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परिचय-अपरिचय

पहला कदम (1997) कहानी संग्रह से 

 

कोई दुर्घटना हो जाने की वज़ह से ट्रेन सात-आठ घंटे लेट थी। मेरी सभी मित्रों का कहना था कि मैं इस शनिवार घर जाने का विचार छोड़ दूँ। सब मिल कर शायद कोई पिकनिक का प्रोग्राम बनाना चाह रही थीं। इस वज़ह से मुझे भी घेर कर रोक लेना चाहती थीं। उन्हें आश्चर्य होता था कि घर में ऐसा क्या है जो सुचित्रा एक दिन की छुट्टी में भी भागने को व्याकुल हो जाती है। घुमा-फिरा कर कई बार वह इस बात की टोह लेने का प्रयास भी करती रहीं कि मन की डोर कहीं उलझी तो नहीं है? 

पर मैं रुकना नहीं चाहती थी घर की बिगड़ी हुई आर्थिक स्थिति, असमर्थता, दीर्घ व अंतहीन अस्वस्थता ने पापा को अतिशय चिड़चिड़ा और क्रोधी बना कर छोड़ दिया है, जिसे समय असमय अकेली माँ को ही सुनना, सहन करना पड़ता है। परिस्थितियों से आक्रांत, आर्थिक संकटों से दग्ध, बिटिया के हाथ पीले न कर पाने का संताप और असमय ही प्रिय बेटे को ज़िम्मेदारियों के बोझ तले दबे व टूटते देख और छोटे बच्चों के भविष्य के लिए चिंतित माँ स्वयं भी काफ़ी टूट गई हैं। उस पर भी दुर्वासा से क्रोधी पापा के क्रोध का भाजन बनी माँ की बड़ी-बड़ी भावपूर्ण आँखें जिन्हें लोग आर्टिस्टिक आँखों की संज्ञा देते थे, रो-रो कर अपना सौंदर्य खो चुकी हैं। मन की प्रसन्नता के लिए उनके पास और क्या बचा है? मैं जानती हूँ हर शनिवार माँ व छोटे भाई-बहनों के साथ पापा की आँखों में भी प्रतीक्षा का सागर लहराता है। ...पापा भी हमेशा से ऐसे तो नहीं थे। उनके मन में भी स्नेह की धारा बहती थी जो असमय परिस्थितियों के अकाल में सूख सी गई है। वह डेढ़ दिन सबका अच्छा बीतता है। पापा भी बदले से दिखते हैं, भाई बहन चहकते हुए और माँ कुछ स्वस्थ सी। यही वह वज़ह कि मैं चाहते हुए भी, सहेलियों के लाख आग्रह पर वहाँ न रुक कर माँ के पास जाने को उतावली हो जाती हूँ। 

किन्तु ट्रेन से जाने का मतलब था रात के ग्यारह-बारह बजे तक घर पहुँचना। इसमें दोहरी परेशानी थी, इधर सहेलियाँ नाराज़ उधर माँ की डाँट, "अगर ऐसा ही था तो आज न आती, तुझे पता है न यह इलाक़ा कितना ख़राब है? रात को अकेले नहीं आना चाहिए था।" 

ऐसे ही एक बार भाग कर चलती हुई ट्रेन पकड़ी थी तो भी माँ बहुत नाराज़ हुई थीं – "बेटा तू पागल हो गई थी क्या? ऐसे आने की क्या आफ़त मची थी? पैर फिसल जाता या ऐसा ही कुछ हो जाता, हाथ-पैर कट जाते तो, वह भी कोई जीना होता?"

उस दिन अघटित अनहोनी की कल्पना कर के ही मैं सिहर उठी थी। 

दूसरा विकल्प बस ही थी जिसकी मैंने इस सफ़र में हमेशा उपेक्षा ही की है। समय तो ढाई गुना लगता ही है साथ ही धूल भरी कच्ची, कम चौड़ी, चेचक के गहरे दाग़ों से भरे चहरे की तरह गड्ढों वाली सड़क पर हिचकोले खाती हुई बस के लगातार झटकों से सारा बदन टूट जाता है और धूल भरी मिट्टी की मोटी परत कपड़ों और चेहरे पर चिपक जाती है। मुँह किसकिसा हो जाता है, आँखें खोलना भी मुश्किल। रस्ते में कहीं बस ख़राब हो जाये तो दोनों तरफ़ से आने-जाने वाले ट्रकों, बसों की लाइन लग जाती है। सड़क कम चौड़ी होने की वज़ह से वाहन सड़क के बीच में चलते हैं। सामने से आते वाहन को रास्ता देने के लिए उसे किनारे पर होना पड़ता है। इस बीच दुर्घटना का भय भी बराबर बना रहता है। कोई और दिन होता तो शायद मैं जबरन स्वयं पर नियंत्रण करके न जाने के विषय में सोच लेती किन्तु आज तो भैया भी घर पर आये होंगे। शांत व सरल व्यक्तित्व के स्नेही भैया से बात करते मन नहीं भरता। दुनियाँ भर की साहित्य, समाज व राजनीति की बातें। उनके घर में प्रवेश करते ही बेरौनक़, निर्जीव सा दिखता घर जीवन्त हो उठता है और परिवार के प्रत्येक प्राणी में नया उत्साह भर जाता है। 

जिन परिस्थितियों में उन्होंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की है उसे सुनने वाला भी हैरत में पड़ जाता है। उनके फ़ोर्थ ईयर में ही पापा को दिल का दौरा पड़ा था। डॉक्टर्स ने लम्बी अवधि तक पूरी तरह बिस्तर पर रह कर आराम करने को कहा था। उसी बीच उन्हें पैरालेसिस भी हो गया था। प्राइवेट फ़र्म की नौकरी भी छूट गई जो कुछ पास में था वह बीमारी को भेंट चढ़ने लगा। भाई ने ट्यूशन और पार्ट टाइम काम करके पढ़ाई पूरी की। मैं बी.ए. करके घर बैठ गई और पास-पड़ोस की सिलाई का काम करने लगी। माँ तुरपन, बटन व काज बनाने का काम कर देती थीं। सब की आशा का केन्द्र भैया थे। वह स्वयं भी अपने दायित्व के प्रति सजग थे किन्तु जीवन के स्वर्णिम काल यानी प्रारम्भ के 25-26 वर्ष जिस शिक्षा और डिग्री को प्राप्त करने में लगाए, वही डिग्री तगड़े सोर्स और मोटी रिश्वत के अभाव में अर्थहीन हो कर रह गई। उन्हें पैर टिकाने को एक ठोस धरातल भी प्रदान न कर सकी।

भैया हर चेहरे पर जन्म लेती आशाओं का जनाज़ा निकलते, अपनी इच्छाओं की क़ब्र बनते देख, मन में उठते झंझावतों से अकेले ही जूझने का प्रयास करते रहे। कुछ दिनों की बेरोज़गारी और भटकन सहने के बाद जो समझौते करने पड़े (छोटी सी नौकरी और ट्यूशन) उसने उन्हें अंदर से तोड़ा अवश्य फिर भी टूटन की उन किरचों को अपने में ही समेटे रहे। दर्द की लकीरों को न जाने कहाँ छुपा कर हरदम प्रसन्न दिखने का प्रयास करते रहे। 

उन दिनों घर की ख़स्ता हालत देख कर संगीत शिक्षिका की नौकरी का निर्णय भी मैंने स्वयं ही लिया था। वरना आवश्यकता महसूस करते हुए भी कोई नहीं चाहता था कि मैं उस नौकरी के लिए घर से दूर रहूँ। मेरे नौकरी का निर्णय लेने की दूसरी सुबह ही मैंने भैया की आँखों को लाल पाया था जैसे वह या तो रात भर सोये नहीं या रोए हैं। संयत दिखने का प्रयास करती माँ बार-बार साड़ी के पल्ले से आँख, नाक पोंछ रही थी फिर ख़ुद ही सफ़ाई देती हुई बोलीं - "आज सुबह से जुकाम हो गया है"। पापा कुछ अधिक ही झुँझलाये हुए हो रहे थे। झुँझलाहट उनकी आतंरिक व्यथा का प्रतिरूप थी। जब वह दुखी और परेशान होते हैं तो अधिक झुँझलाने लगते हैं। छोटे भाई-बहन सुबक रहे थे। मैं स्वयं भी गुसलखाने में कपड़े बदलने के बहाने बहती अश्रुधारा को नियंत्रित करने का प्रयास करती रही थी। घर-परिवार से दूर कहीं अकेले रहने का साहस जुटा रही थी। वैसे भैया स्वयं मुझे पहुँचाने के लिए साथ जा रहे थे। 

रास्ते की सारी तकलीफ़ व आशंकाओं के भय को पीछे धकेल कर मैंने बस से जाने का फ़ैसला कर लिया था, दोपहर दो बजे तक घर पहुँच जाऊँगी। स्टेण्ड पर बस की ख़स्ता हालत देख कर रहा-सहा साहस भी साथ छोड़ने लगा। एक तो ख़स्ता हालत बस, उस के ऊपर खचाखच भरी डेढ़ गुनी सवारियाँ। तभी एक परिचित स्वर कानों में गूँजा, "सुचित्रा चल रही हो क्या?"

मुड़ कर देखा तो बस की खिड़की से गर्दन बाहर निकाले शशि मुझे बुला रही थी। 

"जगह है क्या?" मैंने पूछा। 

वह मुस्कराई, "वह तो तू देख रही है, पर किसी तरह चढ़ आ। एडजस्ट हो ही जाएँगे, दो-ढ़ाई घंटे की ही तो बात है।"

बस में चढ़ पाना कम से कम मेरे लिए तो संभव नहीं था। एक के ऊपर एक लदे, गेट से बाहर तक यात्री लटके हुए थे। आख़िर मैं ड्राइवर की सीट से लगे दरवाज़े से चढ़ कर शशि के पास तक पहुँची। शशि दो सीटों के बीच में पड़े किसी के सामान से भरे बोर पर बैठी थी। उसकी बगल वाली सीट पर दो ग्रामीण महिलाएँ बैठी थीं। एक ने आधे हाथ का घूँघट डाल रखा था। दूसरी एक बच्चे का मुँह आँचल में छिपाये और दो बच्चों को अपने दाएँ-बाएँ समेटे बैठी थी। एक बच्चा अँगूठा और दूसरा गुड़ की डली चूसने में व्यस्त था। उन बच्चों के कपड़े गंदे और बदबूदार थे। शरीर के खुले हिस्सों पर फोड़े-फुंसी, दाद-खुजली न जाने क्या-क्या हो रहा था और उस पर पट्टी तक नहीं बँधी थी। उनपे मिट्टी भी लगी थी। उड़ती मक्खियाँ कभी घावों पर बैठतीं तो कभी गुड़ और बच्चे के चिपचिपे मुँह पर। 

उनके पास बैठने की कल्पना से ही मन खट्टा हो गया। ऐसा लगा जैसे उल्टी हो जायेगी पर मजबूरी बेरहम होती है। जैसे-तैसे मैंने ख़ुद को सम्हाला और एक बच्चे को हटा कर उसकी जगह बैठ गई। न चाहते हुए भी उस बच्चे को गोद में बैठाना मेरा नैतिक दायित्व हो गया था आख़िर मैंने उसकी जगह जो घेर ली थी। 

