पहली मुलाक़ात
काव्य साहित्य | कविता अनिल खन्ना15 Oct 2019
कैसे भूल सकता हूँ
हमारी पहली मुलाक़ात की
वो हसीन शाम।
वक़्त जैसे ठहर गया था
गले में उतर आई थी
दिल की धड़कन।
धौंकनी की तरह
चलने लगी थी साँस।
होंठ हिल रहे थे
लेकिन शब्द गुम थे।
जुहू बीच की
गीली रेत पर नंगे पाँव
ख़ामोश चलते हुए,
एक दूसरे मे सिमटते हुए
हमने कितना कुछ
कह दिया था,
सुन लिया था।
अठखेलियाँ करतीं
समुन्द्र की लहरें आ कर
हमारा अभिनंदन करतीं
और पाँव चूम कर लौट जातीं।
आस-पास गुज़रते लोगों की आवाज़ें
दूर से आता हुआ एक मद्धम शोर बन गईं,
पता ही नहीं चला कब
सुहानी शाम रात मे ढल गई।
उस रात की कभी सुबह न हो
बस यही दुआ करता रहा।
और
उस रंगीन मुलाक़ात के सुनहरे पल
एक - एक कर के
बटोरता रहा।
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