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पाना क्या है

सुबह के दस बज रहे थे पर शम्मी अब तक बिस्तर में अलसाये पड़ी थी। उसका पति ‘अनिमेश’ कल रात ही से अपने “ऑफ़िशियल टूर”  पर बंगलोर गया हुआ था। शम्मी आज ऑफ़िस नहीं गई थी। तभी अचानक मोबाईल पर “वाणी” नाम दिखते ही शम्मी ने झट सशंकित मन से फोन उठाया। 

“हेलो, शम्मी दी, कहाँ हो? मैं आपसे अभी, इसी वक़्त मिलना चाहती हूँ, अर्जेंट!” उधर से वाणी, शम्मी की छोटी बहन की आवाज़ आयी।

शम्मी याद करने की कोशिश करने लगी कि पिछ्ले बार वाणी से कब बात हुई थी? शायद ड़ेढ़ साल पहले जब वाणी ने वी.पी. कम्पनी के एम.डी. से चुपके से शादी तय कर ली थी और शम्मी ने शिकायत की तो उसने उसे डाँट दिया था कि यह उसकी निजी ज़िंदगी का फ़ैसला है और उसे (शम्मी) को  कुछ कहने का कोई हक़ नहीं है क्योंकि वह ‘महज़’ उसकी बड़ी बहन है! शम्मी ग़म खा कर चुप रह गयी थी; पर आज यह क्या हुआ था – वाणी का स्वर बदला–बदला सा था!

“दी, तुम सुन रही हो ना प्लीज़, मैं बहुत मुसीबत में हूँ… मुझे पता है कि तुम मुझसे नाराज़ हो पर, आख़िर मैं तो तुम्हारी छोटी बहन हूँ: और परेशानी में मुझे तुम्हारे सिवा कोई सही रास्ता नहीं दिखा सकता…प्ली...ई...ज़्ज़…”

“वाणी, मैं आज घर पर हूँ, थोड़ी तबियत ठीक नहीं थी, सो ऑफ़िस नहीं गई..."

शम्मी के मन में कितनी ही स्मृतियाँ विचरण करने लगीं! वो बचपन की बातें, वो मम्मी-पापा का प्रोत्साहन, पढ़ाई में उसका हमेशा अव्वल आना और छोटी बहन का इस बात पर कुछ-कुछ जल जाना… पढ़ना शम्मी को प्रिय था क्यूँकि उसके ज्ञान चक्षु खुलते थे, दुनिया भर की जानकारी प्राप्त होती थी। शम्मी बड़ी संतान थी, उसकी आँखों ने माता-पिता का संघर्ष देखा था, उसके हृदय ने उनका दर्द महसूस किया था और इसलिये शम्मी पढ़-लिख कर कुछ बनना चाहती थी। ईश्वर ने उसे कुशाग्र बुद्धि से भी नवाज़ा था और विशाल हृदय भी दिया था। उसके व्यवहार, संस्कार, सौम्यता और पढ़ाई में सदा अव्वल आना – एक प्रकार से उसे “मोस्ट-वांटेड”, “मोस्ट- डीज़ाएरेबल” लड़की की फ़ेहरिस्त में ला दिया था! वाणी उसकी छोटी बहन थी और उसके इस क़द से उसे बहुत ईर्ष्या होती थी। मगर शम्मी के मन में वाणी के प्रति बहुत स्नेह था तथा वह उसे उसकी पढ़ाई-लिखाई और करीयर में बहुत मदद करती थी! देखते ही देखते शम्मी ने राज्य आयोग की प्रतियोगी परीक्षा उत्तीर्ण कर ली और उसकी अपने ही शहर में नौकरी लग गयी। इधर छोटी बहन वाणी ने बैंक की परीक्षा में सफलता पायी और उसकी भी एक सहकारी बैंक में पदस्थापना हो गयी। दोनों बहनें सफल थीं मगर शम्मी का रुतबा, और नाम ज़्यादा चर्चित रहता। इसी बीच शहर के एक प्रसिद्ध होटल व्यवसायी के विदेश से लौटे पुत्र, जो एमबीए करके लौटा था, उसने शम्मी से विवाह का प्रस्ताव किया। शम्मी अपनी नौकरी में लगातार मेहनत कर आगे बढ़ रही थी और विवाह के लिये उत्सुक न थी, पर मम्मी-पापा के “इमोशनल-ब्लैकमेल” से अंततोगत्वा शादी के लिये राज़ी हो गयी। ख़ूब धूमधाम से बारात आयी और सबसे ‘नगीना’ लड़की "शम्मी” को दुल्हन बना कर ले गये वाणी के जीजाजी- अनिमेश! वाणी एक बार फिर अपनी ही दीदी से हारी हुई महसूस करने लगी...।