बस में बैठे-खड़े सभी लोगों पर मैंने एक सरसरी नज़र दौड़ाई। चारों तरफ़ मटमैले पीले पड़े हुए कपड़ों में लिपटे ग्रामीण ही नज़र आये। हर तरफ़ बीड़ी के धुँए के गुबार उठ रहे थे, साँस लेना भी मुश्किल हो रहा था पर ड्राइवर का कुछ पता नहीं था। शायद बस और भरने का इंतज़ार कर रहा हो। मेरा दम घुटने लगा था। मैं बार-बार यही सोचती रही थी कि ये लोग बीड़ी-तम्बाकू पर तो ख़र्चा कर लेते हैं पर कपड़े साफ़ धो कर नहीं पहन सकते। साफ़-सुथरा रहने में क्या पैसे खर्च होते हैं? मैंने पर्स से रूमाल निकाल कर नाक पर रख लिया था। अपनी खीज पर नियंत्रण करते हुए मैंने बगल में बैठी महिला से पूछा, "बच्चों को ये क्या हो गया है?"

"अरे भैन जी कछु मत पूछो, हम तो बरे परेशान हैं... फोड़े, फुंसी है गए हैं। निरे दिन है गये, तुमही बताओ हम का करें?"

मैं उसे बताती रही कि तुम लोग सफ़ाई नहीं रखते, यह सब गंदगी से होता है, बच्चों को रोज़ नहलाया करो, घावों पर साफ़ धुली पट्टी बाँधनी चाहिए वरना इन्हें मक्खियाँ और ख़राब कर देती हैं।

धाराप्रवाह में मैं यह भी कह जाती कि इन्हें डिटॉल डाल के नहलाया करो, कोई मरहम लगाया करो पर तुरंत ही मुझे अपनी ग़लती का अहसास हो गया कि मुझे अपनी नहीं उनकी परिस्थिति के हिसाब से सोचना चाहिए। मैंने पुनः कहा, "तुम नीम के पत्ते उबाल कर उसके पानी से बच्चों को नहलाया करो। घाव खुला मत छोड़ो, वह कपड़े से ढका रहना चाहिए।"

वह मेरी ओर टुकुर-टुकुर देख रही थी। मैंने पुनः उस से पूछा, "बच्चों के पिता क्या करते हैं?”

सहसा उसकी आँखों में पीड़ा उतर आई, पलकें भीग गईं। उसकी आँखों ने ही जवाब दे दिया था। बाद में उसने जो कुछ कहा लगा वह तो मात्र पुनरावृति है। 

"जहीं पास के गाँव में रहत हैं। अपनो मरद ढंग को होतो तो ऐसी गत काहे को होती? वा को दारु पी के लात जूता करे से ही फुर्सत ना है। खाय पीके रोज दंगा मचात है। जाहि से बच्चन को ले के पीहर जानो पड़ रओ है। वहाँ हमरी भौजाई घरों में झाड़ू-पौंछा, बासन का काम करत है, हमहू जेई करेंगे और बच्चन का पेट भरेंगे, अब कबहूँ..."

इसके बाद सारी बातें सिसकियों की ज़ुबान में बदल गई।

उसकी व्यथा कथा सुन का मेरा मन भी भारी हो गया। मैंने कहा, "तुम शहर तो चल रही हो, वहाँ महरियों की बहुत कमी है, कुछ काम तो तुम्हें मैं ही दिलवा दूँगी।"

