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साधारण कमरे में टँगी सिपाही की तस्वीर पर रखा सुर्ख लाल बुरांश का फूल उसके गर्व से दमकते चेहरे की लालिमा को कई गुना बढ़ाकर, साधारण कमरे की उदासी को लील उठा था। दीपा फूल रखकर चली गयी थी, परन्तु हेम की आँखें, कमरे को पराये-सा टटोल कर अथाह गहराई में उतर आयीं। मन्द स्वर में बजता देश-भक्ति गीत उसकी आँखों में पानी दे गया। कमरे के बायीं ओर एक दरवाज़ा विहीन अलमारी के सबसे ऊपरी खाने में कुछ जोड़े वर्दियों को सहेजकर रखने की कोशिश की गयी थी। बीच के खाने में किनारे की तरफ़ रखे एक जोड़ा बूट उन कपड़ों की स्पष्ट पहचान करा रहे थे। नीचे के खाने पर एक पुराना टेप रिकार्डर और उसके अगल-बगल ढेर सारे कैसेट्स अस्त-व्यस्त पड़े थे। एक समय वह भी था, जब यही कैसेट्स करीने से सहेजकर दीवार-सी चिनी रखी रहती थी और ज़रा भी हाथ की तेज़ी से निकाल लेने पर दर्प से तुन-तुनाकर गिर जाती थीं और मर्मज्ञ आन्नद ऐसे घबरा उठता, मानो उसके हाथ करेण्ट से छू गये हों। शायद यह बाबू (पिता) की उस पीड़ा का ही दर्द रहा था, जिसे वह बाल्यावस्था से ही महसूस करता आया था, जब बाबू ने यहाँ-वहाँ जाकर, जब-तब देश-भक्ति के ही गीतों को सुनने की ललक पर ध्यान देकर किसी का पुराना टेप प्लेयर खरीदकर उसे दे दिया था और वे उस माह अपनी दवा नहीं खरीद पाये थे। फिर न जाने अपने कितने ही कौरों को छोड़कर उन्होंने उसे कैसेट्स ला-लाकर दिए थे और उनकी धुन में उसे रमता देख स्वयं की आँखों में भी एक अलग सपना सँजो उठे थे।

एक बड़ी नर्सरी के मामूली चौकीदार ही थे वे। वेतन नर्सरी के फूल-पौधों-सा इठलाता नहीं था। उस पर छह-छह महीने सूखे हाथ रह जाना ग़रीबी की पराकाष्ठा को ही दावत दे उठता। दो पुत्रों की शिक्षा और घर का ख़र्च वे कैसे पूरा करते थे, यह उससे कहाँ छिपा था और कहाँ उसकी दृष्टि से उन पहाड़ी रास्तों में चलती ईजा (माँ) के बगैर चप्पलों के पाँव की पीड़ा छुपी थी। बड़े पुत्र हेम ने काफ़ी ज़िद पर कक्षा आठ पास करते ही चाय की दुकान खोल ली और फौज में भर्ती होने के अपने सँजोये सपने से चाय की जूठे गिलास चमकाने लगा। गाँव की दुकान.... बिक्री कुछ ख़ास न होने पर भी उसने घर खर्च में अपनी भागीदारी शामिल कर दी थी। फिर धीरे-धीरे उसने भी कई कैसेट्स लाकर आनन्द को दिए थे और आनन्द उन्हीं में दृढ़ता से जीवन सँजो, देश भक्ति से ओत-प्रोत आँखों में कभी-कभी आँसू ले आता, ख़ासकर "ऐ मरे वतन के लोगों...." गीत पर।

एक रोज़ स्कूल जाने से पूर्व वह एकान्त कमरे में इसे सुनते-सुनते ही सुबक पड़ा था। उसके काफ़ी देर तक बाहर न निकलने पर हेम ने जाकर देखा तो वह उसे उठाकर खड़ा ही नहीं कर पाया था। फिर अश्रुधार देख कर हेम हल्की कठोरता के साथ बोल ही पड़ा था- "देश भक्ति का जज़्बा केवल आँख में आँसू भर लेने से पूरा नहीं हो जाता... आनन्द! इतना ही दहकता हृदय है तो क्यों नहीं फौज में जाने की तैयारी कर मेरा भी सपना पूरा कर देते।" आनन्द को मानो किसी ने उसकी राह दिखा दी। फौरन दाज्यू के पैर छूकर रोते हुए ही बोल पड़ा- "दाज्यू! मेरा प्रण भी यही था। अब आपने इसे लक्ष्य में बदलने की जो प्रेरणा दे दी है, उसे हासिल करना ही मेरा एकमात्र उद्देश्य होगा।" काफ़ी तेज़ बुखार चढ़ आने से वह उस दिन स्कूल नहीं जा पाया था।

