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न्याय-अन्याय - 04

4.

पापा बहुत अच्छे गीत लिखते थे। छोटी-मोटी कवि गोष्ठियों में आना-जाना लगा रहता था पापा का। लिख कर यहाँ-वहाँ छोड़ देते थे और मम्मी उन्हें उठा कर रख देती थीं। कई बार दीदी ने उनके लिखे कुछ गीत अपने स्कूल में गा कर पुरस्कार भी जीते थे। मधूलिका मगर कभी गा नहीं पाई। न ही उसे कभी कविता या गीतों में दिलचस्पी रही। वह कवियों को गाते सुन कर ज़ोर से हँस पड़ती थी। हर बात पर उसे अनायास ही हँसी आ जाया करती थी। किसी गंभीर चलचित्र के गंभीर दृश्य में हो रहे नाटकीयता को देख कर अचानक ही वह ठहाका लगा कर हँस उठती थी। पापा उसे डाँटते थे कि हर चीज़ का एक वक़्त होता है, हँसी और ठिठोली का भी। वह पापा की डाँट सुन कर चुप हो जाया करती थी।

आज देर तक रो कर जैसे उसे शांति मिली। माँ के बिस्तर पर माँ की गंध, पापा की याद....माँ का तकिया सीने में ले कर बैठी रही थी वह...बहुत देर तक। थोड़ी देर बाद तकिये को वापस अपनी जगह पर रखा उसने। हाथ में एक किताब की छुअन से उसकी तंद्रा भंग हुई। तकिये के नीचे से काली रंग की डायरी खींच निकाली उसने। ओह! माँ यही तो कल पढ़ रहीं थीं। क्या है उस डायरी में? उत्सुकता से उसने उस डायरी को उलट पलट कर देखा। पुरानी सी उस डायरी को उलट कर देखने में उसमें से एक छोटा सा पर्चा गिर गया। पर्चा मुड़ा हुआ था, चार हिस्सों में। उसने धीरे से उस पर्चे को खोला तो एक पेन्सिल स्केच था, किसी औरत का। उसे बहुत पहचाना सा मालूम हुआ। ’सुदर्शना’ यह तो सुदर्शना थीं। आज से १० साल पहले ऐसी ही लगती होंगी। सुदर्शना कौन है, वह तो उनके बारे में भूल ही चुकी थी। फिर से यह सवाल उसके मन पर दस्तक़ देने लगा। सुदर्शना कौन है? और यह पेन्सिल स्केच तो पापा की बनाई हुई लगती है। पापा की बनाई पेंटिंग या स्केच वह झट से पहचान सकती है। उन्हीं के साथ तो बड़ी हुई है वह। पापा ने क्यों बनाई होगी सुदर्शना की स्केच। कौन है सुदर्शना? डायरी के पहले पन्ने को खोल कर पढ़ा उसने, लिखा था- "कभी अगर हो सके तो तुम्हें ही अर्पित होगा यह, सुदर्शना- ’सुदर्शना को’।" अगला पन्ना उसने डरते-डरते खोला। पापा का कोई नया रूप स्वीकारने को तैयार नहीं था मधूलिका का मन। कौन है सुदर्शना?

डायरी के अगले पन्ने पर एक गीत था- ’गीत मेरे तुम्हें ही अर्पित...’। पूरी डायरी में कोई सौ गीत थे। पापा इतना अच्छा लिखते हैं उसने कभी सोचा नहीं था। न ही उसने कभी पापा के गीतों को ध्यान से पढ़ा था। आज पहला गीत पढ़ कर उसे पापा पर गर्व हो आया। पापा की तो किताब आनी चाहिये थी। क्यों उसने कभी ध्यान नहीं दिया? या किसी ने भी ध्यान नहीं दिया घर में? डायरी में लिखे हर गीत को पढ़ना चाहती थी वह। उत्सुकतावश उसने डायरी के सारे पन्नों को एक साथ पलटा। डायरी के आखिरी पन्ने पर एक लिफ़ाफ़ा दबा मिला उसे। पापा के नाम था लिफ़ाफ़ा। लिफ़ाफ़े को उत्सुकतावश खोला मधूलिका ने। लिफ़ाफ़े के अंदर से दो चिट्ठियाँ मिलीं उसे। चिट्ठियों को खोल कर पढ़ना चाहती थी वह। किसने लिखी होंगी यह चिट्ठियाँ पापा को? एक चिट्ठी खोल कर पढ़ने लगी वह। तीन पंक्तियों की चिट्ठी थी पापा के नाम। सुंदर मोती जैसे, थोड़े बड़े अक्षरों में लिखी हुई चिट्ठी। किसकी है? संबोधन था, ’प्रियतम’। उस चिट्ठी के आखिरी में हस्ताक्षर देख कर उसका दिल डूबने लगा। "आपकी सुदर्शना"। पापा को लिखी थी सुदर्शना ने चिट्ठी, प्रियतम के संबोधन से। एक अनजान क्रोध सा जैसे उसके दिमाग पर छाने लगा। उसने उन कुछ पंक्तियों को जल्दी से पढ़ डाला।