असमय ही बुढ़ापे के चंगुल में घिरती माँ के गोरे हाथ जो बर्तन घिसते-घिसते काले, रूखे हो गए हैं, का ध्यान हो आया। उससे कहने को मन हुआ कि हमारे यहाँ तो तुम कल से ही काम शुरू कर दो पर आँखों के सामने 50-60 रुपये घूम गए जो कि काम कराने पर देने पड़ेंगे जबकि माँ इतने रुपयों से घर के दाल-सब्ज़ी का ख़र्चा चलाने की कोशीश करती है; पापा के इलाज में ही काफ़ी पैसा लग जाता है। मेरे कहने पर भी माँ क्या इस आग्रह को मानेगी? एक दिन कह रही थी, "बेटा मैं घर में पड़े-पड़े क्या करती हूँ। पढ़ी-लिखी होती तो कोई छोटी-मोटी नौकरी कर लेती, ट्यूशन कर लेती। सिलाई भी कुछ ख़ास नहीं आती वर्ना घर बैठे यह काम ही कर लेती। अब यदि कुछ कमा नहीं सकती तो घर का सब काम ख़ुद करके घर का पैसा बाहर जाने से रोक तो सकती हूँ, पचास -साठ रुपये मैं महरी को नहीं दे सकती। वैसे भी काम करने में कितनी-सी देर लगती है?" 

एकाएक बस ड्राइवर खलनायक की तरह प्रगट हुआ। उसने 3-4 बार ज़ोर-ज़ोर से हॉर्न बजाया और बस चला दी। बस चलते ही उसका हरेक पुर्ज़ा अलग-अलग क़िस्म की तीखी ध्वनियाँ उत्पन्न करने लगा। हिचकोले खाती बस आगे बढ़ चली। धूल और गर्द के गुबार उड़ने लगे। मैंने भी साड़ी के पल्ले से सर ढक कर छोर मुँह से दबा लिया ताकि मिट्टी से कुछ बचा जा सके। बस का रवैया समाजवादी था। किसी के हाथ का इशारा पाते ही ड्राइवर बस रोक लेता और जिसको जहाँ उतरना होता, बस रुकवा कर उतर जाता। इसी बीच एक गोरा-सा युवक उस बस में चढ़ा। चलती बस के झटकों से बचने के प्रयास में कभी सीट पकड़ता तो कभी किसी यात्री का कन्धा। अगले स्टाप पर मेरे आगे वाली सीट का यात्री उतरते समय अपनी सीट साग्रह उस युवक को दे गया। मेरी छोटी सी अटैची सामने वाली सीट के पास रखी थी, एक ग्रामीण उस पर बैठने लगा। मैंने कहा, "ए भाई उस पर मत बैठो टूट जाएगी।"

तभी वह युवक अचानक मेरी तरफ़ मुड़ा,"यह अटैची आपकी है?"

मैंने स्वीकृति में गर्दन हिला दी। बातों का सिलसिला जारी रखने के लिए उसने फिर पूछा, “आप स्टूडेंट हैं क्या?"

"जी नहीं, फ़िलहाल तो हाई स्कूल में टीचर हूँ"

"कम से कम आप बी.ए. तो होंगी ही?”

“पिछले वर्ष एम.ए. किया है।"

"कहाँ से? किस विषय में?”

"हिंदी में, प्राइवेट किया है।"

"अच्छा तो टीचिंग के साथ पढ़ाई भी? बड़ी मेहनत करनी पड़ी होगी? क्या सब्जेक्ट पढ़ाती हैं?" 

"म्यूज़िक..."

"वैरी गुड, तब तो आप इस विधा में अवश्य पारंगत होंगी।... आवाज़ भी प्यारी है, निश्चय ही अच्छा गाती भी होंगी। आपको एम.ए. भी म्यूज़िक में करना चाहिए था। क्यों नहीं किया?"

