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न्याय-अन्याय - 08

8.

 "यह तीसरा साल था हमारे रिश्ते का। समाज की नज़रों में नाजायज़, कलंकित। उनके मुझसे शादी के वादे के दो साल पूरे हो चुके थे। मगर शादी अभी भी दूर थी, दूर कि? ...जाने कैसी-कैसी शंकाओं से मन भर उठता था। उन पर विश्वास था मगर नियति पर तो नहीं। शुभस्य शीघ्रम कहते हैं मगर यह उन्हें नहीं समझ आता था। हाँ, शादी के बिना भी हम एक दूसरे के थे। आपस में तो शादी की थी हमने। गुरुदेव का दिया सिंदूर लगाया था उन्होंने मुझे, एक बार नहीं, बार-बार...मेरे ही कहने पर, जितनी बार मिलते उतनी बार। कहीं मन को यह तसल्ली रहती है कि दुल्हन हूँ उनकी, कोई अवैध संबंध नहीं, सच्चाई है मगर एक छुपी हुई सच्चाई जिसे बारे-बार सिंदूर लगवा कर मैं सिद्ध करना चाहती हूँ। सिर्फ़ शरीर नहीं, मन, आत्मा सब उनके लिये है, उन्हीं का है। समाज में नहीं है कुछ भी मान्य, जिस स्थति में है वो या मैं। हाँ, अवैध ही तो कहलायेगा हमारा संबंध। मेरे समाज के लिये बने-बनाये एक पति हैं जिनसे मेरा कोई संपर्क नहीं है, न शारीरिक, न मानसिक। मगर साथ हैं हम। उनकी शारीरिक असमर्थता की वज़ह से हम में कभी कोई संपर्क बन ही नहीं पाया। मगर समाज में सम्मानित औरत होने का जामा ओढ़े रखा मैंने। और दोष किसे दूँ। ख़ुद ही कभी हिम्मत नहीं हो पाई कि अलग हो जाऊँ, अलग हो कर अपना अस्तित्व खोज सकूँ। वहीं, उनका अपनी पत्नी के साथ अब कोई संपर्क नहीं, न शारीरिक, न मानसिक मगर फिर भी वे साथ हैं उनके, समाज में चाचा-चाची और बच्चों के माता-पिता. बन कर। किसे पता है कि हमने शादी की है। हाँ, उनकी पत्नी और मेरे समाज के पति को पता है। हम ने ही बताया है, छुपा कर नहीं रख सके, न छुपाना चाहते थे। मगर न उनकी पत्नी ने उन्हें छोड़ा है, न मेरे पति ने। अच्छा नहीं लगता, कभी-कभी लगता है अलग ही हो जाऊँ, कैसे भी रह लूँगी, पर नहीं, मैं अकेले रह जाऊँगी...अकेले देखा है मैंने मीरा दीदी को। इस उम्र में अकेले रहती हैं, कितनी अकेली हैं। कम से कम समाज में तो हैं हम साथ जहाँ मैं अकेली नहीं हूँ। उनकी शादी-शुदा ज़िंदगी अच्छी थी। ऐसा कहते हैं वो। प्रेम नहीं हो पाया उन्हें उनकी पत्नी से मगर पत्नी के धर्म का पालन किया उनकी पत्नी ने पूरी तरह। और वासनासिक्त रातों में इनका भी पूरा योगदान रहा, दोनों के दो बच्चे हुये। भरा पूरा संसार हुआ मगर फिर भी मानसिक मिलन नहीं हो पाया उनका। कहाँ कमी रह गयी क्या मालूम। मेरी बात और थी। मेरे पति ने कभी भी पति की ज़िम्मेदारी या पति धर्म का पालन नहीं किया, नहीं कर पाये और फिर अपनी कमी को ठीक करने की कोशिश भी नहीं की। ’माँ’ कहे कोई, इस चाह में ही जीती रही। फिर धीरे-धीरे उम्र हो गई और उस चाह में दबा दर्द बीच-बीच में बाहर आने लगा, गले में जैसे एक गाँठ पड़ जाती और सब बंद हो जाता। सामने सिर्फ़ एक गहरा कुँआ...दूर तक फैला रेगिस्तान और फिर चिलचिलाती धूप में सिर्फ़ प्यास दिखती...जीवन भर की एक अनबुझी प्यास। और इसी बीच वे मिले थे, कहीं दूर से जैसे एक भीगी हवा ने छू लिया था। पहली बार मिल कर ही विधिवत शादी की थी हमने। कोई शहनाई नहीं, कोई बाराती नहीं, न ही घराती मगर उनके पूज्य गुरुदेव की तस्वीर और मेरे विश्वास के आगे हुई थी शादी। शादी के बाद मिलन भी। मिलन के बाद विरह और विरह में ब्रह्मचर्य। फिर साल में कुछ दिनों का मिलन और फिर विरह....एक नियम सा हो गया था।"

