुतः निराला सामाजिक क्षेत्र में बहुत ही सतर्क और संवेदनशील कवि थे। इसीलिए उनका ध्यान सुखिया और दुखिया जैसे पात्रों की तरफ जाता है जो सीधे जीवन से उठकर कवि की वेदना का स्पर्श करते हुए यथार्थ रूप में उनके काव्य में उतरते हैं।

"यह बाजार
सौदा करते हैं सब यार।
धूप बहुत तेज थी, फिर भी जाता था,
दुखिये को सुखिया के लिए तेल लाना था
बनिये से गुड़ का रुपया पिछला पाना था,
चलने को हुआ जैसे बड़ा समझदार।"7

कवि निराला के इस कविता में ‘बाजार’ का वर्णन है। दोपहरी का समय है, परन्तु लोग अपनी ज़रूरत की वस्तुओं को लेने के लिए बाज़ार जाने को तैयार हैं। हालात और वातावरण कुछ भी हो मगर जाना ज़रूरी है। जो इच्छा पैदा हो जाय, उसे पूरा करना भी ज़रूरी है, चाहे पैसा पास में हो या न हो। दुखिया और सुखिया के माध्यम से कवि इसी तथ्य को रेखांकित करता है। आज स्थितियाँ बदल गईं हैं जिसमें वे जी रहे हैं। आज का व्यापारी वर्ग भी काफ़ी सतर्क और समझदार हो गया है। वह केवल लेना चाहता है, वापस देना नहीं चाहता। अगर वह वापस करना भी चाहता है तो मजबूरी वश। उसके लिए कोई अपना नहीं, कोई पराया नहीं। वह बचा हुआ पैसा भी बड़ी चालाकी से वसूल कर लेता है। सुखिया जिस तरह से अपनी सास से धेली को पूरा करने की बात कही वह उस सौदेबाज़ी की तरफ़ संकेत करता है जो बाज़ार में व्याप्त है। 

सुखिया के कहने पर दुखिया मांस लेने बाज़ार जाता है। रास्ते में उसके मन में तरह-तरह की बातें पैदा होती हैं, जो उसे सशंकित करने लगती हैं। वह अनेक कारणों से ख़ुद को सुखिया के सामने विवश पाता है। उसे डर है कि कहीं वह दूसरे को अपने मन में न बैठा ले। वह सिंह से स्यार न बन जाय। अतः उसने सुखिया के पीछे न पड़ने में ही अपनी भलाई समझी। यहाँ कवि निराला ने संवेदना का भाव मार्मिक रूप से व्यक्त किया है। 

‘रानी और कानी’ कविता महाप्राण निराला द्वारा रचित है। यह कविता कवि की संवेदनशीलता को वास्तविक किन्तु नए परिवेश के साथ उद्घाटित करती है। कवि के सतर्क और संवेदनशील होने के कारण ही ‘रानी’ जैसे पात्रों की तरफ़ उनका ध्यान जाता है, जो सीधे जीवन से उठकर कवि के काव्य की विषयवस्तु बन जाते हैं। ऐसे पात्र निराला के साहित्य को केवल प्रेरणा और विषय-वस्तु ही नहीं देते, बल्कि अपने साथ अनेक ऐसे तथ्य लाते हैं जो निराला की निजी वेदना का हिस्सा बनकर आजीवन सक्रिय रहते हैं।

प्रस्तुत कविता में कवि ने एक ऐसी लड़की का चित्रण किया है, जो एक आँख से कानी है। लेकिन उसमें कार्य करने की क्षमता है। उसकी माँ बहुत प्यार से नाम लेकर पुकारती है। रानी एक आँख से कानी होने के साथ-साथ वह चेचक के दाग, काले रंग की चपटी नाक और गंजे से सिर से युक्त है। रानी बड़ी हो जाती है। वह घर के काम-काज को बड़ी ज़िम्मेदारी से पूर्ण करती है। जब माँ उसके बारे में सोचती है तो उसका दिल दुखी हो जाता है उसकी ‘शादी’ को लेकर वह हमेशा चिन्तित रहती है कि ऐसी लड़की से कौन शादी करेगा।

जब भी कोई पड़ोसिन उसकी शादी की बात करती है तो उसकी माँ बहुत दुखी हो जाती है। रानी एक लड़की जाति की है, उसकी शादी कैसे होगी—ये बातें जब रानी सुनती है तो वह भी अत्यंत दुखी हो जाती है। उसका यह दुखदायी आँख से आँसू के रूप में निकलने लगता है और बाईं कानी आँख अपनी जगह टिकी रहती है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे वह किसी चीज़ की निगरानी में लगी हुई है जबकि उससे दिखाई नहीं देता है। जब वह अपनी इस हालत पर विचार करती है तो उसका सारा शरीर काँप उठता है।