एक दिन वाणी के बैंक में एक नौजवान ख़ूबसूरत सा ग्राहक आया, उसने पचास लाख रुपये अपने एकाउंट में जमा करवाने के लिये वाणी को दिए। वाणी उस नौजवान की शालीनता पर इतनी मोहित हो गयी कि उससे शाम को मिलने का अनुरोध कर बैठी! नौजवान ने भी वाणी की मासूम-सी चाहत को सहज स्वीकार करते हुए, शाम को उसके बैंक के सामने रेस्तरां में मिलने का वादा कर गया। दिन भर वाणी रुमानी ख़यालों में खोयी-खोयी किसी तरह बैंक की ड्यूटी ख़त्म होते ही भागे-भागे उस रेस्तरां पर पहुँच गयी ताकि उस नौजवान को इंतज़ार ना करना पड़े...।

थोड़ी देर में जब सुनहरे रंग की मर्सीडीज़ कार से उसी नौजवान को वाणी ने रेस्तरां के सामने उतरते देखा, तब तक वाणी का दिल उसके नियंत्रण से निकल चुका था और मस्तिष्क इस निर्णय तक पहुँच गया था कि हर हाल में इसी को अपना जीवन-साथी बनाना है...! 

“हेलो, मैं  अनिरुद्ध! वी.पी. कम्पनी का ‘एम.डी.’! हाऊ आर यू? सौरी, मुझे थोड़ी देर हो गयी, एक मीटिंग की वज़ह से।“ 

उसने वाणी से हाथ मिलाया तो वाणी जैसे उसके हाथ को थामे हुए एकटक देखती ही रह गयी और उसके हाथ को थामे ही रही…

”यू मस्ट हैव हैड अ वेरी स्ट्रेस्फ़ुल डे... आई नो, बैंक जौब इज़ सो टफ़।”

... यकायक वाणी को ख़याल आया तो हड़बड़ा कर हाथ छोड़ते हुए उसने कहा, “आप मैंनेजिंग डैरेक्टर हैं?” अचरज से भरी हुई और मन ही मन अपने फ़ैसले पर इतराते हुए फिर उसने कहा, “अरे नहीं, मैं तो मामूली-सी अफ़सर हूँ, आप मेरे एक अनुरोध पर अपना सब काम छोड़ कर आ गये, मैं आपका यह एहसान कभी नहीं चुका सकूँगी...।”

अनुभवी अनिरुद्ध वाणी की मनोदशा को समझ गया था… अब उसने वाणी का हाथ थामते हुए बड़े प्यार से कहा, “अरे नो, नो...व्हट इज़ योर नेम?”

”वाणी, वाणी मेरा नाम है,”...वाणी ने झट से कहा तो अनिरुद्ध ने आगे कहना शुरू किया…

”हाँ तो वाणी, राइट? वी आर फ़्रेंड्स!” फिर धीरे से उसके कान के पास आ कर उसने कहा, “वाणी, अगर तुम चाहो तो हम हमेशा के साथी, मतलब “जीवन-साथी” बन सकते हैं... मेरे भी माँ-बाप चाहते हैं कि मैं अब शादी कर लूँ और तुमसे अच्छी कौन होगी? ना जाने क्या कशिश थी तेरी बातों में कि मैं दिन भर तुझको सोचता रहा! प्लीज़ डोंट माईंड… मुझे घुमा-फिरा के बातें करनी नहीं आतीं… आई एम अ स्ट्रेट्फ़ोर्वर्ड पर्सन! अगर मेरी कोई बात बुरी लगी हो तो माफ़ करना!" 

