परिक्रमा
काव्य साहित्य | कविता डॉ. भावना कुँअर6 Oct 2007
परिक्रमा!
तुम यहाँ
तुम यहाँ क्यों खड़ी हो
अभी तो तुम वहाँ थी
ये कैसे सम्भव है
कि तुम दोनों जगह मौजूद हो
क्योंकि तुम तो एक हो
अभी तो सुख से विलीन थी
अब यहाँ दु:ख से आसक्त हो
असम्भव है ये
तुम्हारा दोनों जगह होना
क्या?
सुख दु:ख का
पाठ पढ़ा रही हो!
या व्यर्थ ही
चक्कर लगा रही हो!
कभी तो तुम
दो दिलों को
एक करने के लिये
अग्नि के फेरे लगा रही हो
कभी विरह व्यथा में जलते हुए
पिता का पुत्र से वियोग दिला रही हो
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