समय कुछ आगे बढ़ा। हेम के विवाह की चर्चा घर में प्रखर होने लगी। ईजा-बाबू ऐसी लड़की की तलाश में थे जिसने ग़रीबी में रहकर भी उन्नति की ओर बढ़ना सीखा हो। फिर एक रोज़ मनचाही मुराद पूरी होती देख परम्परानुसार लड़की को तिलक चढ़ा आये थे। हेम के तत्काल विवाह के लिये तैयार नहीं था, पर दोनों पक्ष एक अवधि के बाद का मुहूर्त निकालकर बात पक्की कर गये थे। लेकिन अहो भाग्य हेम का, जो विवाह समय नज़दीक आते ही संकट से भर कर उसी का पलड़ा भारी कर गया। एक सर्द दोपहर से आरम्भ हुई मूसलाधार वर्षा शाम होते-होते पर्वतों सहित निचली घाटियों तक को हिमाच्छादित कर उठी। भीषण बर्फ-बारी में बाबू के घर ना पहुँचने पर, बढ़ते समय ने सभी के माथे पर गहरी रेखाएँ खींच दी थीं। इससे पहले उन्होंने कभी इतनी देर नहीं लगायी थी। विचलित हंसा (ईजा) रह-रहकर छज्जे पर से नीचे रास्तों पर नज़रें दौड़ाने लगी। परन्तु रास्ते तो क्या छोटे पेड़-पौधे भी जैसे सफेद चादर ताने गहन निद्रा में ही सो गये थे। हल्की सी आहट पर भी हंसा अपनी गर्दन दरवाज़े की ओर झटके से मोड़ उठती और अन्धेरा चेतावनी स्वरूप आगे बढ़कर उसे डरा ही उठता।

"ईजा! लालटेन तैयार कर दे..... मैं जाकर देख आता हूँ...... जरूर बाबू नर्सरी में ही रुक गये होंगे," हेम गम्भीर भाव में एकाएक दरवाजे से आते बोल पड़ा था।

"पैर कहाँ रखोगे?.....कुछ दिख भी रहा है, सिवाय बर्फ के। वो भी जंगल की ओर....ना रहने दे," ईजा के स्वर में हल्की कठोरता भी उभर आयी थी। किन्तु हेम के अधिक हठ करने पर वह पड़ोस के घर में मिट्टी का तेल माँगने चली गयी। तब तक हेम गर्म कपड़े पहन कर साथ में धीमी रोशनी देता टार्च, एक खुखरी और एक मजबूत भाला हाथ में लेकर किसी राजा के सेनापति-सा तनकर मोर्चे के लिए खड़ा हो गया। आनन्द के साथ देने की ज़िद करने पर वह स्पष्ट इन्कार करते हुए बोल पड़ा- "मुसीबत में दो से भला एक ही अच्छा।" फिर वह दोनों शान्त ही रहे थे। हंसा लालटेन और दियासलाई हाथ में थमाते बोल पड़ी- "ये तुम्हारी जिद है, वरना मैं इस बर्फीले मौसम में नहीं भेजती.....रुको! हयात ने तुम्हारे साथ आने के लिए कहा है.....आता ही होगा।"

"ईजा! (माँ) रहने दे... जितना विश्वास मुझे अपने अकेले जाकर सफल होने में है उतना किसी के साथ होने में नहीं। बस तेरा और ऊपर वाले का आशीर्वाद मेरे साथ रहे।" वह जाने लगा। हंसा भर-भराते आँसुओं के साथ रुंधे स्वर में अपने ईष्ट देव को पुकार उठी- "हे ईष्ट देव मेरे पुत्र और पति की सकुशल घर वापसी सुनिश्चित करना।" आनन्द की भी आँखें भर उठीं थीं।