प्रियतम,

आपसे जाने अब मिल पाऊँ या नहीं। अरुणिमा और अरुण से हमें वह सम्मान नहीं मिल सकता जिस की हम अपेक्षा करते हैं। आपसे दूर जा रही हूँ...सच, क्या कभी जा भी सकती हूँ? मधूलिका अभी छोटी है। हमारा रिश्ता कोई भी तो नहीं समझ पाया। १६ साल की उम्र में मैं उससे यह उम्मीद नहीं करती कि वह समझे। उसे एक चिट्ठी लिखी है। जब भी उचित समझें उसे पढ़वा दें। छोटी मम्मी कहलवाने की इच्छा रह गई मेरी बच्चों से।

आपकी सुदर्शना

सुदर्शना की दूसरी चिट्ठी खोल कर जल्दी-जल्दी पढ़ने लगी मधूलिका। उसे सुदर्शना ने क्यों चिट्ठी लिखी थी? आज से १० साल पहले। उसके हाथ चिट्ठी को पढ़ते हुये अनजाने ही काँप रहे थे।

प्रिय मधूलिका,

अभी तुम छोटी हो इसलिये तुमसे कुछ कहना या तुमसे यह उम्मीद करना कि तुम इस चिट्ठी को समझ पाओगी बहुत ज़्यादा होगा। यह चिट्ठी पापा जाने कब तुम्हें पढ़वायें। हो सकता है तुम तब बड़ी हो चुकी हो।

तुम मुझे नहीं जानती हो। तुम्हारी दीदी और भैया को पता है मेरे बारे में और वे मुझे पसंद नहीं करते। मधूलिका, मैं तुम्हारी छोटी मम्मी हूँ। पापा ने मुझसे शादी की है। हाँ, तुम्हारे माँ के होते हुये भी, उन्होंने मुझसे शादी की। समाज एक ऐसी चीज़ है जो हमें मुखौटा ओढ़ने को बाध्य करती है। फिर परिवार, उनके सम्मान से ज़्यादा सबके सामने अपना सम्मान और "मेरी ज़िदंगी कितनी अच्छी है, सब पर्फ़ेक्ट है" यह दिखाने की कोशिश होती है मानव मन की सबसे पहले। मेरी ही ज़िंदगी की कमियाँ थीं कुछ, जिस वज़ह से शायद तुम्हारे पापा के साथ भावनात्मक संबंध हो गया। उनसे मिलने के बाद मुझे अहसास हुआ कि किस तरह एक ऊँचे उसूलों के पक्के आदमी हैं वे। जिस तरह तुमने अपने पापा का सम्मान किया है, मैं भी उतना ही सम्मान करती हूँ उन्हें, और यह कोई नई बात तो नहीं, उनका व्यक्तित्व ही ऐसा है। तुम्हारी माँ एक बहुत अच्छी महिला हैं, जिन्हें तुम्हारे पापा ने सम्मान किया। एक चाह रह जाती है मन की...और वही शायद पूरी हुई तुम्हारे पापा की मेरे साथ। बस इतना ही। तुम्हारे पापा के साथ मिलने के बाद कुछ स्थितियाँ ऐसी आईं कि तुम्हारे पापा ने मुझसे समाज से बाहर आकर शादी की। तुम्हारे पापा मुझे समाज में सम्मान देना चाहते थे। अगर संभव होता तो शायद मैं बाकी की ज़िंदगी उनके साथ गुज़ारती। आज यह पत्र क्यों लिख रही हूँ मैं, इसकी वज़ह है- तुम अपने पापा की ज़िंदगी में बहुत अहम हो, और तुम्हारा इस सब को जानना मुझे ज़रूरी लगता है। रिश्ता कभी समाप्त नहीं होता, न ही भावनायें मरतीं हैं।

तुम पापा की जान हो। वे कहते हैं कि उन्होंने किसी से इतना प्यार नहीं किया जितना तुमसे किया है। कभी-कभी तुम्हारी शादी हो जायेगी तो कैसे रहेंगे वो, यह भी चिंता करते हैं। और फिर यही कहते हैं कि तुम एक अच्छे घर में जाओ और ख़ुश रहो, यही उनकी ख़्वाहिश है। मैं कोई नहीं इसे कहने वाली मगर, तुम बहुत ख़ुशनसीब हो जो तुम्हें ऐसे पापा मिले। बस एक बात अगर समझ सको... कि वे पापा हैं, और अपने बच्चों के आदर्श...मगर फिर भी इंसान हैं। थोड़ी छूट तो इस बात की मिलनी चाहिये न उन्हें भी?

मेरी बहुत इच्छा थी कि तुम मेरी दोस्त बन सको। पर हमारे रिश्ते की वज़ह से शायद यह संभव नहीं। तुम मुझसे बात करोगी तो शायद तुम्हारी माँ का असम्मान हो। मगर हाँ, तुम्हें कभी लगे कि तुम मेरे से बात करके शांति पा सकती हो तो झिझकना नहीं...तुम मेरी बहुत प्रिय हो।

तुम्हारी,
छोटी मम्मी

पापा का सम्मान जैसे अचानक ही कम होता नज़र आने लगा उसे अपनी आँखों में। आज भैया के घर आने पर वह उनसे बात करेगी।

– क्रमशः

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