"औरत की जात रानी,
ब्याह भला कैसे हो
कानी है जो वह
सुनकर कानी का दिल हिल गया
काँपे कुल अंग,
दाईं आँख से
आँसू भी बह चले माँ के दुख से
लेकिन वह बाईं आँख कानी
ज्यों-की-त्यों रह गई रखती निगरानी।"8

यहाँ पर कवि की मानवीय संवेदना बहुत ही सुन्दर ढंग से व्यक्त हुआ है। निराला का सामाजिक यथार्थ का बोध-ज्ञान और गहरी संवेदना ने ही समय और समाज की पीड़ा को वहन करने वाली ‘रानी’ की तरफ उनका ध्यान आकर्षित किया है। इस कविता में हास्य की तात्विक उपस्थिति भी, यथार्थ की गम्भीरता के साथ संश्लिष्ट होकर आई है। इस कविता को देखकर निराला के सम्बन्ध में कही गई एक बात याद आती है कि वह आँख मूंदकर नहीं चलते, इधर-उधर के दृश्यों को देखते हुए चलते हैं। इस कविता की भाषा सरल तथा चित्रात्मक है। 

‘रचना की ऋजु बीन बनी तुम’ एक गीत है जो निराला जी द्वारा रचित है। यह गीत कवि की आत्माभिव्यक्ति है, जो छायावादी लाक्षणिकता के रंग में रंगी हुई दिखती है। इसमें कवि की संवेदनशीलता भी व्यक्त हुई है। कविता में सह अनुभूति, करुणा, निजी वेदना का हिस्सा विषय-वस्तु बनकर उभरी है। इसमें कवि की कल्पना-प्रवणता ही व्यक्त हुई है जो इस कविता की विषय-वस्तु है। यह निराला के लिए प्रेरणा स्वरूप है। कवि के अनुसार साधना से ही यह सब सम्भव हो सका है। इस गीत में कवि अपने मनःस्थितियों और कल्पना की विविध रूप में अभिव्यक्ति करता है जो ध्वन्यात्मकता और विम्बात्मकता लिए हुए आती है। वह कल्पना बच्चों की क्रीड़ा में, जवानी के काम रूप में, मन में गम्भीरता के रूप में, करुणा-भावना के रूप में कविता में बसी रहती है। यह संघर्ष शिल्प के स्तर पर भी अपना रास्ता स्वयं बनाता है। वे इसके सहज प्रभावों को लय से मूर्त करते रहते हैं।

कवि के अनुसार यह मन दुखियों के दुख-दर्द को देखकर बड़ी जल्दी ही द्रवित हो जाता है फिर वहीं अनुभूति जन्म लेती है। कवि कहता है कि मुझे तो तुम्हारे आने का मन में बसने का पता ही नहीं चला। तुम्हारे कारण मेरी कविता सरल बन गई। तुम बीन रूप में संगीत में आकर समा गई और मेरी साधना का रूप ग्रहण कर लिया। यही मेरे जीवन का संघर्ष भी बन गया। कवि की संवेदनशीलता ने असंख्य पात्रों को अपनी ओर आकर्षित किया है, जो जीवन से उठकर कविता में आए और कवि के लिए प्रेरणा बन गये। इसलिए कवि कहता है कि तुम न जाने कब आकर मेरी कविता में समा गईं और जिससे मेरी कविता में संगीतात्मकता उत्पन्न हो गयी, जो बीन के रूप में गुंजायमान है। वे उनकी साधना को संवलित बनाती है। इतना ही नहीं उनके सहज प्रभावों को लय से मूर्त करते रहते हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि निराला ने अपनी कविताओं में काव्य के लगभग सभी पक्षों को बड़े ही यथार्थ और मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त किया है, जो एक सच्चे कवि के कवि-कर्म का परिचायक है।

डॉ. भवानी दास
एसोसिएट प्रोफेसर
हिंदी विभाग
मुक्त शिक्षा विद्यालय
दिल्ली विश्वविद्यालय

संदर्भ सूची

  1. डॉ. रामविलास शर्मा—निराला की साहित्य साधना, पृ. 17

  2. जागो फिर एक बार—निराला, पृ. 10

  3. तुलसीदास—निराला, पृ. 58

  4. परिमल—निराला, पृ. 161

  5. अनामिका—निराला, पृ. 58

  6. तुलसीदास—निराला, पृ. 15

  7. कविता में यथार्थवाद और नई कविता—निराला, पृ. 259

  8. वही, पृ. 259

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