मैं चुप ही रही, क्या कहती? किसी अपरिचित के सामने घर के हालात का रोना रोती क्या? तभी वह पुनः बोला - "संगीत से मुझे बहुत प्यार है। इस में डूब कर दिल को सुकून मिलता है, आपके साथ भी ऐसा है क्या? गिटार मैं अच्छा बजा लेता हूँ, आजकल प्यानो सीख रहा हूँ।"

मैंने कहना चाहा कि इस समय म्यूज़िक मेरी हॉबी ही नहीं है, मेरी रोज़ी-रोटी का साधन भी है, इसीलिए और भी प्रिय है पर प्रत्युत्तर में इतना ही कह पाई, "अच्छा! आप पियानो सीख रहे हैं? अच्छी हॉबी है।" 

"सुनिए आपके पर्स में कौन सी मैगज़ीन है, ज़रा दिखाएँगी?" मैं पत्रिका उसे देकर फिर बाहर देखने में व्यस्त हो गई। 

कुछ देर बाद मैंने महसूस किया कि वह बार-बार कनखियों से मेरी तरफ़ देखता जा रहा था। मैं अनदेखी करती रही। पर एक बार अचानक मेरी नज़रें उस से टकरा गईं। वह कुछ झेंप कर बोला, "इस पत्रिका में एक लेखिका की फोटो हू-ब-हू आप से मिलती है।"

मैं मुस्कराई, "हाँ, कभी-कभी ऐसा हो जाता है।"

"माफ़ कीजिये क्या मैं आपका नाम जान सकता हूँ?" 

"क्या करियेगा नाम जान कर?"

"यदि मैं ग़लत नहीं हूँ तो आपका नाम सुचित्रा शर्मा है।"

"आप कहते हैं तो मान लेती हूँ।"

वह एक विचित्र स्फूर्ति से भर कर गद्‌-गद्‌ हो उठा, "अच्छा तो आप राइटर भी हैं? गुड रियली वंडरफ़ुल।"

मैंने कहा, "नहीं भाई कोई भ्रम मत पालिए। न मैं संगीत में पारंगत हूँ और न राइटर ही हूँ। यह लिखना तो कभी-कभी यों ही हो जाता है।" 

"यह आपका बड़प्पन है सुचित्रा जी, बहुत बढ़िया कहानी लिखी है आपने, एक बात बार-बार मेरे ध्यान में उठ रही है..."

"क्या?" मैं उसकी बात बीच में ही काट कर बोल पड़ी।

"यही कि इस कहानी की नायिका आप स्वयं ही हैं। उसका रूप- रंग, स्वभाव सभी तो आपसे मिलता है, क्या मैं ग़लत हूँ?"

मैंने सोचा यह साहब भी उसी वर्ग के हैं जो रचना को रचनाकार के जीवन का पर्याय मानते हैं। मेरी एक कहानी पढ़ कर मेरी सहेली सरिता ने भी तो यही अंदाज़ा लगाते हुए कहा था– "सुचित्रा तू भी अजीब है, कौन है इस कहानी का बदनसीब हीरो? वह तुझे क्यों नहीं पा सका?... उसकी ग़लती भी क्या थी? बस यही कि शादी से पूर्व उसने तुझे बड़े शिष्ट ढंग से पाना चाहा था, कोई ज़बरदस्ती भी नहीं की थी किन्तु तेरे इंकार पर बौखला अवश्य गया था। मैं समझती हूँ उसके बौखलाने का कारण भी तेरा इंकार नहीं बल्कि अपने प्रति अविश्वास ही रहा होगा। बस तूने सारे नाते तोड़ लिए?" कितने विश्वास के साथ उसने मुझे ही कहानी की वास्तविक नायिका मान कर यह सब कह डाला था कि मैं ठगी सी रह गई थी। 

"अरे आप क्या सोचने लगीं सुचित्रा जी?… क्या आप वाक़ई इस कहानी की नायिका नहीं हैं?" उसके बोलने से मेरा ध्यान टूटा।

"जी नहीं," मैंने दृढ़ता पूर्वक कहा, "इस कहानी की नायिका और घटनाओं से मेरा दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है। आपको यह भ्रम शायद इसलिए हुआ कि कहानी की नायिका को भी मैंने राइटर दिखाया है। रही बात मुझ से आकृति-प्रकृति मिलने की, तो लेखक के व्यक्तित्व की छाप कम या अधिक किसी न किसी पात्र पर पड़ती ही है। मैं यह तो स्वीकारती हूँ कि रचनाकार के व्यक्तित्व और मानसिकता से उसकी कृतियाँ सर्वथा अछूती नहीं रह पातीं किन्तु कथानक को उसके जीवन का पर्याय नहीं माना जा सकता। रचना व्यक्ति से नहीं जीवन की सच्चाइयों से जन्म लेती है।"

