अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

पानी का घड़ा 

देश-विभाजन का फ़ैसला हो चुका था। पंजाब में भयानक मार-काट मची हुई थी। जान बचाने के लिए लोग, देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से की ओर भाग रहे थे। ऐसे ही लोगों से भरी हुई एक रेलगाड़ी अपनी रफ़्तार से आगे बढ़ती जा रही थी। उस गाड़ी के दहकते इंजन का धुआँ, उसमें भरी लोगों की आहों का धुआँ बनकर पीछे की तरफ़ उड़ता जा रहा था। रावलपिंडी, झेलम पीछे छूट चुके थे, गाड़ी गुजरात ज़िले में प्रवेश कर रही थी। भेड़-बकरियों की तरह ठसाठस भरे उस गाड़ी के डिब्बे में लोगों का प्यास से मारे बुरा हाल हो रहा था। किसी भी स्टेशन पर पानी लाना ख़तरे से ख़ाली नहीं था। जिसने भी ऐसा प्रयास किया वह वापिस नहीं आया था। इस संकट की घड़ी में भी एक महानुभाव पानी के पूरे भरे एक घड़े पर साँप की तरह कुंडली मारे बैठा था। वह अपने परिवार के अलावा किसी को एक घूँट पानी भी नहीं दे रहा था। पानी का घड़ा साथ ले आने की अपनी होशियारी पर पर फूले नहीं समा रहा था। एक माँ अपने बच्चे को उसी का पेशाब पिलाने की कोशिश कर रही थी। वह बच्चा, ललचाई हुई नज़रों से उस घड़े की ओर देखते हुए, रो-रोकर सूख चुके गले से बड़ी मुश्किल से बोल पाया, “मैंने मूतर नहीं पीना . . . पानी पीना”। 

उस बच्चे पर भी उसे तरस नहीं आया। अचानक लाला मूसा स्टेशन से कुछ पहले एक वीरान जगह पर गाड़ी के ब्रेक लग गए। गाड़ी के रुकते ही, तेज़धार वाले हथियारों के साथ कई आतातायी उस गाड़ी के डिब्बो में घुस गए। बड़ी भयानक दिल दहला देने वाली चीख़-पुकार  के बाद जब वह डिब्बा शांत हो गया; तो उन ज़ालिमों ने उसी घड़े के पानी से अपनी प्यास बुझाई। अंतिम साँसे ले रहा उस घड़े का मालिक उन दरिंदों की तरफ़ याचना भरी निगाहों से देखते हुए, घुटी हुई आवाज़ में बोला, “पानी . . . !”

जिसे सुनकर उनमें से एक ने वही घड़ा उठाकर उसके सिर पर दे मारा। और हँसते हुए बोला, “मैंने इन लोगों की मुर्दे के सिर पर घड़ा फोड़ने वाली रस्म अदा कर दी।”

फिर वे सभी ज़ोर-ज़ोर से ठहाके लगाकर हँसते हुए उस डिब्बे से नीचे उतर गए।
 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा

ग़ज़ल

कविता

सांस्कृतिक कथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं