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पारो सुरा के सुरूर में क्यों नहीं डूबी?

मैंने पुरानी देवदास और नई देवदास दोनों फ़िल्में देखी हैं और शरत चंद्र चैटर्जी का उपन्यास देवदास भी पढ़ा है। कोई बिरला ही होगा जिसने सिनेमा हाल में ये फ़िल्में देखते हुए बगल में बैठे व्यक्ति से नज़रें चुराकर अथवा लेटकर उपन्यास पढ़ते हुए तकिये में मुँह छिपाकर आँसू न बहाये हों। मैंने भी नाक सुड़कते हुए अनेक रूमाल गंदे किये हैं और कई तकिये भिगोये हैं। पर इस कहानी में मुझे सदैव देवदास की अपेक्षा पारो के प्रेम ने अधिक रुलाया है। इसका कारण है कि जहाँ देवदास अपने ग़म को सुरा के सुरूर और चंद्रमुखी के साहचर्य में डुबोकर जीने का सहारा ढूँढ लेता है वहीं पारो अपने बिछोह को बिना किसी सहारे के सँजोकर जीती है। अन्य फ़िल्मों में भी मैंने प्रेम में ठगे जाने पर केवल पुरुषों को सुरा-सुंदरी का सहारा लेते हुए देखा हैं, अतः स्त्री के प्रेम की श्रेष्ठता मेरे मन में रच-बस गई थी।

यद्यपि मैं दलबदलू किस्म का इंसान नहीं हूँ और न राजनीति से मेरा कोई वास्ता है तथापि हाल में एक वैज्ञानिक शोध का परिणाम पढ़कर मेरी सम्वेदना एवं सहानुभूति पारो के बजाय देवदास के पक्ष में अधिक हो गई है। यूनिवर्सिटी आफ़ कैलीफोर्निया के मनोवैज्ञानिक एवं ‘द फ़ीमेल माइंड’ नामक पुस्तक के लेखक डॉ. लुआन ब्रिजेनडाइन ने शोध कर पाया है कि "महिलायें अपने मस्तिष्क की अधिक से अधिक कोशिकायें बात करने के काम में लगातीं हैं। बोलना महिलाओं के लिये नशे जैसा है। जब महिलायें अधिक बात करती हैं तो उनके मस्तिष्क की कोशिकाओं से ऐसे रसायन निकलते हैं जिनका नशा हेरोइन जैसा होता है और इसे पाने के लिये महिलायें और अधिक बात करने को उत्सुक होती रहती हैं।

पुरुष सेक्स हार्मोन टेस्टोस्टेरोन मस्तिष्क के उस भाग को सप्रेस करता है, जो भावनाओं के संचार को प्रेरित करता है। यही कारण है कि पुरुष कम बोलते हैं और पुरुषों में अपनी भावनाओं को प्रदर्शित करने के लिये केवल एक पतली सी गली होती है जब कि महिलाओं में इस हेतु सुपरहाईवे होता।

वैसे बात जब सेक्स की आती है तो पुरुषों के मस्तिष्क में सेक्स को बढ़ावा देने वाला हिस्सा महिलाओं की अपेक्षा दो गुना बड़ा होता है। यही कारण है कि पुरुष सेक्स के बारे में हर बावन सेकंड में एक बार सोचते हैं जबकि महिलायें एक दिन में सिर्फ़ एक बार।"

महिलाओं के विषय में केाई ऊल-जलूल टिप्पणी वही सिरफिरा कर सकता है जिसके सिर पर "आ बैल मुझे मार" का भूत सवार हो गया हो, क्योंकि उसकी लानत-मलामत और कहीं हो न हो, पर अपने घर पर तो किसी हाल में ख़ैर नहीं। परंतु महिलाओं का "बातों की नशेड़वी होना" एवं सेक्स हेतु सोचने में पुरुष की तुलना में "एक बटे पच्चीस़ होना" सिद्ध करने वाले इस शोध के विरोध में न तो किसी महिला संगठन ने झंडा उठाया है और न किसी ने न्यायालय में पी. आई. ऐल. दाखिल कर इसके विरुद्ध कोई स्टे प्राप्त किया है, अतः इस विषय में कुछ लिखने में न्यायालय के दण्ड अथवा महिलाओं के डण्डे का ख़तरा नहीं है। इससे मुझे यह भी लगने लगा है कि शोध का निष्कर्ष सही है, और मैं महिलाओं के प्रेम की पुरुष के प्रेम से श्रेष्ठता की अपनी धारणा पर शंकालु हो गया हूँ।

अब मुझे पारो के बिछोह में देवदास का अपने को सुरा के सुरूर में डुबो देना पुरुष-मन की सामान्य प्रतिक्रिया प्रतीत होने लगी है। यदि डॉ. लुआन की शोध सही है तो मस्तिष्क में अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का सुपरहाईवे होने के कारण पारो अपने मर्म की चोट का अपनी अंतरंग सहेलियों, ननदों, भाभियों आदि से बखान किये बिना नहीं रहती होगी और इससे उसे हेरोइन जैसा नशा मिलता होगा। फिर यह लत डालने वाला नशा उसे अपनी व्यथा को बार-बार दुहराने हेतु विवश करता होगा, जिससे वह हेरोइन के इस नशे की लती हो गई होगी। पारो उस नशे में अपना ग़म ग़लत कर लेती होगी। अब अगर पारो अपनी पीड़ा को भुलाने हेतु हेरोइन जैसे नशे में डूब सकती है तो देवदास का कम से कम सोमरस के सुरूर में डूबे रहने का हक़ तो बनता ही है। जहाँ तक पारो का नपुंसक पति के साथ पातिव्रत धर्म निभाते रहने एवं देवदास के चंद्रमुखी के सान्निध्य में रहने की बात है तो डॉ. लुआन के शोध से स्पष्ट है कि यह केवल स्त्री-पुरुष के जीन्स के वैविध्य का खेल है। पारो को क्या परेशानी? उसे तो चौबीस घंटे में बस एक बार सेक्स का ख़याल आता होगा और चला जाता होगा। पुरुष बेचारा क्या करे जिसे प्रत्येक बावन सेकंड में यह ‘गंदा’ ख़याल आता है- ऐसे में कभी-कभी चंद्रमुखी की सुदर्शन छवि के दर्शन से अपने चोटिल हृदय में मलहम लगा लेना देवदास की विवशता हो जाती होगी।

डॉ. लुआन की इस शोध के विषय में एक बात अवश्य मुझे खटकने वाली लगती है। आजकल स्त्री को पुरुषों से कमतर दिखाने वाली शोधों की बाढ़ सी आ गई है और ये सभी शोध पुरुष वैज्ञानिकों द्वारा ही किये गये हैं। गत वर्ष हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रेसीडेंट डॉ. लारेंस समर्स ने एक वैज्ञानिक खोज का उद्धरण देते हुए कहा था कि महिलाओं में पुरुषों की अपेक्षा विश्लेषणात्मक क्षमता कम होती है। फिर ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने महिलाओं की तुलना चुहियों से कर डाली। उन्होंने अपने ‘दीर्घकालीन’ शोध का निष्कर्ष बताया- "महिलाओं को साफ़-सुथरे पुरुषों के बजाय वे पुरुष अधिक आकर्षक लगते हैं जिनमें दूसरी महिला की ख़ुशबू होती है...। डॉ. डोनल्ड पैफ़ द्वारा एकत्रित आँकड़े बताते हैं कि "जिस प्रकार चुहिया अन्य चुहियों की रुचि का इस्तेमाल करती है, उसी प्रकार महिलायें किसी अन्य महिला की पसंद पर भरोसा करती हैं।" और अब डॉ. लुआन ने शोध का आवरण लेकर महिलाओं को न केवल बातूनी वरन् बातों में हेरोइन जैसा नशा प्राप्त करने वाली, अपनी भावनाओं को सुपरहाईवे पर सुपरस्पीड से संचारित करने वाली, एवं काम-भावनाओं में पुरुष की अपेक्षा बहुत कमतर होना सिद्ध किया है।

मुझे तो यह सब पुरुषों के महिलाओं की जकड़ से छूटने के प्रयत्न की सोची समझी साज़िश लगती है।

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