उसने बातचीत को दूसरा मोड़ दे दिया, "मेरी एक फ़्रेंड है। ..डोंट माइंड वह दो बच्चों की माँ है (उसने यह वाक्य कुछ इस तरह कहा जैसे सफ़ाई दे रहा हो कि अविवाहित लड़की से दोस्ती भले ही अनैतिक हो पर दो बच्चों की माँ से दोस्ती करना ग़लत नहीं होता) वह अच्छी राईटर है। रेडियो, टीवी पर उसके प्रोग्राम आते ही रहते हैं। ...कभी आप हमारे यहाँ आएँ तो उस से मिलवाऊँगा।"

"आप कहाँ के रहने वाले हैं?" 

"वैसे तो मैं जम्मू का हूँ, आजकल दिल्ली में प्रोफेसर हूँ, मेरा नाम संदीप शर्मा है।"

"और आपका परिवार?"

"आएम बैचलर,” उसके बोलने के लहजे में लड़कियों की सी शर्म घुल गई थी फिर अचानक साहसी बनते हुए कहा, "बट नाउ ए डेज़ थिंकिंग सीरियसली अबाउट मैरेज।"

"मेरा मतलब आपके माँ-पापा से था।"

"वे सब जम्मू में हैं," फिर वह धीरे से फुसफुसाया, "आर यू मैरिड?"

मैं इस अप्रासंगिक प्रश्न के लिए तैयार नहीं थी। सोचा पूछूँ यह प्रश्न क्यों? पर बात को समाप्त कर देने के मूड में चुप रहना ही उचित समझा। 

"दरअसल आजकल मैरिड-अनमैरिड में अंतर करना मुश्किल हो जाता है। आजकल अनेक मैरिड लेडीज़ भी माँग में सिन्दूर नहीं भरतीं। आपने सर ढक रखा था इसी से भ्रम हुआ।"

मैं खिड़की से बाहर देखने लगी थी। उसे यह अहसास करा देना चाहती थी कि उसकी इन बातों में मेरी कोई रुचि नहीं है। सरिता जैसे फिर मेरे सामने आकर खड़ी हो गई थी, कहने लगी, "सुचित्रा जो विवाह की इच्छा रखते हुए रुचि लेना चाहते हैं, उन से तू इस तरह तटस्थ सा, उपेक्षात्मक व्यवहार क्यों करती है? क्या यह तेरा अहंकार नहीं है?" 

मैं सरिता को कैसे समझाऊँ कि यह मेरा अहंकार नहीं है। आख़िर इन सज्जन ने भी चंद मिनटों में रूप-रंग के अलावा मेरी कौन-सी ख़ूबी जान ली? महज़ रूपाकर्षण ही प्रेम का आधार नहीं होता। नारी के लिए सिर्फ़ तात्कालिकता ही प्रेम की उपलब्धि नहीं होती क्यों कि प्रेम उसके जीवन के लिए एक अनुभव मात्र नहीं है। उसका सम्पूर्ण अस्तित्व होता है। 

इसीलिए इन महोदय की इन बातों से कतरा जाना ही मैंने उचित समझा। इस क़िस्म के लोग मित्रता पूर्ण व्यवहार को ही प्रेम समझ लें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। ...संभव है फिर वह अपने सपनों को कल्पना में विस्तृत आकर देकर उनकी पूर्णता के संदर्भ में आश्वस्त हो बैठे और बाद में अपने सपनों को वीरान होते देख, टूटने की हद तक निराश हो जाएँ या गुमनाम तनाव में डूब जायें; मैं नहीं चाहती किसी के साथ भी ऐसा हो। वैसे भी निकट भविष्य में विवाह या किसी प्रेम-संबंध की मैं तनिक भी इच्छुक नहीं हूँ। 

