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पगड़ी 

रचना समीक्षा: पगड़ी का दार्शनिक चिंतन – डॉ. पद्मावती
रचना समीक्षा: धीमे स्वर में गहराई से बोलती कहानी – अंजना वर्मा

 

हरभजन सिंह बेचैन थे। उनकी बेचैनी उनके कमरे की दीवारों को भेदती हुई पूरे घर में पसर रही थी। यहाँ तक नीचे रसोई में काम कर रही उनकी बहू गुरप्रीत भी उसे महसूस कर सकती थी। गुरप्रीत भी सुबह से सोच रही थी कि ऐसी कौन सी बात है जो कि दारजी को इतना परेशान कर रही है और वह उसे कह नहीं पा रहे हैं। घर में भी तो कुछ ऐसा नहीं घटा जो दारजी को बुरा लगा हो। वैसे भी उनकी आदत तो इतनी अच्छी है कि कोई भी ऊँची-नीची बात हो जाए तो वह बड़ी सहजता से उसे एक तरफ़ कर देते हैं और अपने परिवार की शान्ति में कोई अन्तर नहीं आने देते। आज तो अभी तक नाश्ता करने के लिए भी नीचे नहीं आए . . . सुबह के दस होने को थे। आमतौर पर तो वह स्वयं, बेटे निर्मल के काम पर जाने के तुरंत बाद नीचे आ कर रसोई में ख़ुद चाय बनाने लगते हैं। कोई दूसरा उनका काम करे, उन्हें अच्छा नहीं लगता। लेकिन आज . . . कहीं तबीयत तो ढीली नहीं उनकी? 

कल शाम को जब वह बचन अंकल से मिल कर लौटे थे तो कुछ चुप से थे। कहीं उनके साथ तो कुछ कहा-सुनी तो नहीं हो गई . . .? पर . . . गुरप्रीत ने यह विचार तुरंत की नकार दिया। बचन अंकल तो बहुत ही हँसमुख हैं और वह तो दारजी के, देखा जाए . . . इकलौते मित्र हैं। नहीं . . . उनके साथ तो कुछ नहीं हुआ होगा। तो फिर . . .? 

गुरप्रीत से और नहीं रहा गया। उसने बनी हुई चाय को कप में डाला और नमक-अजवायन का पराँठा बनाया; एक ट्रे में डालकर ऊपर ले आई। उसे आशा यह भी थी शायद दारजी का एकान्त टूटे तो वह अपनी बेचैनी की वजह बता पाएँ। हरभजन सिंह ने जब गुरप्रीत के क़दमों की आवाज़ सीढ़ियों में सुनी तो अचानक उसे आभास हुआ कि कितना समय हो चुका था। कुछ ग्लानि भी हुई कि उनकी बहू को बेकार में ऊपर आना पड़ रहा है। वह एकदम पलंग से उठे और कमरे के दरवाज़े पर ही गुरप्रीत से ट्रे पकड़ कर कहने लगे, “बच्ची, नीचे से ही आवाज़ दे दी होती। मैं चला आता, ऐसे ही ऊपर आना पड़ा तुम्हें।” 

“नहीं दारजी, इसमें कौन सी परेशानी की बात है। आप नीचे नहीं आए तो सोचा कि पूछूँ आपकी तबीयत तो ठीक है न?” 

“नहीं, नहीं ऐसा तो कुछ नहीं है," “कहते-कहते हरभजन सिंह ने अपने आपको को सँभाला। उन्हें लगा कि अगर गुरप्रीत ने उसकी बेचैनी की वजह पूछ ली तो वह बता नहीं पाएँगे और झूठ वह बोल नहीं सकते थे। बात को बदलने के लिए उन्होंने कहा, “बेटी, ट्रे को मेज़ पर रख दो मैं अभी हाथ धो लूँ,”कहते-कहते वह कमरे से निकल कर बाथरूम की ओर बढ़ गए। गुरप्रीत भी समझ गई कि बात इससे आगे नहीं बढ़ेगी और वह चुपचाप नीचे आकर फिर रसोई में व्यस्त हो गई। कम से कम दारजी की सेहत तो ठीक थी।