“मगर आप आज ख़ुद बैंक क्यों आये थे? शायद मेरे ही लिये, मेरी क़िस्मत बनाने के लिये?" 

जब वाणी ने पूछा तो उसने जवाब दिया कि, दरअसल मुझे बैंक मैनेजर से अपनी कम्पनी के एक्स्पेंशन के लिये लोन की बात करनी थी। तो चलते-चलते पचास लाख रुपये थे सोचा जमा करा दूँ...और वहीं आपसे, नज़रें टकरा गयीं…।

वाणी ने टोका, “आप नहीं, तुम कहिये, आप प्लीज़ मुझे तुम ही कहिये, मुझे नहीं पता था मैं जो सपने देखती थी, वो इस तरह से सच होंगे… मुझे आपका प्रस्ताव मंज़ूर है।”

...फिर चट मंगनी, पट ब्याह के तर्ज़ पर वाणी अनिरुद्ध की हो गयी! शादी में शम्मी दीदी को एक क्षण के लिये भी अपने एम.डी. पति की दौलत, रुतबे, शान का बखान करना नहीं भूलती थी वाणी! शम्मी की भी तरक्क़ी हो गयी थी और वो उप-ज़िलाधिकारी बन चुकी थी। उसके पति ने गोवा में  एक नए रेसोर्ट का शानदार उद्घाटन, बड़े-बड़े नेताओं और फ़िल्मी सितारों के बीच करवाया था। कुल मिला कर दोनों बहनें सफल थीं, मगर शम्मी बिल्कुल ”डाउन टू अर्थ” थी। उसके चहरे पर लेश मात्र भी इस बात का कोई अहंकार नहीं झलकता था। जबकी वाणी अपनी हर उप्लब्धि पर गर्व करने से नहीं चूकती! वह क़िस्मत, तक़दीर...इन शब्दों को बकवास कहती थी और कहती थी हर व्यक्ति अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है... कहती, “मैंने जो भी चाहा उसे पाने के लिये अपनी एड़ी-चोटी एक कर दी, तब जा कर पाया!"

वाणी के पति यद्यपि सफल उद्योगपति थे मगर उनका स्वभाव शम्मी से मिलता-जुलता था। वाणी को जब महसूस हुआ कि उसके पति शम्मी दीदी के व्यवहार से बहुत प्रभावित हुए तो उसने शम्मी दीदी से ज़ोरदार झगड़ा कर लिया और कहा कि वो उनसे अब कभी बात नहीं करेगी! बिन बात के इस सज़ा से शम्मी हतप्रभ रह गयी...। ख़ैर इस सदमे के साथ ही वो वापस अपने पति और काम के पास लौट गयी।

आज अचानक वाणी को क्या हो गया फिर...?

शम्मी ने स्वयं को संयत किया। उठकर चेहरा धोया, बाल सँवारे- फिर वह रसोई में ब्रेड-रोल्स बनाने मे लग गयी। वाणी को ब्रेड रोल्स नाश्ते में बचपन से ही बहुत पसंद थे, धनिये की चटनी के साथ! फिर वह वेनिला कस्टर्ड तैयार कर, सेब काटने बैठ गई। इतने में  ही दरवाज़े की घंटी बजी और दरवाज़े पर वाणी हाज़िर! 

क़रीब ड़ेढ-दो साल बाद अपनी एकमात्र प्यारी छोटी बहन को देख शम्मी ख़ुश तो बहुत थी पर वो अपने मन के भावों को छुपाये बस वाणी को एकटक देखती रही। वाणी झट से उसके गले लिपट कर बोली, “शम्मी दी, अंदर चल! मुझे तुमसे ढेर सारी बातें करनी हैं, मेरे पास बहुत कम समय है।" 

शम्मी ने कहा, “तुझे तो हमेशा जल्दी रहती है। अब शादी के बाद कुछ तो स्पीड कम कर अपनी, कुछ तो बदल!”

