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पंजाबी उपन्यास – परिक्रमा : डॉ. राधा गुप्ता

पंजाबी उपन्यास : परिक्रमा
उपन्यासकार : बलदेव सिंह ग्रेवाल
हिन्दी अनुवादिका : डॉ. सुधा ओम ढींगरा
प्रकाशक : नटराज प्रकाशन, दिल्ली
समीक्षक : डॉ. राधा गुप्ता
संपर्क :   ceddlt@yahoo.com

पंजाबी लघु उपन्यास परिक्रमा भारतीय संस्कृति, मानवीय संवेदनाओं एवं उदात्त भावनाओं का एक मिला-जुला संस्करण है जिसकी हिन्दी अनुवादिका हैं – डॉ. सुधा ओम ढींगरा। पूरी कहानी एक गाँव में अपने घर के आँगन में खड़े एक आम के वृक्ष के इर्द-गिर्द घूमती है। कहानी आत्मकथ्य शैली में लिखी गई है। आत्मकथ्य शैली में लिखी गई कहानियाँ हमेशा लेखक को संशय के कटघरे में खड़ा कर देती हैं कि कहानी का नायक स्वयं लेखक तो नहीं?

कहानी बड़ी मार्मिक है। कथानक में अन्तर्निहित व्यथा, त्रासदी, विसंगति और विडम्बना बार-बार हृद्य की गहराई को छूने में कामयाब हुई हैं। कहानी का नायक पूरे तीस साल बाद अपने गाँव लौटता है, इस लम्बे अन्तराल में गाँव की काया-कल्प बदल जाती है, फिर भी वह अपने जीर्ण-शीर्ण घर को, घर के दरवाज़े में लटके पेंचदार ताले को, आँगन में खड़े बूढ़े आम के पेड़  को और मलबे में दबे माँ के बक्से के कोने तक को पहचान लेताहै और यहीं से शुरू होता है उसकी स्मृतियों का ब्योरेवार सिलसिला, उसकी कहानी की परिक्रमा। उसकी तंद्रा तब भंग होती है जब उसकी माँ की सहेली जीजो अपने पोते की बातों से उसे पहचान लेती है और उसे अपने घर ले जाने के लिए आती है।

उपन्यास के पात्र सृष्टि अति सीमित है लेकिन उपन्यास के लगभग सभी पात्र अपनी आस्था एवं विश्वास को जीते हुए, अपने नैष्ठिक कर्त्तव्य का निर्वहण करते हुए, उत्सर्ग की पराकाष्ठा को भी लाँघ जाते हैं।

अकारण पिता द्वारा घर से निष्कासित पुत्र जब अपनी माँ को अपने बेरहम पिता से दूर अपने साथ रहने के लिए बुलाता है तो वह कहती है – “इस घर में ब्याह कर आई थी, अब अर्थी ही निकलेगी।“ कहाँ मिलेगी भारतीय संस्कृति की ऐसी मिसाल जो निर्मम और क्रूर पति के जुल्म और सितम को अपनी नियति मान ख़ामोशी से सहना स्वीकार करती है लेकिन बेटे के साथ रहकर मिलने वाली खुशियों को नहीं स्वीकारती। उसका दृढ़ निश्च्य, उसकी संघर्ष शक्ति, उसका आत्म विश्वास और उसका अदम्य साहस पूरे कथानक में कहीं भी नहीं डिगता।

कमल, नायक बैंस की मूक प्रेयसी अपने विमूढ़ माता-पिता की झूठी शान और झूठी इज्जत के लिए अपने पूरे जीवन की ही आहुति दे देती है। नपुंसक पति कि विधवा बनकर एक सर्वस्वत्यागिनी की तरह अपना पूरा जीवन व्यतीत कर देती है। शादी के दो महीने के बाद, पति की मृत्यु के पश्चात्‌ सामाजिक मर्यादा का विखण्डन न हो इसलिए न तो वह अपने प्रेमी के पास वापस लौटती है और न ही उसे इस बात से अवगत कराती है कि उसका सृजन उसके क्षणिक मिलन की परिणति है, सृष्टि है। वह अपने इस क्षणिक सुख की स्मृति मेम अपना पूरा जीवन अर्पित-समर्पित कर देती है। उसका अर्पण, उसका समर्पण उसके अंतस की पवित्रता बन जाती है — “आपको अर्पित करके, यह देह सुकार्य हो गई है। अब इस देह को कोई खंरोचे, कोई काटे, दबोचे, कोई मरोड़े, कोई दर्द नहीं होगा।“