हाथ-मुँह धोकर जब तक हरभजन कमरे में लौटे तब तक गुरप्रीत नीचे जा चुकी थी। नाश्ता करते हुए कल बचन सिंह के साथ हुई बातचीत और उसकी हरकतें उनके दिमाग़ में घूमने लगीं। बचन सिंह ने जो कल उनसे कहा क्या वह तर्क-संगत है? घर-परिवार में रहने वाला बुज़ुर्ग क्या वह सब कुछ कर सकता है; चाहे उसका जितना भी जी करे? क्या इससे कोई मर्यादा भंग नहीं होती? दूसरी ओर उनके मन से एक दबी सी आवाज़ भी उठ रही थी—इसमें हर्ज़ ही क्या है? आख़िर वह भी इंसान हैं, कोई देवता तो नहीं! उम्र बढ़ रही है तो क्या . . . इसकी दलीलें भी तो बचन ने दीं थी। कोई ग़लत तो नहीं कह रहा था वह . . . फिर दूसरी आवाज़ उठी . . . अपनी सफ़ेद दाढ़ी तो देख। इसके खिंचवाने का इरादा है क्या . . .? अचानक हरभजन सिंह कह उठे, “नहीं, नहीं . . . मैं ऐसा कुछ भी नहीं करूँगा।” 

अपने निर्णय पर उन्होंने चैन की एक साँस ली और नाश्ता खाने में व्यस्त हो गए। नाश्ता समाप्त होने पर उन्होंने सोचा कि इससे पहले गुरप्रीत फिर ऊपर ट्रे उठाने आ जाए, स्वयं नीचे जाना ही ठीक होगा।

नीचे जाकर उन्होंने चुपचाप रसोई के मेज़ पर ट्रे रख दी। गुरप्रीत ने बिना नज़र उठाए ही देखा कि दारजी समाचार पत्र उठा कर बिना उसे कुछ कहे, बाहर डेक पर जा बैठे हैं। यह उनकी रोज़ की दिनचर्या थी पर आज की तरह, कभी गुरप्रीत से बिना बात किए बाहर नहीं जाते थे। गुरप्रीत हैरान थी कि आज दारजी उससे नज़र मिलाने से भी क्यों बच रहे थे। 

हरभजन ने केवल दिखाने भर के लिए समाचार पत्र खोला हुआ था। वास्तव में अभी भी वह कल की बचन से हुई भेंट के बारे में ही सोच रहे थे। 

वह दिन में सैर करते हुए कई बार अपने मित्र बचन सिंह से मिलने चले जाते थे। बचन सिंह एक कार गेराज में कार मकैनिक था। कल भी और दिनों की तरह हरभजन जब कार गैराज पहुँचे तो बचन सिंह एक कार की ब्रेक ठीक कर रहा था। कार हाइड्रॉलिक लिफ़्ट पर ऊपर उठाई हुई थी और बचन सिंह कार की दूसरी ओर काम करते हुए मस्ती भरे गाने गा रहा था। उसे हरभजन के वहाँ पहुँचने का अभी आभास नहीं हुआ था। हरभजन कुछ समय तो गाना सुनते हुए मुस्कुराते रहे। जब उन्हें लगा कि बचन बहुत मस्ती में है तो उन्होंने ही उसे पुकारते हुए कहा, “बचन बहुत मस्ती में लग रहा आज, ऐसा क्या हो गया जो इतना ख़ुश है?” 

“अरे भजन! मुझे तो पता ही नहीं चला तू कब आया?” उसने कार के नीचे से झाँकते हुए कहा और फिर से अपने काम में व्यस्त हो गया। हरभजन सिंह ने हमेशा की तरह से कुर्सी को सरकाया और उस पर बैठकर बचन के काम के निपटने की प्रतीक्षा करने लगे। अभी एक-दो मिनट ही बीते थे कि गैराज के मालिक ने हरभजन सिंह के हाथ में एक कॉफ़ी का कप थमाते हुए कहा, “अंकल जी न जाने क्या हुआ है बचन अंकल को; आज सुबह से ही ऐसी मस्ती चल रही है।” 

