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न्याय की डोर 

पंद्रह साल बाद आज जब कोर्ट में यह निर्धारित हुआ कि आज ज़मीनी विवाद का फ़ैसला रामजी के पक्ष में आया है तो यह सुनते ही रामजी की आँखों से आँसू झलक पड़े। आज उनका वनवास पूरा जो हुआ था। न्याय की लड़ाई लड़ते–लड़ते पंद्रह सावन-भादों बीत गए पर उनकी हिम्मत ने जवाब नहीं दिया और उसी का परिणाम है कि आज फ़ैसला उनके पक्ष में आया।

दुर्भाग्य की बात है कि इस अवसर पर ख़ुशी बाँटने के लिए कोई अपना साथ नहीं था। बस वकील साहब थे जो इस केस की पैरवी करने वाले चौथे और अंतिम वकील थे। उन्होंने ही अपने हाथों से मिठाई खिलाई और बधाई देते हुए कहा कि फ़ैसले की कॉपी एक दो दिन में प्राप्त हो जाएगी।

कोर्ट परिसर से निकलते हुए आज रामजी की संतुष्टि उनके चेहरे पर झलक रही थी। उन्होंने इन पंद्रह बरसों में न जाने कितने ही उतार-चढ़ाव देखे थे। कोर्ट से निकले तो आज सीधे रामजी अपने पुश्तैनी घर पँहुचे, जो शहर के पुराने इलाक़े में था। यही वह घर था जिस पर हक़ के लिए रामजी ने पंद्रह साल क़ानूनी लड़ाई लड़ी।

इन्हीं गालियों में रामजी का बचपन बीता था। इसी पुराने घर में वह ब्याह कर अपनी अर्द्धांगिनी को लाये थे। इस घर और मोहल्ले की हर चीज़ से न जाने कितनी यादें जुड़ी थीं लेकिन नौकरी के सिलसिले में दूसरे शहर जाना पड़ा पर उनका लगाव कभी इस घर से ख़त्म नहीं हुआ। 

होली, दिवाली पर अक़्सर वे इसी घर आया करते थे। रामजी के बड़े भाई श्याम इसी पुश्तैनी मकान में परिवार के साथ रहते थे। दोनों भाइयों में पारिवारिक संबंध मधुर थे, त्यौहारों पर जब रामजी सपरिवार यहाँ आते तो दोनों भाइयों के बच्चे, देवरानी, जेठानी, दोनों भाई और उनके मोहल्ले के दोस्तों का घर पे जमघट लगा ही रहता। जब भी रामजी आया करते थे तो उन दिनों घर का माहौल बड़ा आनंदमय रहता। 

अपनों के बीच रहकर जो सुख मिलता है वह और कहीं नहीं है, इसी भावना ने रामजी को दूसरे शहर में रहने के बावजूद अपनी जड़ों से आजतक जोड़े रखा था।

समय के साथ-साथ अपने पुराने घर आने का सिलसिला बहुत कम हो गया। बच्चे बड़े हुए तो नौकरी और शिक्षा के अवसरों के चलते वह अन्य शहरों में जा बसे तो अब त्यौहारों और छुट्टियों में वह अपने घर आते तो रामजी को अपने पुश्तैनी घर आने का मौक़ा कहाँ से मिलता। 

धीरे-धीरे आना-जाना भी छूट सा गया। बड़े भाई श्याम जी को लगने लगा कि रामजी अब वहीं रहेंगे उनका यहाँ आना नहीं होगा। अब बड़े भाई ने अपनी सुविधानुसार पुश्तैनी मकान में कई सुधार करवा लिए और जर्जर हो चुके ढाँचे को नए और आधुनिक रूप में ढाल दिया।

अब केवल शादी-ब्याह जैसे अवसरों पर ही रामजी का आना होता था। वक़्त बीतता रहा और जीवन की आपाधापी और ज़िम्मेदारियाँ निभाते-निभाते कब सिटिज़न, सीनियर सिटिज़न हो जाता है उसे पता ही नहीं चलता। ज़िंदगी के इस पड़ाव पर जब व्यक्ति मुड़कर अपनी जीवन यात्रा पर नज़र डालता है तो पाता है कि पूरा जीवन चक्र ही दूसरों के लिए जीते-जीते बीत गया; ख़ुद के लिए तो कभी कुछ किया ही नहीं।

बस अब रामजी के रिटायर्ड होने में कुछ ही महीनों का समय बचा था। अपनी पारिवारिक ज़िम्मेदारियों से वह निवृत्त हो ही चुके थे। अब बस अंतिम पड़ाव आत्मशांति से पूरा करना चाहते थे। जो उन्हें पुश्तैनी स्थान पर ही मिल सकती थी। जब बच्चों ने रिटायर्ड होने के बाद अपने साथ चलने को कहा तो उन्होंने साफ़ कह दिया कि मैं तो अपना आगे का जीवन अपने शहर में अपने लोगों के बीच ही बिताऊँगा।

रिटायर्ड होने के बाद जब रामजी अपने मन में वहीं बसने का विचार लिए पुश्तैनी घर पहुँचे तो देखकर हैरत में रह गए। अब वहाँ अच्छी ख़ासी बिल्डिंग थी। बड़े दिनों बाद रामजी को देखकर भाई ने बड़ी ख़ुशी के साथ उनकी आवभगत की। 