हेम नीचे की ओर उतर कर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ गया। उसने लालटेन घुटनों से ऊपर उठा ली थी और भाले को गाँधी लाठी-सा धँसा कर सरपट आगे बढ़ने लगा। बर्फ के अथाह फाहे उसके पैरों को टेकते ही छुपा दे रहे थी। वातावरण एकदम शान्त था। पेड़-पौधे तो मानों बर्फ के सम्मोहन में हिलना-डुलना ही भूल गये थे। अन्धेरे ने अपना चरम रूप धारण कर लिया और रास्ते ने अति दुगर्म बन कर बाँह फैला दी थीं। हेम ने एक क्षण रुक कर लालटेन जला ली थी फिर सामने की एकदम खड़ी चढ़ाई पर एकाएक विलोपित रास्ते को टोलता कुछ क्षण खड़ा ही रह गया। कंटीले झाड़-झंखाड़, पेड़-पौधों के बीच से सर्पीलाकार बना पहले जैसे कोई रास्ता था ही नहीं। एक पल वह भ्रमित होकर स्वयं को दोष दे उठा था कि शायद वह ही ग़लत स्थान पर पहुँच गया है। फिर स्पष्ट करने के लिए वह पास के गधेरे (जंगलों के बीच बहती छोटी नदी) में ही कहीं पर एक विशाल शिला होने की छानबीन करते हुए नीचे ढलान की ओर उतर गया। उसकी अचानक इस हल-चल से कुछ काकड़ों के जान बचा कर इधर-उधर भड़-भड़ाते भागने पर एक बेहद डरावना स्वर उभर आया था, जिससे वह भी एक पल सहम उठा था। शिला के दिख जाने पर हेम वापस उसी स्थान पर लौट आया और लालटेन को कुछ क्षण भरी दृष्टि से निहार कर फिर उसे बुझा कर एक पेड़ पर टाँग आगे बढ़ गया। वैसे भी कठिन जाले से रास्ते को चीर कर जाने में भला लालटेन क्या साथ दे पाती, जो बर्फ से खार खाई उसके ऐसे कृत्य पर झुँझलाकर झाड-झंखाड़, पेड़-पौधों को नोच उठती थी। पर ज़िद्दी मानव पर सबकी जीत कहाँ? झाड़-झंखाड़ से छिरकते, काटते वह ऊँचाई की ओर बढ़ ही गया था। चढ़ आने पर एक क्षण बैठ कर थकी पलकें झुकाई ही थीं कि सहसा सामने से कोई विशाल उड़ती सफेद प्रतिमा-सी अपनी ओर आती दिखायी दी। हल्का-सा विचलित होने पर भी वह सामना करने के लिये खड़ा होकर टार्च की मन्द रोशनी में उस ओर ताकने लगा। पर एकाएक जाने वह कहाँ ओझल हो गयी थी। हेम की चकरायी नज़रें चारों ओर टकरा कर टटोल-सी उठीं। वातावरण में बर्फ की घुलती मद्धम सी सफ़ेद चादर, गहन स्याह रात को चिढ़ा रही थी। पेड़ों के झुकने और टूटने की आवाज़ें मानो उसे पर्वत की जीत की रह-रह कर बधाई-सी दे रही थीं। ऊँची-ऊँची चोटियों से नज़रें टकराकर, हिमालय पर प्ड़ीं तो परियों के डरावने क़िस्से उभर आये, जिनका विचरण स्थान कुमाँऊ में सदा से हिमालय और उसी के समरूप ऊँची चोटियों को ही माना जाता है। एक क्षण ऐसा लगा कि उड़ती हुई कई परियाँ अपनी रूप-कुरूप देह-काया लिये उसकी नज़रों में खड़े होकर रिझा-सी रही हैं, किन्तु अगले ही क्षण विचार उमड़ आया कि परियाँ तो केवल लड़कियों पर ही जादू करती हैं। सहसा बिजली कड़कने से उत्पन्न डरावनी आवाज़ से वह कम्पित ही हो उठा था। मानो उसकी भावना से रुष्ट होकर उन्होंने कोई चमत्कारी चक्र ही छोड़ दिया हो। फिर कई परतों में गूँजती उस मन्द आवाज़ के साथ ही वह अपनी मंज़िल की ओर बढ़ गया।