कार-गैराज का मालिक अपने ही गुरद्वारे की संगत में से था और कभी-कभी बुज़ुर्गों की सहायता के लिए उन्हें नौकरी भी दे देता था। बचन सिंह की नौकरी का भी यही कारण था। उसके लिए काम के नियम बहुत ढीले थे। दोनों ही ख़ुश थे। बचन सिंह के हाथ में चार पैसे आते और उसे लगता कि उसका जीवन आज भी सार्थक है और मालिक को लगता कि वह समाज के बड़े-बूढ़ों की पीड़ा को कुछ कम कर रहा है। 

हरभजन ने कॉफ़ी का पहला घूँट भरा ही था कि बचन का गाना फिर शुरू हो चुका था। हरभजन ने एक बार फिर बचन को पुकारते हुए कहा, “बस कर बचन बहुत हो गया और बेसुरा नहीं सुन पाऊँगा। मुझे यहाँ से भगाने का इरादा है क्या?” 

बचन ने फिर कार से नीचे से झाँकते हुए कहा, “सच मान भजन मैं तो कल लाहौर देख आया।” 

हरभजन को उसकी बात समझ में नहीं आई, “कैसी अटपटी बात कर रहा है बचन, कैनेडा में तू लाहौर देख आया?” 

बचन सिंह ने इस बार बिना नीचे से झाँके ही कहा, “भजन याद है बचपन में बुज़ुर्ग कहा करते थे कि जिसने लाहौर नहीं देखा वह जन्मा ही नहीं।” 

“हाँ, वह तो सुना था, पर तेरी बात का तुक समझ नहीं आ रहा।” 

“समझ जाएगा प्यारे जब तू भी देखेगा जो मैंने देखा है—सब समझ जाएगा,” बचन फिर से चहका। 

“क्या देख लिया तूने जो इस उमर में आकर फिर से जन्मा है?” हरभजन सिंह को समझ नहीं आ रहा था कि बचन की बातों पर वह झल्लाएँ या हँसें। 

इस बार, बचन एक कपड़े से अपने ग्रीस से सने हाथों को पोंछता हुआ हरभजन के पास आया। उसके चेहरे पर शरारत भरी कुटिल सी मुस्कान बिखरी और उसने हरभजन की और झुकते हुए एक आँख दबाते हुए कहा, “कल ज़िन्दा डांस देख कर आया हूँ प्यारे!” 

“बचन तेरी बातें मेरी समझ से तो बाहर हैं, क्या हो गया है तुझे आज; पहेलियों में बातें कर रहा है।” 

“यार तू न जाने कैसा मास्टर रहा होगा . . . कोई बात तुझे एक बार में समझ ही नहीं आती,” बचन कुछ झल्ला सा गया। उसने ग्रीस से लिपटे कपड़े को कोने में पड़े ड्रम में दूर से ही फेंका। लौटकर हरभजन की ओर देखने तक उसकी झल्लाहट समाप्त हो चुकी थी। उसने एक रहस्यमयी मुस्कान हरभजन की ओर फेंकी और वह दो क़दम बढ़कर हाइड्रॉलिक लिफ़्ट के खंभे से लिपट कर कमर मटका-मटका कर नाचने का प्रयत्न करने लगा। फिर उसने पलट कर हरभजन से कहा, “ऐसा डांस!” 

भारी शरीर और खुली सफ़ेद दाढ़ी वाले व्यक्ति को इस तरह से कमर मटकाते हुए देख, हरभजन की हँसी नहीं रुक रही थी। एक-दो पल के बाद जब हरभजन सँभले तो उन्होंने फिर से एक बार अपनी नासमझी प्रकट की। बचन को लगा कि इस सीधे-सादे हरभजन को दीन-दुनिया का कुछ पता ही नहीं है। इसे तो सब कुछ स्पष्ट ही बताना पड़ेगा। उसने एक और कुर्सी हरभजन के पास सरकाई और आगे झुकते हुए धीमे स्वर में पूछा, “भजन कभी तूने स्ट्रिपटीज़ के बारे में सुना है।”

अब हरभजन को बचन की हरकतें कुछ-कुछ समझ आने लगीं थीं। उन्होंने ने भी उतनी धीमी आवाज़ में उत्तर दिया, “हाँ, पर . . . तू . . .?” 

