ओ मेरे...
काव्य साहित्य | कविता कामिनी कामायनी15 Oct 2016
उसने उस पर
मुट्ठी भर के मिट्टी फेंकी
बंद कर गया था दरवाज़ा
बाहर की गली का
गुमसुम बैठे टॉमी की
रोटी वाली कटोरी भी फेंक दी
न जाने कहाँ खो दिया था बॉल
टेबल घड़ी टुकड़ों में नीचे फैली थी
और फैले थे फर्श पर
बेतरतीब से किताबें कापियाँ
कलर्स पेंसिल रबर मिटकौना
जूते टिफिन बॉक्स
सुना रही थी जब वो कहानी
झकझोर सी गई भरभराती मेरी आँखें
मुझे भी बच्चों का
वह मासूम बचपन ले गया था
खींच कर हाथ यह दिखाने
कि कैसे टूटते हैं
जज़्बात
मासूमियत के हर पल
इस बेरहम सी दुनिया में।
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