आगे का टेढ़ा-मेढ़ा तिरछा रास्ता भी चुनौतियों से भरा हुआ था। परन्तु हेम अपने रिसते खून से हर चुनौती को स्पर्श करा कर सभी को पराजित करते हुए आगे बढ़ते ही चला गया। एक खुली घाटी में पहुँचते ही उसने उस पार स्थित नर्सरी का आभास-सा कर बाबू को एक ऊँची आवाज़ लगा दी, परन्तु प्रत्युत्तर में उसी की आवाज हवा में गूँजकर शान्त हो गयी थी। वह तीव्र गति से आगे बढ़ने लगा, पर अवरुद्ध रास्ता कहाँ उसकी पीड़ा समझने वाला था! उस पार दिखती नर्सरी तक जाने में ही उसे पूरे डेढ़ घण्टे से कम समय नहीं लगा था। आधी रात तक पेड़-पौधों से जंग-सा लड़ते-लड़ते वह लक्ष्य स्थल के क़रीब पहुँचा भी तो गेट पर बाहर से लटका ताला, उसे गहरे संशय में डाल कर, पुनः एक नयी कड़ी चुनौती में खड़ा कर उसकी परीक्षा ले उठा। तो क्या बाबू वहाँ से निकल चुके थे?

"बाबू....! " हेम ने गेट पर से आवाज दी। कुछ देर खडे़ रहने पर भी अन्दर से कोई उत्तर ना मिलने पर फिर वह कुछ दूरी पर से दीवार फाँद कर जाने की सम्भावना देख, उसी ओर बढ़ गया। बर्फ से लदी दीवार पर किसी तरह चढ़ कर, उतरने हेतु नीचे बर्फ से ही ढकी घास-फूस के ढेर की मज़बूती को भाले से परख की। परन्तु पाँव धरते ही अन्दर से हुई अजीब-सी सरसराहट पर हेम ने झटके से टार्च की रोशनी उसी ओर डाल दी थी। यह कैसा आकार और चमक, भयानक बन उभर आया था रोशनी में उसकी? फिर ऐसे मौसम में, उसे इसकी ज़रा भी उम्मीद नहीं थी। क्या था वह? हेम ने प्राण बचाने की चीख के साथ छलाँग लगा दी थी, जिससे सामने के पेड़-पौधों में बे-तरतीब हाथ-पैर पड़ने पर. छिले-कटे ज़ख्म और अधिक गहरा कर पीड़ा दे उठे। सम्भल कर उठते ही वह ऊपर सीढ़नुमा खेत पर स्थित छप्पर की ओर तेजी से बढ़ गया।