“अब समझा तू . . .!” बचन की बाँछे खिल गईं। उसने फिर उसी रहस्यमय ढंग बात आगे बढ़ाई, “तू जानता है न अगली सड़क पर जो क्लब है, कल दोपहर उसी में गया था।” 

हरभजन लगभग भौंचक्के से बचन के चेहरे को देख रहे थे। मन में सैंकड़ों प्रश्न उठ रहे थे। बचन ने भी उनके चेहरे को पढ़ा, “हैरान न हो भजन, यह तो यहाँ आम बात है। सभी जाते हैं, सभी देखते हैं, सभी आनन्द उठाते हैं . . . ऐसी कोई भी अजीब बात नहीं जो मैं भी देख आया। सच कहता हूँ भजन, तू भी हो आ एक बार।” 

हरभजन की ज़ुबान पर तो ताला सा लगा हुआ था। बचन ने अपनी बात को जारी रखा, “देख भजन, हम दोनों ने अपनी जवानी तो अपने मुल्क में ही बिता दी। अब इस उमर में कम से कम आँखों से तो मज़ा उठा ही सकते हैं,” कहते-कहते बचन के चेहरे पर कुटिल मुस्कान फिर से खेल रही थी। 

“यह क्या किया तूने बचन? इस उमर में ऐसी बात? कोई देख सुन ले तो सारी उमर की कमाई इज़्ज़त एक पल में मिट्टी में मिल जाए। क्या सोचा था तूने?” 

“हाँ, बहुत दिनों तक सोचा था,” बचन सिंह कुछ गम्भीर हो गया था। “देख भजन तू और मैं एक ही काम के लिए यहाँ पर बुलाए गए थे। तेरे बेटे और मेरे बेटे ने अपने बच्चों को पालने के लिए हमें बुलाया था। तू ख़ुशक़िस्मत निकला कि दो फूल सी पोतियों के बड़ा होने के बाद तेरे बेटे और बहू ने तुझे नहीं दुत्कारा। पर मुझे तो मेरे अपने बेटे ने ही . . .” कहते-कहते बचन की आवाज़ काँपने लगी। उसने आगे झुक कर हरभजन कि कुर्सी के हत्थे का सहारा लिया, अपने आपको सँभाला, “घर से निकाल दिया। भला हो इस . . . इस जवान का जिसने गुरद्वारे में मेरी कहानी सुनी और पनाह दी। जुग-जुग जिए मेरा यह पुत्तर!” उसकी आँखें  डबडबा रही थीं और वह ऑफ़िस में काम करते हुए मालिक की ओर देख रहा था।

“वही तो कह रहा हूँ बचन। जो तेरे साथ हुआ, बुरा हुआ। पर अब तो सोच . . . तेरी यह हरकत किसी को यहाँ या गुरद्वारे में पता चली तो?” 

“चलने दे . . . अब ज़िन्दगी के और कितने दिन बाक़ी हैं! अब तो सोच लिया है भजन कि जितना समय बाक़ी बचा है; दिल भर के जियूँगा—गोरों की तरह!” कहते-कहते लगा कि बचन सिंह दो पल पहले वाली संजीदगी से कोसों दूर चला गया है। अलमस्त . . . बेपरवाह . . . वही शरारत भरी मुस्कुराहट होंठों पर फिर खेलने लगी। पीछे को होकर उसने अपनी पीठ कुर्सी से कुछ इस तरह टिकाई जैसे कोई महाराजा अपने सिंहासन पर बैठा हो। अपनी दाहिनी मूँछ को ऐंठते हुए उसने हरभजन से प्रश्न किया, “बता हरभजन, भाभी को गुज़रे कितने बरस बीत गए?” 

