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पहलवानी का शौक़

पहले के ज़माने में जिम वग़ैरह तो थे नहीं। वर्जिश के लिए देशी अखाड़े थे। मामा के गाय का दूध भरपूर था। पहली बार अखाड़े गया; अखाड़ा उज्जैन में मक्सी रोड पर था। अखाड़ा बहुत ही बड़ा था। जगह-जगह रस्से लटक थे, कुश्ती लड़ने के लिए लाल मिट्टी का अखाड़ा था। दंड-बैठक के लिए आईना लगी व्यवस्था, मलखम्ब आदि के साथ एक छोटा सा हनुमान मंदिर भी अंदर बना हुआ था। 

अखाड़े के नियम होते हैं। जो पहलवान पहले से वर्जिश कर रहा हो उससे परमिशन लेना पड़ती थी। यानी कहना पड़ता था– "हुकुम पहलवान"। 

पहलवान बोलता था– "बाबा का आशीर्वाद"। 

ये सब मुझे मालूम नहीं था। मैं अखाड़े में पहले पहुँच गया। एक बड़े पहलवान ने वर्जिश करने के पहले, पहले से आये पहलवान से अनुमति माँगी। बोला, "हुकुम पहलवान।" 

मैंने भी बोल दिया, "हुकुम पहलवान"। 

फिर वो बोले, "हुकुम पहलवान।"

मैंने फिर बोल दिया, "हुकुम पहलवान।" जबकि मुझे बोलना था, "बाबा का आशीर्वाद"। 

पहलवान ने कहा,"नए आये हो पहलवान।"

मैंने कहा, "हाँ, पहलवान, मैं आज ही नया आया हूँ।"

मैं डेढ़ पसली का पहलवान और वहाँ के एक से बढ़कर एक भुजंग पहलवान। लेकिन क़ायदा यह कि भले ही वर्जिश के लिए आया डेढ़ पसली का मनुष्य हो, उसको वो पहलवान ही कहते थे। मुझे पहली बार किसी ने पहलवान बोला . . . मुझे रात भर ख़ुशी के मारे नींद ही नहीं आयी।

पहले दिन ही कुछ ज़्यादा वर्जिश कर ली थी। दूसरे दिन चला-उठा ही नहीं जा रहा था। जब बाज़ार में हिम्मत कर के गया तो हाथ-पाँव की स्टाइल बदल चुकी थी यानी अदा पहलवानों सी। बड़ी मुश्किल से ठीक होने में दो-चार दिन लग गए। जब अखाड़े गया तो पहलवानों ने हिदायत दी, "पहलवान लँगोट लगा के आया करो ये चड्डी नहीं चलेगी। सरसों के तेल की शरीर पर मालिश करो। वर्जिश के बाद एकदम पानी नहीं पीना बल्कि केले और दूध पियो। या तो पूरा पहलवान बन जाना है; ये अधूरापन ठीक वैसा ही होता है जैसे बिना पतवार की नाव।" 

मै पुराने ख़्यालों में रमा था कि पीछे से पत्नी की आवाज़ आई, "जाओ नहा के सब्ज़ी-भाजी ले आओ और आटा भी पिसवा लाना।"

तब ऐसा लगा कि ये छाती पर मूँग दलने कहाँ आ गई! बाज़ार में मूँग की दाल का भाव पूछा तो पाँव के नीचे की ज़मीं खिसक गई। तब पहलवानी का भूत उतरा और आटे -दाल के भाव याद आ गए इसके साथ ही पुरानी यादें "हुकुम पहलवान" की यादें याद दिलाकर चली गईं।

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