"बाबू!..... " हेम ने छप्पर के निकट पहुँचते ही पुनः एक गम्भीर आवाज़ अन्दर की ओर दे दी थी। फिर किवाड़ पर से ही टार्च की रोशनी से अन्दर छान कर एक चीख भी निकल आई थी उसकी। किसी बड़ी अनहोनी की आशंका से वह पूरी तरह घिर ही उठा था। बियाबान जंगल में रात्रि के द्वितीय पहर में प्रेतात्मा-सा बन वह यत्र-तत्र भटकने लगा। अब क्या इन स्थानों में उसे इस समय बाबू मिलते? जिन्होंने उसे वापस लौटाते देर न लगायी। थककर लड़खड़ाता हुआ फिर एक बड़े टूटे पेड़ की ओर बढ़ गया था। उस पूरी नसर्री में बस इसी की ही एक तलाश शेष बची थी। टूटा पेड़ और उसकी शाखाएँ तो मानो बर्फ से दबी चोटी ही बनी हुई थीं। हेम बिना कोई पल गँवाये उसे खोदने लग गया। सहसा ही अन्धेरे में कोई हाथ या पैर को शाखा समझ, उठाकर फेंकने की धुन में हेम को ही वह झटके से कुछ एहसास करा कर अपनी ओर खींच गया था। घबराये हेम ने मन्द से मन्द हो आयी टार्च की रोशनी में किसी तरह खंगाला तो बाबू का निर्जीव-सा हाथ दिख आने पर दहाड़े मार, हाथ से लिपट गया। रोते-बिलखते किसी तरह निकाल कर वह उन्हें छप्पर में ले आया। बलहीन से होते शरीर में सहसा जाने कहाँ से ऐसी कौन सी उर्जा उस पल उसमें समा गयी जो महात्मा बन बैठा। एक टूटी-सी चारपायी पर पड़े पानी से तर गमछे को हटाकर उसने बाबू को लिटा दिया था। परन्तु वह उनका अकड़ा टेढ़ा शरीर कई बार के प्रयास करने पर भी सीधा नहीं कर पाया था। फिर उनके भीगे कपड़े किसी तरह उतारकर, सूखे कपड़ों सहित कुछ ओढ़ने को हड़बड़ाते ढूँढने लगा, परन्तु कमरा जैसे उनके विछोह में स्वयं को पूरा भिगो उठा था और रह-रहकर टपकता पानी भी जैसे उन्हें बाहर ही जाने को उकसा रहा हो कि मरे के लिये अन्दर कोई जगह नहीं। सहसा एक खूँटी में लटके पॉलीथीन के अन्दर कुछ दिखने पर उसने उसे लपक कर खोल लिया, जिसमें एक मैली-सी चादर के साथ-साथ एक कुर्ता भी रखा हुआ था। वह कुर्ता किसी तरह पिता को पहनाने में देर न लगायी थी उसने। पर उस टपकते पानी का क्या? जिसने उसकी चिन्ता दुगनी कर रखी थी। सोचता हुआ वह बाहर आया और छत में जमा फालतू घास-फूस हटाकर फिर अन्दर से एक डण्डे के सहारे ढलान को और बढ़ा कर टपकते पानी से निजात पा गया था। फिर बाबू को अपने अन्दर के सूखे कपड़े उतार कर पहना दिए और चादर ओढ़ा कर उनके पैरों की मालिश करते हुए बीच-बीच में उन्हें जगाने का प्रयास करने लगा। कुछ क्षण पश्चात् वह उन्हें लिपट कर ही लेट गया। परन्तु उसकी गर्मी भी बर्फ से ठण्डे पड़ चुके बाबू पर ज़रा भी नहीं दौड़ पायी और वे जस-के-तस और ठोस होते चले गये। धीरे-धीरे हेम को एहसास होने लगा कि अब बाबू......

उसका हृदय दहाड़े मारने को कर रहा था, परन्तु निर्मम भयानकता जैसे उसे गीता का संदेश सुनाकर ख़ामोश ही कर गयी था। निराश मन से कुछ क्षण पश्चात् उठ कर, किवाड़ पर से आसमान की ओर टक-टकी लगाये भोर की प्रतीक्षा करने लगा। ठण्डक अपनी पूरी चरम पर थी, किन्तु मामूली कपड़ों में भी उसे इसका एहसास ज़रा भी नहीं हो रहा था। न जाने ईश्वर उसके ऊपर कौन जल छिड़क गया। फिर आग जलाने की सोच कर वह कोने में बनी गड्ढेनुमा सिकड़ी के पास आ गया, परन्तु उसे पानी से तर देख वापस चारपायी पर आकर बाबू का सिर पलोसते हुए फिर उन्हीं के साथ लेट कर अपने में ही विलाप कर मोम-सा पिघलता-पिघलता कब वह भी ठोस हो उठा पता नहीं चला।

घटना की जानकारी लगते ही गॉव में कोहराम ही मच गया। हंसा (ईजा) अपनी मानसिक सन्तुलन खो बैठी। घर पर लोगों का जमावड़ा देख वह अपनी धुन में कभी प्रसन्नता से हँस-हँस रही थी तो कभी लोगों से विवाह गीत (शकुनाखर) गाने को कहकर स्वयं झूम-झूम नाचते गुन-गुननाते हँसते, इधर-से-ऊधर दौड़े-दौड़े जा रही थी। बन्दी रक्षक-सी लगी प्रौढ़ महिलाओं के भर्राते अश्रुपात सहित मज़बूत जकड़न भी उसे सच का सामना नहीं करवा पा रही थी कि आँगन बहू की डोली के लिए नहीं, पिता-पुत्र के शव के इन्तज़ार में पटा है। अब कौन और किस तरह उसे समझाये? एक यह थी और एक वह भी थी, जिस पर लोगों ने सच थोपते हुए कुलक्षणी की संज्ञा से कुण्ठित कर घर पर ही नज़रबन्द रहने को मजबूर कर दिया था। लोगों की नज़रें ही उसे सहमा उठतीं थी। बिन सिंदूर यह कैसा फेर उसे तोड़ बैठा था, जिसे कभी उसने देखा तक नहीं था। वह रोये तो किसलिये?