“पाँच साल,” हरभजन का संक्षिप्त उत्तर दिया। 

“मेरी घरवाली को गए भी तक़रीबन इतनी ही देर हो चुकी है—और जानता है कि हम कर क्या रहे हैं?” उसकी नज़रें गहराई से हरभजन के चेहरे को टटोल रही थीं। 

“तेरी बात नहीं समझा मैं,” हरभजन ने कहा। 

उसका उत्तर सुन कर बचन ज़ोर से हँसा, “कहा था न, तू रहा वही मास्टर का मास्टर! सारी उमर एक ही पाठ पढ़ता और पढ़ाता रहा है। कभी अपनी किताब से बाहर भी झाँक कर देख,” व्यंग्य में शुरू की हुई बात लगभग आवेश की सीमा तक पहुँच रही थी। “दुनिया क्या कहेगी इसी डर से रँडुए बन कर घूम रहे हैं हम दोनों। क्या हमें पूरी ज़िन्दगी जीने का कोई हक़ नहीं,” बचन के स्वर में क्रोध और बेकार होते जीवन की कुंठा टपक रही थी। हरभजन अवाक्‌ बचन को देख रहे थे—क्या हो गया था बचन को आज। एक ही दिन में उस स्ट्रिप-बार में क्या देख आया था वो कि उसके सभी आदर्श बदलने लगे थे। 

बचन ने फिर से बात का छोर पकड़ा, “हम दोनों की जगह कोई गोरे होते तो अब तक कब से शादी कर चुके होते। अगर शादी नहीं तो कम से कम गर्ल-फ्रेंड तो ज़रूर होती। एक बात तो है उनमें कि दुनिया के डर से जीना नहीं छोड़ जाते वो। और हमारे यहाँ—पति-पत्नी में एक मरा तो दूसरा ज़िन्दा लाश समझ लिया जाता है। कहते हैं कि बड़ी तरक़्क़ी कर ली है हमने . . . ख़ाक की है,” बचन का ग़ुस्सा फिर बढ़ रहा था। 

हरभजन ने बात का रुख़ मोड़ने के लिए कहा, “यार सुन, इस उमर में शादी कर भी लें तो क्या? क्या करेंगे हम अपनी बीवियों का?” 

“गोरे क्या करते हैं . . .? कभी उस नीली गोली के बारे में सुना है . . . हम भी प्यारे फिर से जवान हो जाएँगे,” बचन सिंह फिर से पुराने रंग में लौट आया था। वह अपनी कुर्सी से उठा और उसने मेज़ से एक औज़ार उठाते हुए कहा, “भजन मेरी बात मान, एक बार देख आ तू भी। सच कहता हूँ फिर से जीना सीख जाएगा।” 

“रहने दे मेरे भाई; जैसा भी हूँ ठीक हूँ, “हरभजन ने बात को टाला।

“फिर वही ज़िद। सोचना, अगर मन बदल जाए तो कहता हूँ कि दिन में दो बजे के क़रीब जाना। बाद में अपने जवान भी वहाँ पहुँचने लगते हैं। पहचाना गया तो तेरी मुसीबत हो जाएगी, मेरा तो न कोई आगे है और न पीछे, मेरी तो भली-चलाई,” कहते हुए बचन एक बार फिर कार के दूसरी तरफ़ जा कर आँखों से ओझल हो गया। हरभजन कुछ समय तक वहीं बैठे बचन की दलीलों को सोचते रहे। उन्होंने फिर घड़ी देखी, घर लौटने का समय हो रहा था। वह उठे और उन्होंने बचन की ओर मुस्कुराते हुए देखा और बाहर की ओर चल दिए। पीछे से बचन ने आवाज़ दी, “भजन कल देख कर आना फिर उन गोरियों की बातें करेंगे!”

उसकी खी-खी की हँसी हरभजन ने भी सुनी पर वह पलटे नहीं। बस चलते गए अपने घर की ओर। 

 

जो बीज बचन ने उनके ख़्यालों में रोपा था, वह अंकुरित होने का प्रयत्न कर रहा था। बचन का प्रश्न बार-बार उनके अन्तर्मन में कौंध रहा था—“कितनी देर हुई है भाभी को गुज़रे . . .। क्या हमें पूरी ज़िन्दगी जीने का कोई हक़ नहीं?” सच में हरभजन स्वयं यह प्रश्न कई बार एकान्त में कर चुके थे। दिन तो दैनिक जीवन की व्यस्तता में निकल जाता था। जीवन का एकाकीपन रात के सन्नाटे में पहाड़ सा बोझ बन जाता था। उन्हें याद है कि उसके गुज़र जाने के बाद बरसों बिस्तर पर हरभजन एक ही बाजू सोते थे। रात को कई बार अनजाने में जब उनका हाथ साथ के ख़ाली तकिए पर लगता तो जो हूक उनके मन में उभरती थी; वह हूक उनकी नींद उस रात के लिए उड़ा देती थी। इस ख़ालीपन का समाधान न जाने उन्होंने कितनी बार रात के अँधेरे में टटोला था . . . पर यह अँधेरा तो असीम था; उसमें कोई राह नहीं दिखाई देती थी। इस उम्र में रात को साथी की आवश्यकता तो केवल जीवन की पूर्णता का आभास देती है। चाहे रात को कम्बल के लिए खींचातानी हो या खर्राटों का शिकवा-शिकायत। हरभजन कितनी कमी महसूस करते थे केवल इस छोटे से आभास के लिए। बचन की बातें उन्हें तर्कसंगत लगने लगीं थीं। 