“...अरे कहाँ! अब तो और भी वक़्त कम है, अब तो और भी दुगनी स्पीड से चलना होगा!”

शम्मी ने एक ग्लास पानी उसके हाथ में थमाते हुए कहा, “माई डीयर वाणी, तुझे ’ध्वनि’ मचाने के लिये पहले गला तर करना पड़ेगा, और चल! मैंने तेरे पसंदीदा ब्रेड-रोल्स बनाये हैं। गरम-गरम ब्रेड-रोल्स खाते-खाते ही मैं तेरी बात सुनूँगी।" 

बचपन में वाणी ख़ुद को ‘ध्वनि’ कहती थी, उसे बिना कारण शोर करना पसंद था... वाणी ने कहा, “दी, अब तू कहाँ मिलती है, जो शोर/ध्वनि मचाऊँ? अब तो सिर्फ़ काम, काम, ब्लड-प्रेशर, तनाव, डीप्रेशन...उफ़्फ़!"

दोनों नाश्ते के टेबल पर बैठ गयी।

“दीदी, मुझे भूख नहीं है, तू मेरी बात सुन, प्लीज़,” वाणी ने कहा।

“मुझे तो बहुत भूख लगी है,” शम्मी ने ब्रेड-रोल्स और चटनी प्लेट में डाल कर वाणी की ओर बढ़ाते हुए कहा, “हाँ , अगर तू मेरे हाथ के बने रोल्स नहीं खाना चाहती तो अलग बात है। तू बोलती जा, मैं सुन रही हूँ...।”

वाणी ने झट से एक ब्रेड-रोल मुँह में दबाते हुए कहा, “वाह! क्या बात है!...दी, तू मुझसे नाराज़ है? तूने अब तक मुझे माफ़ नहीं किया है?” झटपट दो रोल्स खाने के बाद वाणी ने  फिर कहा, “दी, तू जानती है कि ब्रेड-रोल्स मेरा फ़ेवरिट और सबसे पसंदीदा है! एनीवेज़, ख़ैर... मैं… तू, तू आज ऑफ़िस नहीं गई? क्यूँ?”

“तेरा भी तो ऑफ़िस खुला होगा अभी,” शम्मी ने बातों का रुख मोड़ा तो वाणी ने सफ़ाई दी। 

“वो मुझे... हाँ, मैं शाम को जाऊँगी, एक क्लाएंट से मीटिंग है होटल ताज में तो सोचा तुमसे भी मिल लूँ।" 

“पर फोन पर तेरी आवाज़ कुछ घबरायी हुई-सी थी, बता क्या अरजेंसी थी? और तुम्हारे पति… क्या नाम है?…” शम्मी दिमाग़ पर ज़ोर डालने लगी, “... हाँ, अनिरुद्ध!" 

वाणी ने झट से कहा, “वो ठीक है, ऑफ़िस गया है, अपने कुलाबा वाले ऑफ़िस पे गया है आज।"

“सौर...री, मुझे उसका नाम याद नहीं रहता, असल में तुम कभी उसको लेकर मेरे पास आयी भी तो नहीं शादी के बाद से अब तक…,” शम्मी ने शिकायत की। 

“असल में दीदी,” वाणी मुद्दे पर आने लगी थी‌। “मैं प्रेग्नेंट हूँ,” वाणी ने स्पष्ट किया, “और यही अर्जेंट बात करनी थी मुझे! बता, मैं क्या करूँ? बहुत परेशान हूँ, प्लीज़ कुछ कर…।” 