कहानी का नायक बैंस अपने निष्ठुर पिता की विसंगति का शिकार बनता है जिसकी त्रासदी उसे जीवन भर झेलनी पड़ती है। उसका पिता अपने इस होनहार बच्चे को उसकी पढ़ाई से विमुख कर अपने साथ खेतों में काम करवाना चाहता था, बच्चे और बच्चे के नाम के द्वारा मना कर दिए जाने पर वह जल-भुन उठा और अपने बच्चे का दुश्मन बन बैठा। झूठी जालसाजियों द्वारा अपने ही बच्चे को जेल भिजवा दिया, उस पर अमानुषिक अत्याचार करवाये और सिर्फ यही नहीं, उसकी प्रेयसी को अपनी बहन के नामर्द लड़के की परिणीता बना दिया। इतने में भी उसकी आत्मा को ठंडक नहीं पहुँची तो उसने उसे अपमानित कर लाञ्छित कर घर से निष्कासित भी कर दिया।

बैंस संस्कारी था, उसे यह संस्कार अपनी माँ से विरासत में मिले थे। कुछ दिन तो वह शहर में एकाकी रहा, कमल के वापस आने की बाट जोहता रहा, लेकिन जब वह नहीं आई तो वह अमेरिका चला गया। तीस साल बाद जब भारत सरकार ने उसे ’प्रवासी दिवस’ पर आमंत्रित किया तो वह अपने गाँव भी गया। गाँव में अपने घर और घर के आंगन में पहरेदार की तरह खड़े बूढ़े आम के वृक्ष की परिक्रमा करता रहा, इसी दरमियान उसके अतीत की स्मृतियाँ उसके जेहन में बिजलई की तरह क्रमशः एक के बाद एक कौंधती रहीं। जीजो के द्वारा अपने माता-पिता की दुःखद मृत्यु का समाचार सुनकर तो वह बिलख ही उठा।

अपने मित्र जनरैल से उसे कमल के बारे में जानकारी मिलती है कि — “वह एक जती-सती औरत है। इलाके में उसकी बड़ी इज्जत ह लोग उसको देवी समझते हैं। गाँव के बड़े-बड़े फैसले भी उसी से करवाते हैं। उसका पुत्र पढ़-लिख कर आई.ए.एस. करके अब हरियाणे में डी.सी. लगा हुआ है....।“

वह चौंक उठता है, “कमल का पुत्र... उसका पति तो... उसी ने बताया था.... क्या मेरा.... क्या हमारे मिलन के वे पल सृजन के पल बन गए थे।“

वह कमल के गाँव जाने की सोचताहै कि तभी उसके दिमाग में उसके मित्र जनरैल के बोल गूँज उठते हैं – “इलाके में उसकी बहुत इज्जत है .... लोग उसे देवी समझते हैं” .... कहीं मेरे जाने से उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा में, उसके सतीत्व में कहीं कोई बाधा तो नहीं उत्पन्न होगी, यही सोचकर कहानी का कर्णधार गाँव के मोड़ पर ही खड़ा रह जाता है। कैसी उदात्त भावना थी उसकी!

उपन्यास सहज, सरल और संजीदगी से भरपूर है। कहानी दुःखान्त होने के बावजूद भी पाठक के अंतस में एक संतोष की लहर छोड़ती है। कहानी के नारी पात्र माँ और कमल अपनी नारी शक्ति का परिचय देते हुए, जीवन के यथार्थ से जूझते हुए, अपने संतुलित आत्म संयम से, अपनी चरित्रगत दृढ़ता का शंखनाद करते हुए नज़र आते हैं।

डॉ. सुधा ओम ढींगरा ने इसका हिन्दी में अनुवाद बड़ी ही कुशाग्रता एवं मनोयोग से किया है। हिन्दी में अनुवाद करते समय, पंजाबी भाषा की रूह को आघात न पहुँचे, इसलिए उन्होंने कुछ पंजाबी शब्दों को ज्यों का त्यों यथावत्‍ रहने दिया है, जिससे भाषा के निखार में थोड़ा-बहुत अवरोध अवश्य आया है लेकिन भाषा के प्रवाह में कहीं भी शैथिल्य नहीं आया। यही तो अनुवादिका की कला की विशेषता है। निस्संदेह लेखक और अनुवादक दोनों ही प्रशंसा के पात्र हैं।

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