घर लौटने के बाद भी हरभजन यही प्रश्नों के उत्तर अपने अन्दर ढूँढ़ते रहे थे। जिस मर्यादा को निभाने के लिए वह एकाकी जीवन जी रहे थे, वही मर्यादा ने उन्हें बाध्य कर रखा था कि वह एकाकी ही उत्तर भी ढूँढ़े। हरभजन सिंह की चुप्पी का यही कारण था। 

 

घर के पिछवाड़े में धूप का तीख़ापन बढ़ने लगा था। हरभजन ने घड़ी देखी। साढ़े ग्यारह होने को आए थे। उन्होंने समाचार पत्र समेटा, रसोई में आकर ब्रेकफ़ास्ट टेबल पर रखा और अपने ही ख़्यालों में खोए हुए सीढ़ियाँ चढ़कर अपने कमरे में आ गए। सामने की खिड़की में खड़े हो लॉन में उगे हुए मेपल के पेड़ को देखने लगे। क्या देख रहे थे और क्या ढूँढ़ रहे थे–शायद उनकी चेतना नहीं जानती थी पर अवचेतन अवश्य ही उनकी दुविधा का समाधान खोज रहा था। अचानक वह बोल उठे–एक बार तो जाना ही पड़ेगा। बचन की बातों की तह को तो छूना ही होगा। हरभजन ने निर्णय ले लिया था कि वह भी आज बचन की बात मान कर देखेंगे। हरभजन ने दराज में से अपने कपड़े निकाले और नहाने चले गए। चुपचाप ही दोपहर का खाना खाया और आँखें बन्द कर टीवी के सामने बैठे रहे। गुरप्रीत ने भी उनसे कुछ नहीं पूछा। डेढ़ बजे के क़रीब हरभजन ने जूते डाले और वहीं से ही गुरप्रीत को आवाज़ देकर कहा कि वह गुरद्वारे जा रहे हैं। गुरप्रीत को लगा कि शायद अपनी परेशानी का हल ढूँढ़ने ही दारजी गुरद्वारे जा रहे होंगे। उसने भी दूर से ही कहा, “दारजी, बाबाजी से मेरी नौकरी की अरदास करना मत भूलना।” 

“बेटी मैं तो हर साँस में अपने बच्चों की ख़ैरियत ही माँगता हूँ,” कहते हुए हरभजन जल्दी से बाहर निकल गए। उनके मन में छिपा चोर गुरप्रीत से नज़रें चुराने के लिए मजबूर कर रहा था। 

 