वाणी बोले जा रही थी और शम्मी ख़यालों में कहीं खोये जा रही थी – शादी के चार साल बाद यकायक उसका गर्भवती होना, और पति ‘अनिमेश’ को हर्षित होकर यह ख़बर सुनाते ही अनिमेश का अत्यंत परेशान होना…। फिर अनिमेश का सारी परिस्थिति का हिसाब-किताब देकर उसे गर्भपात के लिये राज़ी करवाना...। डॉक्टर… क्लिनिक… गर्भपात… मानसिक… शारीरिक दुर्बलता… जिसके कारण वो आज ऑफ़िस नहीं जा सकी थी! अनिमेश ने ही उसे आश्वस्त कर दिया था कि वो अभी बच्चे का ख़तरा नहीं उठा सकते क्योंकि शम्मी की नौकरी से छुट्टी लेने से उसका वित्त सचिव वाला प्रोमोशन नहीं हो पायेगा और विदेश से उसके नये प्रोजेक्ट में निवेश करने वाले भी शायद अपना हाथ खींच लें! अपने नये बंगले की किश्त भरने में भी मुश्किलें आ सकती हैं... फिर बच्चे का ख़र्च भी  कुछ कम है आजकल क्या? पूरी तरह से “सेटल”...सम्पन्न होने पर ही इस बारे में सोचेंगे! और वैसे भी अभी पूरी उम्र पड़ी है! कौन से दस होने हैं, एक ही तो बच्चा चाहिये! कभी भी...।  

वाणी ने शम्मी को झिंझोड़ते हुए कहा, “दी, तुम सुन रही हो न? कुछ कहो…”

अनिमेश और अनिरुद्ध… शम्मी-वाणी...हाय! ईश्वर ने भी क्या उलट जोड़ी बनायी? शम्मी सोचने लगी, फिर बोली, “हाँ बता! तू क्या कह रही थी? क्या अनिरुद्ध…?”

”नहीं-नहीं, नहीं दी, अन्नी को तो इस बारे में कुछ भी नहीं मालूम… वो तो ख़ुशी से पागल हो जायेगा, अगर उसे पता चल गया कि मैं माँ बनने वाली हूँ...। समस्या तो मेरी है… मुझे अगले महीने न्यूयार्क जाना है जहाँ एक बड़े अनुबंध पर हस्ताक्षर करना है…! ये काम हो जाने पर मैं अपनी ख़ुद की कम्पनी खड़ी कर लूँगी और अनिरुद्ध से भी ज़्यादा पैसे कमाऊँगी! जहाँ तक मेरे महान पति महोदय की बात है तो वो चाहते हैं कि मैं आराम से घर बैठूँ और वो जब ऑफ़िस से आये तो मैं “भारतीय नारी” की तरह, गर्म-गर्म चाय-नाश्ता लेकर उसका स्वागत करूँ......ओ शिट!! मुझसे यह सब उम्मीद करता है? पर क्या मैं इतनी बेवकूफ़ हूँ जो कि करीयर के इस मुक़ाम पे, मैं उस ‘जस्ट टेन क्रोर’...सिर्फ दस करोड़ के कम्पनी के मालिक के आगे घुटने टेक दूँ? नो, नो, नेवर, कभी नहीं!"

“एक... एक मिनट,” शम्मी ने टोका, “तुम्हें ‘भारतीय नारी’ से इतनी चिढ़ क्यों है? क्या तुम ‘भारतीय’ नहीं हो और क्या तुम एक ‘नारी’ नहीं हो?”

“मेरा मतलब...,” वाणी सफ़ाई देने लगी… “मैं तुम जैसी तो बिल्कुल नहीं हो सकती कि जैसे पति नचाये, वैसे नाचूँ! पति को मेरे अनुसार चलना होगा! वैसे तुम तो कभी ऐसी मुसीबत में फँसी नहीं हो- अपनी नौकरी में तरक्क़ी पे तरक्क़ी कर रही हो, तुम मेरी स्थिति कैसे समझोगी?” 

“पर तुमने तो बहुत प्रोग्रेस किया है, अब तो तुम मैनेजर हो बैंक में...!”