दोपहर बाद तक दोनों को किसी तरह अलग-अलग डोलियों में लादकर गाँव वाले अपनी जान भी जोखिम में डालकर आँगन में उतार गये थे। हंसा हँसते हुए बहू को उतारने दौड़ पड़ी तो चारों ओर चीखें और तेज़ हो उठीं। गुमसुम आनन्द ईजा की हालत देख फफकर रोते हुए लिपट गया। फिर दो-चार रोती औरतें हंसा को रस्सी-सा जकड़कर अन्दर की ओर खींचते हुए लेकर चली गयीं। रोते आनन्द को बडे बुज़ुर्गों ने सब भार उसके ही कन्धों पर होने का तीखा एहसास करा कर आवश्यक कर्म-काण्डों को पूरा करने का आदेश सुना दिया था और वह पूरा करने में जुट भी गया था। परन्तु कफ़न देते वक़्त वह आँगन ही हिला गया था। हंसा को जकड़ कर औरतें मुँह दिखाने ले आईं। शायद यह चमत्कार ही था उस डरावने लाल रंग का जिसे चौखट पर से देखते ही वह ऐसा चीखी की दिमाग असन्तुलित ही हो उठा। फिर भुजाओं में संसार की सारी शक्ति बटोर सबको तितर-बितर कर वह उसी ओर बदहवासी में रोते दौड़ पड़ी और झटके से कपड़ा हटाकर संयोगवश पति का ही चेहरा दिख आने पर चीखते हुए दोनो हाथों को ज़मीन में पटक गयी। चूड़ियों की बेतरतीब टूटन से खून की अनेका-अनेक फुहारें-सी हाथों से फूट पड़ीं। रोते-बिलखते दूसरे में पुत्र का चेहरा देखते ही हाथों से उसका चेहरा पलोस उठी, जिससे खून का एक लेप-सा उसके गालों पर उभर आया था। हंसा बेसुध-सी लोट-पोटकर फिर जीवित पुत्र से ऐसा लिपटी की प्राण ही तज गयी। आन्नद निष्प्राण-सा होकर कँपकँपा उठा था। उसके भी प्राण अब गये तब गये से हो आने पर बुजुर्गों के पसीने छूट गये। किसी तरह गीतासार और न जाने किन-किन महान चरित्रों की सीख देकर उसे मज़बूती के साथ-साथ अपनापन देकर सामान्य मुद्रा में लाये थे। आनन्द ने एक नज़र आँगन पर फैलाई तो मेले सी उमड़ी भीड़ की रोती नज़रें उस पर ही केन्द्रित थीं और तीनों अर्थियाँ आख़िरी पद यात्रा के लिये उसकी ओर ताक रही थीं। पुनः उसकी आँखें झरने-सा पानी गिरा उठी थीं।

वह पहले किसको कन्धा दे? माँ का स्वभाव जहाँ कोमलता लिये रहता तो वही पिता का स्वभाव हल्का तीखापन लिये रहता। पर भाई का स्वभाव तो उसी के जैसा था। स्वभाव को तौल कर कर्त्तव्यों का निवर्हन करना न्यायोचित्त नहीं। यह किस धर्म संकट में उलझ गया था वह। एकाएक कुल पुरोहित मन का संशय जानकर उपदेश दे उठे।