स्ट्रिप क्लब के दरवाज़े तक पहुँचते ही रास्ते भर का अपराध बोध ग़ायब हो चुका था। अब हवस उनकी मानसिकता पर हावी हो चुकी थी। शीशे के दरवाज़े पर अन्दर की ओर से काला रंग करने के कारण वह दर्पण की तरह चमक रहा था। अपनी छवि को अन्तिम बार हरभजन ने देखा और दरवाज़े को खोल वह अन्दर चले गए। सामने ही लम्बे से डील-डौल वाला आदमी खड़ा था। उसकी टाई इस तरह से फँस रही थी कि मानो उसका गला घोंट रही थी, सूट के बटन इस तरह से खिंचे हुए थे कि अब टूटे कि तब टूटे। उसने हरभजन को अभिवादन किया और दूसरा दरवाज़ा खोल दिया। दूसरा दरवाज़ा खुलते ही एयरकण्डीशन की हवा का ठंडा झोंका एक मादकता को लिए हुए हरभजन के अन्दर तक उतर गया। शराब, परफ़्यूम, सिगरेट और सिगार की मिली-जुली गंध संगीत की लहरी पर इतरा रही थी। वह अन्दर गए, एक पल के लिए ठिठक गए, बहुत अँधेरा लगा उन्हें। हल्की रोशनी के लिए जब आँखेंं अभ्यस्त हुईं तो उन्हें दिखा कि जहाँ वह खड़े थे वहाँ से हॉल दो हिस्सों में बँटता था। एक हिस्सा स्टेज के चारों तरफ़ फैला था। दूसरा हिस्सा स्टेज से थोड़ी दूरी पर एक सीढ़ी चढ़कर था। शायद इसलिए कि पीछे बैठने वालों को भी बिना रुकावट के ठीक से दिख सके।

वह स्टेज से दूर, कोने की एक मेज़ पर जाकर बैठ गए। स्टेज अभी ख़ाली थी। संगीत की हल्की धुन वातावरण को मादक बना रही थी। स्टेज नीली, जामुनी-सी रोशनी में नहा रही थी। उनके बैठने के थोड़ी देर के बाद वेट्रस आई तो उन्होंने एक बीयर का ऑर्डर दिया और तुरंत ही बीयर आ भी गई। वेट्रस ने मेज़ पर ही पैसों का हिसाब-किताब किया और अपनी टिप का धन्यवाद देकर चली गई। कुछ समय के बाद स्पीकर पर अगले डांस की घोषणा हुई। एक नवयौवना गोरी चमकीले वस्त्र पहने स्टेज पर मादक धुन पर मस्ती में झूमने लगी। पहली धुन समाप्त होते-होते वह अपने ऊपरी कपड़े उतार चुकी थी। दूसरी धुन के समाप्त होते होते वह आधी निर्वस्त्र थी और तीसरी पर पूरी। कामुक भाव-भंगिमाओं और बीयर की चढ़ती हल्की सी ख़ुमारी में हरभजन सिंह वास्तविकता से कोसों दूर अपनी जवानी की ऊँचाइयों को छू रहे थे। उन्हें बचन का हर शब्द सच्चा और अपना तर्क थोथा लगने लगा। दूसरा डांस शुरू होने तक उनकी दूसरी बीयर भी मेज़ पर आ चुकी थी। हरभजन शराब पीने के अभ्यस्त नहीं थे। उनके लिए तो एक ही बीयर की बोतल काफ़ी थी। दूसरी बोतल तक तो नशे में हर चीज़ हल्की सी तैरती दिखाई दे रही थी। अपना घर-परिवार, अपना समाज अपनी मान-मर्यादा का कोई अर्थ नहीं रह गया था इस शराब और शबाब के नशे में। तीसरे डांस से पहले स्पीकर फिर आवाज़ उभरी–दोस्तो! आज का विशेष उपहार–ताज महल के देश से प्रस्तुत है राजकुमारी! अचानक हरभजन सिंह वास्तविकता की दुनिया में लौट आए। मन में अपार उत्सुकता जागी कि यह कौन हो सकती है? 

अगली धुन शुरू होते ही एक भारत-वंशी नवयौवना मादक थिरकन लिए स्टेज पर झूम रही थी। हरभजन सिंह तन कर बैठ गए। रंग बदलते स्टेज के प्रकाश में वह गहरी निगाह से उसे पहचानने का प्रयत्न रहे थे। नशे के कारण निगाहें टिक नहीं पा रहीं थीं। एक-एक करके वह अपने कपड़े उतार कर स्टेज के आसपास बैठे मर्दों पर फेंक रही थी। जिसके हाथ में वह कपड़ा आता, वह उठ कर उसे चूमता हुआ झूमने लगता। हरभजन को लगने लगा कि वह लड़की स्वयं नहीं बल्कि यह मरद ही उसके कपड़े उतार रहे थे। किसकी लड़की हो सकती है . . .? प्रश्न बार-बार गूँज रहा था। वातावरण में छाई कामुकता और शराब के नशे ने सब कुछ धुँधला कर दिया था। जब वह नाचती-नाचती स्टेज के कोने पर बैठ कर थिरकती थी तो कोई युवक उठ कर उसकी जाँघ पर बँधे रिबन में डॉलर खोंसता; वह धन्यवाद करती हुई उस युवक की आँखों में आँखेंं डाल कर सारी कामुकता ढाल देती। पैसे देने वाला मुस्कुराता हुआ अपनी कुर्सी में ढेर हो जाता। 

