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पशु-आदमी भाई! भाई!

 वे आदमियों के डॉक्टर होना चाहते थे पर पेपर लीक कराने वाले ने उनका पूरा साथ नहीं दिया, सो चाहकर भी आदमियों के डॉक्टर न हो पाए तो सोचा- चलो, पशुओं के ही डॉक्टर हो जाएँ। वैसे भी आज की तारीख़ में पशु और आदमी में कौन सा बहुत फ़र्क़ है। दूसरे, उन्हें तो बस, हर हाल में डॉक्टर होना था, सो हो गये। तब उन्होंने गुडी-गुडी फ़ील सा भी किया था कि डॉक्टर तो हर हाल में डॉक्टर होता है, जैसा आदमियों का वैसा पशुओं का। किसे पता चलेगा कि वे आदमियों के डॉक्टर हैं या पशुओं के। जब जब उनका दाव लगा करेगा, वे पशुओं के साथ-साथ आदमियों की जेब पर भी हाथ साफ़ कर लिया करेंगे।

पर अंदर ही अंदर पशुओं का डॉक्टर होने पर उन्हें इस बात का मलाल ज़रूर हुआ कि उनका वेतन आदमियों के डॉक्टर से कम था। कई बार सरकार की इस पशु विरोधी डॉक्टर नीति पर उन्हें ग़ुस्सा भी आता पर वे चुपचाप ग़ुस्सा पी जाते और सोचते- पता नहीं सरकार ने हम दोनों के डॉक्टर होने के बाद भी हमारी पगार में इतना फ़र्क़ क्यों रखा है? सच पूछा जाए तो आदमी के बदले पशु और उसकी बीमारी से भिड़ना अधिक जोख़िम का काम होता है। अगर चिंतन के स्तर पर देखा जाए तो आदमी भी तो जो सामाजिक को हटा दिया जाए तो एक पशु ही तो है। जब दोनों पशु हैं तो डॉक्टर की पगार में अंतर क्यों? अब तो चार टाँगों वाले  पशु दो टाँगों वाले पशुओं से अधिक समझदार हो चले हैं। क्या हुआ जो उनके सिर के ऊपर सींग होते हैं। ईमानदार आँखें हों तो सामाजिक पशुओं के सिर पर तो उनसे भी बड़े सींग होते हैं। उनका पता ही नहीं चलता कब किसीको अपने सींगों से आर-पार कर दें। ऐसा सोचते-सोचते कई बार वे पशुओं के डॉक्टर से अरस्तू से आगे के दार्शनिक हो उठते। ये पैसे का अंतर ही है जो सबको चिंतक बना देता है। अगर पैसे की असमानता न होती तो धरती पर एक भी चिंतक न होता। 

कई बार किसी बीमार पशु को घूरते हुए वे सोचते तो उन्हे बहुत दुख होता कि आदमी से तो लड़ झगड़ कर, डरा धमका कर उससे जेब कटवाने की बात की भी जा सकती है, पर पशु से क्या किया जाए? उसका तो इलाज करने से पहले भी सौ बार सोचना पड़ता है। और जो सरकारी बीमार साँड़ ने सुई लगाते-लगाते मार दी लात तो पड़ गए लेने के देने।  

तब कई बार तो उनका मन सोचता कि काश! वे पशुओं के डॉक्टर होने के बदले आदमियों के कंपाउंडर ही हो जाते। पर अब कुछ नहीं हो सकता था, सो कुछ नहीं हो सका। उनके दोस्त आदमियों के डॉक्टर हो उनको बीमार करते रहे तो वे पशुओं के डॉक्टर हो पशुओं को। 

 कल अचानक कमाल हो गया। न सोचने वाली कुर्सी को एकाएक लगा कि पशुओं का इलाज करने वाला भी तो असल में डॉक्टर ही है। और जबसे आदमी पशु हुआ है तो दोनों टाइप के डॉक्टरों की पगार में अंतर क्यों? कुर्सी तो दिखाने को ही सही, सदैव समाजवाद की हितैषी रही है। ये भी पशुओं का इलाज कर रहा है तो वह भी। उनके राज में गधे घोड़े सब बराबर। वोट तो सबका बराबर वेटेज रखता है न!  बल्कि उनके लिए गधे अधिक महत्वपूर्ण हैं। तंत्र की रक्षा के लिए खा पीकर ही सही, वे वोट पाने सबसे पहले, सबसे अधिक आते हैं, पूरे जोश-खरोश के साथ। इनकी समाजवाद को ढोने में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। कुर्सी के दिमाग़ में यह विचार बिजली की तरह कौंधा तो उसने अपने सलाहकार को बुलाया। हुकुम बजाते ही वह पूरा झुक कर बोला, "जी सरकार!”

"सलाहकार साहब! मेरी एक घोषणा और जारी करो, अभी के अभी।" 

"कहिए सर! मैं तो आपके पास नौकरी ही आपकी घोषणाओं को जारी करने की करता हूँ, उनका पूरा होना या न होना दूसरी बात है,” कह सलाहकार ने जेब से काग़ज़ पेन निकाले। बिन स्याही के  पेन को झाड़ा, काग़ज़ सीधा कर उसने कहा, "कहो मेरे आका! अब क्या घोषणा करनी है?”

"घोषणा कर दो कि कल से पशुओं को आदमी का दर्जा देते हुए उनके डॉक्टर को भी आदमी के डॉक्टर जितना वेतन मिलेगा!”

"पर सर! आदमी आदमी होता है और पशु पशु! कहाँ आदिमियों का डॉक्टर तो कहाँ पशुओं का! सर! आदमी और पशु को अपने राज में एक मंच पर मत लाइए हुज़ूर! ख़ून-खराबा हो जाएगा,” सलाहकार ने डरते हुए सलाह दी तो वे बोले, "वैसे कौन सा समाज में सब ठीक है? आदमी तो इन दिनों पशुओं से भी अधिक आतंक मचाए हैं। जिधर देखो.… देखो हमारे सलाहकार! कुर्सी हमारी है, इसलिए हुक्म भी हमारा ही चलेगा। जो कुर्सी कहती है, बस, घोषणा कर दो, वर्ना....।’

"पर सर! इसके लिए बजट कहाँ से आएगा?”

 "जहाँ से पहले आता रहा है। हमें बजट से नहीं, समाजवाद से सरोकार है बस! जनता को ख़ुश करने के लिए हम कुछ भी कर सकते हैं। बजट जाए भाड़ में।"

"पर सर! जनता में पशु नहीं आते!”

"अरे पशु भी भगवान के ही बंदे हैं न! मैं तो कहता हूँ कि पशुओं के डॉक्टरों की पगार आदमियों के डॉक्टरों से दुगनी कर दो,” कुर्सी के आर्डर के आगे सलाहकार सहमा। 

...... और घोषणा हो गई- कुर्सी ने सोच कर चाहा है कि अब आदमी पशु भाई-भाई होने के चलते  आदमियों के डॉक्टरों के जितना ही वेतन पशुओं के डॉक्टरों को भी अविलंब दिया जाए। यह सुन पशुओं डॉक्टर उछल पड़े, बिदक पड़े, और आदमी पशु भाई-भाई के बैनर तले उन्होंने सरकार के समाजवाद को सलाम ठोकते उसके समर्थन में शहर में धन्यवाद रैली निकाली तो कूड़े के ढेरों पर खड़े मरते-ठिठुरते ढोरों के लोकतंत्र में नई चेतना का संचार हुआ।    

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