"प्लीज़ डोंट माइंड इफ़ आई से समथिंग अबाउट यू," उसका आग्रह पूर्ण स्वर था।

मेरे मौन को उसने स्वीकृति समझते हुए कहा, "ओल्दो यू हेव नो कश्मीरी कलर बट हेव एन अट्रेक्टिव फ़ेस, टॉल एंड स्लिम बॉडी एंड गुड पर्सनल्टी। यू शुड टेक पार्ट इन टेलीविज़न प्रोग्राम्स एंड आई थिंक यु विल गेट सक्सैस। देयर इज़ मच स्कोप।"

यों अपनी प्रशंसा किसे बुरी लगाती है किन्तु एक अपरिचित से क्षणिक परिचय के उपरान्त ही अपनी पर्सनल्टी का विस्तार से अतिश्योक्ति पूर्ण वर्णन सुन कर मैं संकुचित हो उठी, उसकी वाचालता पर खीज भी आई। स्वयं को संयत करते हुए लम्बे कथन का संक्षिप्त सा जवाब दिया, "थैंक्स फ़ॉर द कॉम्प्लिमेंट्स, आई विल थिंक।"

बस चुंगी नाके पर आकर रुक गई थी। मैंने भी वहीं उतर जाना उचित समझा। यहाँ से घर नज़दीक पड़ेगा। इससे घर जल्दी पहुँच जाऊँगी और रिक्शे का ख़र्च भी बच जाएगा। शशि भी वहीं उतर रही थी। मुझे उतरता देख कर मि. शर्मा बोले, "आपकी मंज़िल तो आ गयी, क्या हमारी मुलाक़ात की सीमा यहीं समाप्त हो जायेगी?" संभवतः उसके स्वर में कुछ वेदना घुली थी। मेरे कुछ बोलने से पूर्व ही वह बोला, "आपकी कहानी के नायक नायिका की समस्या तो सुलझ गई किन्तु हमारी?"

कुछ क्षणों के परिचय में ही उसे इस तरह भावुक होता देख कर मैं किंचित पशोपेश में पड़ गई। कुछ समझ नहीं पाई कि क्या कहूँ। फिर कुछ न सुन पाने का उपक्रम करते हुए मैंने कहा, "जी आपने कुछ कहा?"

वह सकपका गया, "जी कुछ नहीं, मैं कह रहा था अच्छा लिख लेती हैं आप, प्रसन्नता हुई आप से मिल कर। यह हमारा कार्ड है कभी हमारे जम्मू या दिल्ली घूमने आइये।"

"धन्यवाद कभी उधर आना हुआ तो अवश्य मिलेंगे।"

"इस बीच पत्र तो लिखेंगी?"

"अच्छा लिखूँगी," फिर एक औपचारिक इजाज़त माँग कर मैं नीचे उतर आई।

सोचा वह भी यहाँ से दिल्ली के लिए बस या ट्रेन पकड़ेगा क्यों न एक कप चाय के लिए घर चलने को कह दूँ, शिष्टाचार के नाते ही सही। 

फिर बहुत कुछ सोच कर मुड़ने की इच्छा नहीं हुई। माँ, पापा, भैया और अधिक याद आने लगे। यह जीवन भी कितना रहस्यमय है। वह ग्रामीण महिला जिससे मेरा तनिक भी सामंजस्य नहीं फिर भी कितनी परिचित सी हो गई थी और यह भद्र युवक कितना अपरिचित सा लगता रहा या शायद मुझे ही कुछ कारणोंवश यह अपरिचय न तोड़ना ज़्यादा अच्छा मालूम हो रहा था। 

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