हरभजन यह सब देखते हुए भी इसमें ही खोए थे—कौन है यह? क्यों कर रही यह सब कुछ? जब तक कोई गोरी नाच रही थी तो उससे तो कोई रिश्ता नहीं था . . . पर यह तो अपनी है . . .! क्यों . . .? हरभजन वास्तविकता की दुनिया में लौट रहे थे। पहली धुन ख़त्म होते ही उन्होंने पूरे हॉल में नज़र दौड़ाई। कोई भी परिचित नहीं दिखा। इसका चिंता अभी तक तो उन्हें नहीं हुई थी तो अब क्यों? उनकी चिन्ता बढ़ती गई। दूसरी धुन शुरू हो चुकी थी . . .। हरभजन अब तक जान चुके थे कि धुन के कौन से भाग में कौन सा कपड़ा उतरने वाला है। वह इस सबसे अब दूर जा रहे थे। बार-बार उस स्टेज पर थिरकती लड़की के बारे उठ रहे प्रश्न उनका नशा उड़ा रहे थे। हॉल में फैली शराब की गंध उनका दम घोंटने लगी थी। धुन के अन्तिम चरण में जैसे ही नवयौवना ने अपनी ब्रा को खोलने के लिए हाथ उठाए, हरभजन एक ही झटके में उठ खड़े हुए। नहीं . . . वह यह नहीं देख सकते थे। कोई और होता तो दूसरी बात थी . . . पर यह . . . यह तो मेरी पोती भी हो सकती है! नहीं . . . नहीं . . . यह नहीं!! वह जितना शीघ्र हो सके उतना शीघ्र ही यहाँ से दूर हो जाना चाहते थे। बचन को यह सब अच्छा लगता हो—लगे! वह तो ऐसे नहीं—उनकी जीवन की मान्यताएँ इतनी सस्ती नहीं! 

वह लगभग भागते हुए सीढ़ी उतरते हुए फिसले और गिरते-गिरते बचे। अगर वह डील-डौल वाला नवयुवक न होता तो वह अवश्य ही गिरते। इस हड़बड़ाहट में उनकी पगड़ी खुल कर नीचे जा गिरी। उन्होंने जल्दी से झुक कर उसे समेटा और अपनी बाँहों में भर लिया। वह पहलवान-से दीखने वाले युवक ने खी-खीकर हँसते हुए उनके लिए बाहर का दरवाज़ा खोल दिया। 

हरभजन तेज़ी से क़दम भरते हुए इस जगह से पल भर में ही दूर हो जाना चाहते थे। चलते-चलते वह पगड़ी बाँधने की चेष्टा कर रहे थे। अपने आदर्शों के थोथेपन और मूर्खता पर अपने आप को कोस भी रहे थे। कुछ दूर जाने पर उन्हें आभास हुआ कि इस हालत में घर कैसे जा सकते हैं? पगड़ी की हालत देख कर अगर गुरप्रीत ने कुछ पूछ लिया तो क्या उत्तर देंगे अपनी बहू को? वह वापिस क्लब की ओर लौट आए। क्लब की खिड़की में अपनी छवि को देख अपनी पगड़ी बाँधते हुए लगा कि खिड़की में उनकी नहीं, किसी और की छाया है। वह अपने नहीं, किसी और के पगड़ी बाँध रहे हैं। कुछ संयत होकर एक बार फिर घर की और चले। अपराध-बोध उनको बुरी तरह से कचोट रहा था। कुछ क़दम चलने के बाद उनके क़दम स्वतः गुरद्वारे की ओर हो लिए। अब गुरद्वारे जाना उनके लिए आवश्यक हो गया था।

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टिप्पणियाँ

अमरजीत कौंके 2020/07/01 07:16 PM

बहुत कमाल की कहानी.....

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