“मैनेजर...? इससे क्या होता है दीदी, जब तक बैंक के “मालिक” ना हो...। तुम भी दीदी... अनिरुद्ध की तरह मत बात करने लगना...। वो वी.पी. कम्पनी के दस से बीस करोड़ टर्नओवर से ही ख़ुश है… कहता है, बस इतना हम दोनों के लिये काफ़ी है। दी, तुम और जीजाजी कितने प्रोग्रेसिव माइंड के हो, ‘दिन दूनी, रात चौगुनी’ तरक्क़ी किये जा रहे हो और एक ‘अन्नी’। ...ख़ैर, मैं उसके बारे में ज़्यादा नहीं कहना चाहती... मैंने एक पार्टी से डील किया है। वो फ़ोरेन इंवेस्टर है... मुझे फ़िफ़्टी पर्सेंट पार्टनर बनाने को तैयार है अपनी अगले प्रोजेक्ट में...। मगर इसके लिये मुझे न्यूयार्क जा कर डील साईन करनी होगी। आई कांट लेट गो ऑफ़ दिस चांस...। मैं अपना गर्भपात करवा लूँगी, बस!” वाणी ने एलान कर दिया और शम्मी फिर मौन हो कर ख़यालों में खो गयी...।

शम्मी और वाणी- दोनों बहनें, एक ही माँ-बाप के संतान, दोनों कुशल, तेज़, बुद्धिमान, साहसी, चतुर...!  दोनों की तक़दीर कितनी समान! एक “शम्मी”- शमन करने वाली, सब कुछ चुपचाप सहन करने वाली; एक “वाणी”- हर अभिव्यक्ति को बुलंद स्वर देने वाली… पर इस विषमता में भी कितनी समानता है! चाकू खरबूजे पे गिरे या खरबूजा चाकू पर, कटता तो खरबूजा ही है! दोनों ही परिस्थिति में कष्ट तो नारी को ही होना है! शम्मी गहन सोच में पड़ गयी।

वह अच्छी तरह जानती थी कि वाणी बहुत ही अड़ियल एवं ज़िद्दी लड़की है और वो उसे बहन कम, प्रतियोगी अधिक मानती है। बचपन में जब शम्मी पढ़ाई में अव्वल आती थी और वाणी बहुत ही कम अंक लाती थी, और पापा शम्मी को अधिक प्यार जताते तो वो चिढ़ जाती और कहती- “तूने पापा को भी साज़िश करके मुझसे छीन लिया, गंदी दीदी!" बाद में जब वाणी ने चुनौती स्वीकार कर हर क्लास में प्रथम आना शुरू किया तो तब शम्मी की बधाइयाँ भी उसे जले पे नमक छिड़कने जैसी लगती थीं! आज वाणी लगभग दो साल बाद आयी थी मिलने! एक ही शहर में रहने के बावजूद भी इतनी दूरियाँ- शम्मी की लाख कोशिशों के बाद भी कम न होती थीं…।  ऐसे में शम्मी, वाणी को अपनी अनुभव और विद्वता का कोई प्रमाण- सलाह के रूप में देगी तो वाणी फिर भड़क/बिदक जायेगी। कुछ न कहना और सहज मौन स्वीकृति ही सबसे अच्छा उपाय था, इस समय!

वाणी धीरे-धीरे बड़बड़ायी, “मैं अबोर्शन करवा लूँगी” परन्तु उसने स्पष्ट स्वर में पूछा, “तो क्या फै‌सला किया दी?” 

शम्मी मौन रही। वाणी ने जब दो–तीन बार पूछा तो बहुधा शांत रहने वाली शम्मी लगभग चीत्कार कर उठी, “फ़ैसला? कैसा फ़ैसला? मैं क्या फ़ैसला करूँगी? फ़ैसला तो हो चुका है। हम सब जन्म से ही अपनी-अपनी तक़दीरों को ले कर चलते हैं! एक तू है कि तेरे पति चाहते हैं कि तू थोड़ी नौकरी से आराम करे और माँ बने… एक मैं हूँ कि मैं माँ बनना चाहती हूँ नौकरी छोड़कर- घर सँभालना चाहती हूँ- पर मेरे पति ऐसा नहीं चाहते! तू इसलिये नौकरी करना चाहती है कि तू एक सफल, कुशल, अमीर उद्यमी बन कर, पुरुषों- ख़ास कर, अपने पति को नीचा दिखा सके! तुझे बच्चे भी रुकावट लगते हैं, अपनी महत्वाकांक्षा के राह में! पर इन सब का परिणाम क्या?  यह सब किसके लिये? “जाना कहाँ है, पाना क्या है”? इसके लिये तुम कितना मूल्य चुका रही हो? उधर तुम्हारा पति भी ख़ुश नहीं होगा जब उसे यह बात मालूम होगी। सफलता मूल्य माँगती है... ये मैं जानती हूँ, पर जब तुम “सब कुछ” पा लोगी तो उस दिन यह ख़ुशी तुम किसके साथ बाँटोगी? तुम्हारी “उपेक्षा का दर्द”, क्या तुम्हारे अपनों को तुम्हारी सफलता पे वो ख़ुशी दे पायेगा जिसके बारे में तुम अत्यधिक आश्वस्त, ”ओवर कोंफ़िडेंट” हो? शायद ऐसा भी हो कि तुम फिर कभी माँ नहीं बन सको दोबारा!”

