पंख थे परवाज़ की हिम्मत ना हो सकी
शायरी | ग़ज़ल पारुल6 Mar 2008
पंख थे परवाज़ की हिम्मत ना हो सकी
दुनियावी उसूलों से बग़ावत ना हो सकी।
इक रूह थी उड़ती रही बेबाक़ फ़लक पर
बरसों से क़ैद जिस्म में हरकत ना हो सकी।
बिखरी पड़ी हैं घडियाँ फ़ुरसत की चार सू
फ़ुरसत ही खर्च करने की फ़ुरसत न हो सकी।
हो लाख शोर ओ गुल अब जल्से तमाम हों
तनहाई मगर दिल से रुख़्सत ना हो सकी।
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ramesh 2023/06/10 01:18 PM
शब्द थे टिप्पणी मे परिवर्तित ना हो सके । बहोत खूब , कम शब्दों मे , सादगी से बड़ी बाते हो गई । पन्ने तो पलट दिए पर शब्दों की असर दूर ना हुई.