परछाई
काव्य साहित्य | कविता कंचन अपराजिता15 Jul 2019
सूनी डगर पर
जब तन्हा होती हूँ,
तू तो नहीं होता
पर तेरी यादें,
मेरे साथ परछाई बन
चलती हैं।
कभी छोटी हो
मुझसे छुपा छुपी खेलती हैं।
कभी बराबर हो हमराही
बन जाती हैं।
कभी बड़ी होकर
मुझे अपने आग़ोश में भर लेती हैं।
उसका साथ,
तेरी कमी के एहसास को
कुछ कम कर देता है।
यदि हम जुदा न हो
हमसफ़र बन पाते,
तो यूँ ही चलते न,
परछाई की ही तरह
तुम्हारे साथ
उम्रभर.....!
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