सुदर्शना....सुदर्शना....यह नाम ....ज़हर बन कर उतर गया था आरती की ज़िंदगी में। अपने पति के मुँह से ही उनकी प्रेमिका की जीवनी सुनना...उसकी सफ़ाई के किस्से सुनना... पोर-पोर में जलन और घृणा भर देता था...मगर उत्सुकता और शरीर की जलन के बीच सुनती थी वह.. चुपचाप। .."सुदर्शना गरीब घर की बेटी है... माँ-बाप ने शादी की उसकी और देखो उसका भाग्य कि फिर शादी के तुरंत बाद उसे पता चला कि उसके पति पतिधर्म का पालन नहीं कर सकते। पति को डाक्टर दिखाने में वो अक्षम रही। उसके पति अपने काम और बाहरी चीज़ों में डूबे रहते हैं। समाज और माता-पिता की सम्मान के लिये वह फिर पति को छोड़ नहीं पाई है। समाज बहुत बड़ा बंधन होता है, और औरत चाहे कितनी ही स्वतंत्र हो, उसके लिये हिम्मत कर पाना बहुत आसान नहीं होता। बाहर निकल कर अकेले रह जाने का डर इंसान को समझौते करने पर मजबूर कर देता है। फिर उन्हीं स्थितियों में वह अपने आप को ढाल लेता है और ख़ुश रह लेता है"। सिखाई-पढ़ाई बातों को एक हल्की तनी मुस्कान के साथ सुना करती थी वह...अपने पति से। सुदर्शना एक दिन के लिये भी शादीशुदा नहीं थी, इस बात पर कभी विश्वास नहीं किया था उसने। और जाने कितने झगड़ों और तनाव भरे वे २ साल। कोई ऐसा भी वादा कि बच्चों की शादी निपटा कर फिर अपने समाज में स्थान देंगे उस औरत को। दो साल का समय... । अरुणिमा के साथ भी क्या नहीं गुज़री। वह दिन जिस दिन उसने वह पत्र पढ़ लिया था उस औरत का। अरुणिमा की आत्महत्या की कोशिश और उसकी पहली मुलाक़ात उस औरत के साथ...अस्पताल में। सुदर्शना का रोना और इनका उसे सबके सामने डाँटना...कितना सुकून दे गया था उसके दिल को... कुछ अपमानजनक शब्द भी कहे थे उस औरत को। बेटी को मौत के मुँह में देख कर उस औरत पर ही उबल पड़े थे वे। आह! जलन पर ठंडक पड़ गई थी जैसे... कैसे रह पाई थी फिर भी वह औरत वहाँ? उसने भी तो अपमानित किया था पति का सहारा पा कर उसे.... उसका हाथ पकड़ कर उसे बाहर निकालने की कोशिश भी की थी अस्पताल से, मगर वह औरत नहीं गई थी वहाँ से। वह पढ़ी-लिखी और अच्छे पद पर काम करती थी मगर इस सब अपमान को सह रही थी। अगली सुबह अरुणिमा के होश आने पर ढोंग के आँसू बहा कर कह गई थी वह, "मैं माँ नहीं बन पाई इस जनम में... यही बच्चे मेरे बच्चे हैं, इन्हें कैसे दुख दे सकती हूँ मैं। एक बार अगर बच्चे मुझे माँ के रूप में अपना लें और छोटी मम्मी कह दें तो मैं कभी फिर कुछ नहीं माँगूँगी।" और उस समय उसे गाली देने में कितना संतोष का अनुभव हुआ था आरती को कि वह इस जन्म तो क्या किसी भी जन्म में माँ नहीं बन पायेगी और छोटी मम्मी तो दूर की बात उसे कोई उसके नाम से भी नहीं पुकारेगा। मगर अचरज हुआ था उसे जब ये उस औरत का हाथ पकड़ कर निकल गये थे सबके सामने से, बाहर...। क्यों? ....इतनी फटकार के बाद फिर से?..उफ़!...अपमान का घूँट पी कर रह गईं थी वह..एक आशा की किरण फिर से मिट गई थी, घुप्प अंधेरे में गुम....मगर किसी बात का ग़म नहीं था उसे, न उस औरत के अपमानित होने का, न अपने अपमानित होने का। उस औरत ने जो किया न उस का रंज रहा था अब और न ही अपने व्यवहार का। जीवन के नाटक में सब अपना-अपना किरदार निभाते हैं, कोई सही नहीं होता, कोई ग़लत नहीं। किसे दोषी ठहराया जाये? उसके बाद उनके पति दो दिन घर नहीं आये थे। सुदर्शना से फिर मुलाक़ात नहीं हुई उसकी। मगर सुदर्शना और इनके संबंध टूटे नहीं थे इसका आभास तो था ही उसे। कभी-कभी अपने ही पति से यह भी सुनने को मिलता कि उन दोनों की निभ नहीं पायेगी...ये ख़ुद ही बताते थे और उसकी उम्मीद जग जाती थी. और फिर दो दिन बाद यह सुनना कि सिर्फ़ प्रेम ही है कि मैं उसे छोड़ नहीं पाता... और यही प्रेम उसे रात भर काटता था। इस तरह की बातें किस तरह किसी बीवी को आहत करती होंगी...बीवी भी कहाँ रह गईं थी वो अब...बच्चों के लिये वे इसी घर में रहे...पर कभी नहीं आये उसके पास..."पाप तो तब होता जब मैं उसके पास भी रहता और तुमसे भी संपर्क रखता....यह पाप कैसे हुआ?" अस्पताल जाने से पहले सुदर्शना की लिखी कुछ चिट्ठियाँ दी थीं उन्होंने पढ़ने को। पढ़ने की हिम्मत नहीं थी उसकी उस समय। पति के चले जाने के बाद उसने उन्हें पढ़ा। सुदर्शना को माफ़ नहीं कर सकतीं वह, कतई नहीं....मगर....

– क्रमशः

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