“क्या बक रही हो दीदी,” वाणी ने प्रतिकार किया। 

“बक नहीं रही हूँ वाणी, यही कड़वा सच है! मैं स्वयं अभी डाक्टर के यहाँ से अपना गर्भपात करवा कर आ रही हूँ क्यूँकि मेरे पति नहीं चाहते कि अभी बच्चे का झंझट मोल लें! मैं आज इसलिये ऑफ़िस नहीं गयी क्योंकि मेरी तबियत ख़राब लग रही थी!

“एक तू है कि इस माँ बनने की ख़ुशी को अपने करीयर पे क़ुर्बान कर देना चाहती है! वैसे तू हर मामले में मुझसे ज़्यादा समझदार है, ज़्यादा “सफल!" मनपसंद करीयर, मनपसंद जीवन-साथी, घर, पैसा… सब कुछ, और सबसे बड़ी बात, अपनी शर्तों पे सदा जीवन जीया है तूने! मेरे लिये तो यही बहुत है कि तू, मुझे अपनी बड़ी बहन समझकर, ‘तेरा’ जब मन किया, जब भी जी चाहा, मुझसे मिलने तो आई हो! और मैं क्या तुझे सलाह दूँ? तू अब बड़ी हो गयी है, तूने तो अपने सारे निर्णय स्वयं ही लिए हैं!”

शम्मी जानती थी कि वाणी को अपनी बातों से आश्वस्त करना सम्भव नहीं और किसी भी क़ीमत पर वाणी अपनी महत्वाकांक्षा से समझौता नहीं करेगी, और शायद वह फिर उससे भी दुबारा मिलने को भी नहीं आये… पर ये क्या…!

अचानक वाणी “धम्म” से सोफ़े पे बैठ गई और जैसे ही शम्मी ने उसका हाथ पकड़ा तो वाणी, शम्मी के गले लिपट कर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी।

”दीदी, तुमने पहले क्यों नहीं बताया… तुम भी… कैसे इतना सब ज़ब्त…,” वह सिसकने लगी। शायद अपनी परेशानियों से ज़्यादा अक्सर दूसरा व्यक्ति परेशान होता है, इस एहसास ने वाणी को अंदर तक उद्वेलित कर दिया...।

शम्मी टीवी ऑन कर वाणी के बगल में बैठ गई। समाचारों में… ”मिल गये राम”, लंका, पुष्पक विमान की तकनीक, आदि पर चर्चा हो रही थी… एक वैज्ञानिक डॉ. त्रिपाठी बतला रहे थे कि पदार्थ विज्ञान पे शोध के अनुसार, संसार के सभी भौतिक और निर्जीव तक कहे जाने वाले पदार्थ में भी संवेदना पाई जाती है।

 शम्मी ने आह भरी- हे भगवान! निर्जीव पदार्थ में भी संवेदना है...। और संवेदंशील माने जाने वाले प्राणी- मनुष्य में...? ...अब मनुष्य केवल पदार्थवादी हो गया है!...”संवेदना”...ये मनुष्य में ही कहीं खो-सी गई है! न मालूम उसे जाना कहाँ है ,”पाना क्या है”?

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