रामजी इंतज़ार में ही थे, सही समय और मौक़ा देखकर रामजी ने कह ही दिया कि अब मैं रिटायर्ड हो गया हूँ और बच्चे भी अपने-अपने जीवन में मस्त हैं और उस पराये शहर में मन लगता नहीं है। सोचा है आगे का जीवन यहीं अपने लोगों के बीच रहेंगे।

श्याम को रामजी की बातों से अंदाज़ा हो गया था कि वह अपना हक़ माँगना चाहता है। श्याम ने स्पष्ट रूप से कह दिया कि इस पुरानी इमारत को नया रूप हमने अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई लगा कर दिया है और इतने सालों से तो रामजी ने कभी पुश्तैनी घर की ओर ध्यान दिया नहीं; अब एकदम से अपना हक़ जताने आ गया। रामजी का इस मकान पर कोई हक़ नहीं बनता।

बस यही वह दिन था जब से रिश्तों में खटास आई और इस बातचीत के दौरान ही तनातनी तक हो गयी। इसके बाद रामजी ने कई बार कोशिश की कि बातचीत से बात बन जाये पर शायद ये मुमकिन नहीं था। अंतत: रामजी को कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाना पड़ा। 

पत्नी और बच्चों ने रामजी को समझने के प्रयास किये कि कोर्ट कचहरी में कुछ नहीं रखा है, अगर चाहें तो उसी शहर में ही दूसरा मकान ले लेते हैं, पर रामजी के लिए वह जगह जिससे उनका जुड़ाव था, उसका मोल अन्य किसी मकान से अधिक था। उन्होंने हर प्रस्ताव को नकारते हुए कोर्ट में मुक़दमा दायर कर दिया।

दूसरे शहर से हर तारीख़ पर तथा इस मामले से जुड़े छोटे-मोटे क़ानूनी कार्यों के लिए आना कठिन होता था। इस कारण से इसी शहर में एक किराये का मकान देख लिया और पत्नी के साथ वहीं रहने लगे। अब ये लड़ाई हक़ और न्याय की लड़ाई बन चुकी थी।

 रामजी को न्याय मिलने का पूरा भरोसा था। हमारी न्याय व्यवस्था तो ऐसी ही है  जिसमें न्याय मिलना तो तय है पर कब और कितना समय लगेगा इसकी गारंटी तो स्वयं भगवान भी नहीं दे सकते। अंतहीन दिखती प्रक्रियाएँ, काग़ज़ों पर काग़ज़, फ़ाइलों पर फ़ाइलें बढ़ती चली जाती हैं। तारीखों की दौड़ में विश्वास और हिम्मत दोनों जवाब देने लगते है। कई तकलीफ़ों और कठिन दौर रामजी के जीवन में भी इस यात्रा के दौरान आये पर उन्हें डिगा न सके।

हाँ, पर इस दौरान पत्नी के इंतकाल ने उन्हें सबसे ज़्यादा हतोत्साहित किया। उसके बाद से उनके जीवन का जैसे रस ही चला गया हो। अब तो बस भगवान ने जितनी साँसें लिखी थी उनका हिसाब तो बराबर करना था बस। अच्छा होगा अगर जीते जी न्याय मिल जाये और अंतिम दिन पुश्तैनी मकान में कटें यही इच्छा बाक़ी रह गयी थी अब रामजी की।

आज केस जीतकर  वह अपने पुश्तैनी आवास पहुँचे। उस मकान का वह हिस्सा लेने जिस पर वह अपना हक़ ज़ाहिर करते थे और जिसके लिए पंद्रह साल उन्होंने जतन किया था। अबकी बार साथ में कचहरी का फ़रमान था। उनके केस जीतने की सूचना शायद उनके आने से पहले ही पहुँच चुकी थी इसलिए उनके हिस्से का कमरा ख़ाली कर दिया गया था।

कब से इस पल के लिए उत्साहित रामजी किराये के मकान से सामान समेट कर शाम तक अपने पुश्तैनी आवास आ गये। रामजी व्यवाहारिक और सुलझे हुए व्यक्ति थे। किराये के जिस मकान में वह रहते थे वहाँ आसपास के लोगों से भी उनका अच्छा मेल-जोल था। सभी ने उन्हें वहाँ से जीत की बधाइयाँ देते हुए ख़ुशी-ख़ुशी विदा किया।

आज न जाने कितने सालों बाद रामजी चैन की नींद सोने वाले थे। अभी तो सारा सामान भी ढंग से व्यवस्थित भी नहीं किया था पर दिन भर की थकान के कारण जल्द ही बिस्तर लगा कर सो गये। आख़िर उनके लिए तो आज दोहरी ख़ुशी का मौक़ा था, एक तो न्याय की प्राप्ति और दूसरी सालों बाद आत्मशांति।

दोपहर होने को आई पर जब रामजी के उस कमरे से कोई हलचल नहीं सुनाई दी तो भाई श्याम के परिवार वालों की भी बेचैनी बढ़ने लगी तो दरवाज़ा खटखटाया गया। कोई जवाब न आने पर ज़ोर ज़बरदस्ती दरवाज़ा खोला गया तो पाया जो रामजी रात को सोये वह सुबह  उठे ही नहीं।

उसी रात उनकी साँसों का हिसाब बराबर हो गया था। उनकी साँसों की डोर शायद न्याय मिलने की उम्मीद से ही जुड़ी थी जो न्याय प्राप्ति के साथ ही टूट गयी।

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