नियंत्रण
काव्य साहित्य | कविता नरेश अग्रवाल1 Jun 2016
जिन रातों में हमने उत्सव मनाये
फिर उसी रात को देखकर हम डर गए
जीवन संचारित होता है जहाँ से
अपार प्रफुल्लता लाते हुए
जब असंचालित हो जाता है
कच्चे अनुभवों के छोर से
ये विपत्तियाँ हीं तो हैं।
कमरे के भीतर गमलों में
ढेरों फूल कभी नहीं आयेंगे
एक दिन मिट्टी ही खा जाएगी
उनकी सड़ी-गली डालियाँ।
बहादुर योद्धा तलवार से नहीं
अपने पराक्रम से जीतते हैं
और बिना तलवार के भी
वे उतने ही पराक्रमी हैं।
सारे नियंत्रण को ताक़त चाहिए
और वो मैं ढूँढता हूँ अपने आप में
कहाँ है वो? कैसे उसे संचालित करूँ?
कभी हार नहीं मानता किसी का भी जीवन
वह उसे बचाये रखने के लिए पूरे प्रयत्न करता है
और मैं अपनी ताक़त के सारे स्रोत ढूँढ कर
फिर से बलिष्ठ हो जाता हूँ।
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