"संतान पर माता का अधिकार पहला पिता का अधिकार दूसरा, बाक़ी स्थति अनुसार निहित होता है। इसलिए आगे बढ़ो और सबके चरण वन्दन कर, माँ को कन्धा दो... अगर तुममें शक्ति निहित है तो दायें कन्धे में माँ और बायें कन्धे पर पिता का शव रख कर भी प्रस्थान कर सकते हो। फिर उसने ठीक वैसा ही किया था, परन्तु आगे मार्ग संकरा होने के कारण माता को ही कन्धा देकर चला था। घाट पर माता, पिता, पुत्र की चिताएँ तैयार हो गयीं और नम आँखें कर्म-काण्डों में तल्लीन हो गयीं। यह क्या... एकाएक हेम की चिता छटपटा उठी। फिर एक डरावनी-सी आवाज़ के साथ उसका धरती-सा चीर-फाड़ कर सती-सा बैठ जाने पर लोग काँप कर तितर-बितर ही हो गये थे। उस पर उसका रूप भी क्या कम डरावना लग रहा था। बालों से बहता घी, उसके खून से सने गालों को मकड़ी के जाले-सा चीर कर स्थिति को और अधिक डरावना कर रहा था। एक क्षण वह कुछ सोचता समझता-सा.... एकाएक घबराये स्वर में चीखकर छलाँग लगा गया, किन्तु पाँव फिसल जाने पर वह लड़खड़ाकर पानी में ही गिर पड़ा, जिससे चेहरा कुछ धुल गया था। कुछ साहसी पुरुष उसके ज़िंदा हो उठने पर उसकी तरफ़ लपक पड़े थे। कुछ क्षणोपरान्त सारी स्थिति जान कर वह माता-पिता के शोक में डूब गया था। उसके ज़िंदा हो उठने की घटना दावानल की तरह मुखो-मुख भावी ससुराल में गूँज गयी और अभी तक नज़रबन्द-सी वह लड़की- दीपा एकाएक रणचण्डी-सा रूप धर एक हाथ में सिंदूर की डिबिया और एक हाथ में दराती (हंसिया) थाम, बड़े-बड़े संस्कारों के पैरोकारों को धता बताकर निर्भय शमशान की ओर दौड़ पड़ी, जिससे शमशान में खलबली-सी मच गयी थी और महिला वर्जित शमशान एक पल सन्न रह गया।

"हेम...? वह द्रुतगति से जाते हुए गम्भीर स्वर से पूछ उठी थी। किसी के द्वारा उसकी ओर इशारा कर देने पर वह उसकी ओर तेज़ी से लपक पड़ी और उसने मुट्ठी खोल कर सिंदूर बढ़ा दिया।

"कौन हो तुम....? दिमाग ठिकाने है तुम्हारा.....ये शमशान घाट है कोई पागलखाना नहीं। यहाँ सिर्फ राख और कफन मिलता है," हेम खीझकर बोला था।

"पर मैं अपना सुहाग लेने आई हूँ," अति अम्भीर स्वर से बोली थी वह।

"मरे पर मुहँ देखने नहीं आई अब जिंदा हो गया तो यहाँ शमशान चली आयी.......किस हक से?"..... पुनः हेम खीझ उठा।

"विवाह पूर्व किस हक से आती?"

"अभी किस हक से आयी हो/"

"समाज ने जबरन कुण्ठा थोप कर जो मुझे मरणासन्न कर दिया है उसी कुण्ठित समाज के मनोभावों की चिता जलाकर, उसी के सात फेरे लेकर समाज का गला घोंटने आयी हूँ।"

सहसा आस-पास कुछ विरोधी स्वर भूत-भविष्य को टटोल उठे- ऐसा कभी नहीं हो सकता। यह नियम विरुद्ध है और अब हेम तुम्हें भी इसी शमशान के आस-पास ही अपना आश्रय बनाकर रहना होगा... परम्परानुसार मर कर शमशान घाट से ज़िंदा हुए इंसान का घर से कोई वास्ता नहीं रहता। सारे स्वरों के एक हो उठने पर हेम एकाएक ललकार उठा- "किसकी इतनी हिम्मत कि मुझे मेरे घर से बेदखल कर दे... शायद यह चिता उसी का इन्तजार कर रही है। मैं समझ गया समाज के कुण्ठित मनोभावों को..... यही समाज मरने पर रोने वाला भी है और यही समाज जीने पर दुःख देने वाला भी," उसने आवेग के साथ दीपा की हथेली से सिंदूर लेकर उसकी माँग भर दी थी और स्वयं के लिए तैयार चिता को जलाकर उसके साथ फेरे ले लिये थी। आनन्द रोते हुए हेम के गले लग गया था।

समय आगे बढ़ा आनन्द के फौज में भर्ती होने का सपना साकार हो गया, किन्तु उसी समय छिड़ी जंग में उसने अपने प्राण मातृ-भूमि को अर्पण कर दिये। आज उसी की शहादत दिवस पर हेम ने उसके कमरे में उसी का पसंदीदा गीत- "ऐ मेरे वतन के लोगो" मन्द स्वर में बजाया था। गीत उसे भावभीनी श्रद्धांजलि देकर समाप्त हो गया था, परन्तु हेम की आँखें है कि निरन्तर बहे जा रही थीं।

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