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पति-परमेश्वर

मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था। आठ दिन हो गए दीतू का कोई पता नहीं। सारा काम हाथ से करना पड़ता है। सबेरे छ: बजे से उठ कर लगती हूँ तो रात नौ बजे के बाद चैन मिलता है। न जाने कहाँ मर गई। कह कर तो जाना था। अब तो इस कदर चिढ़ गई हूँ कि आते ही छुट्टी कर दूँगी। बहुत मिलती है काम वालियाँ। महीने में एकाध दिन का नागा हो तो चल जाए पर यहाँ तो आठ-आठ दिन हो जाते हैं। खैर पैसे लेने तो आएगी ही।

यूँ तो वह चार साल से काम कर रही है। इस बीच बन्टू भी हो गया। बन्टू तो दीतू से इतना हिल गया है कि इसकी उसे कोई चिन्ता ही नहीं रहती। कहीं जाना भी हो तो उसके भरोसे बन्टू सहित सारा घर छोड़ा और निकल गए घूमने। कुछ भी कहो है बहुत ईमानदार। आज तक एक पैसा भी नहीं उठाया उसने। गुस्से का आवेग कम होने लगता है। मन के किसी कोने से उस पर हल्की-सी सहानुभूति उमड़ती है। उसे छोड़ देगी तो कोई और इतनी ईमानदार मिलेगी भी नहीं। फिर कितनी समझदार है दीतू। कुछ भी नहीं बताना पड़ता है उसको। अनपढ़ होते हुए भी हर काम इतनी सफाई से करती है कि आश्चर्य होता है उसको। वरना पड़ोस वाले शर्मा जी के घर ही देखो, मिसेज शर्मा दिन भर चिल्लाती रहती है –

“इतनी देर से आई हो?” 

 “यह बरतन देखो कितना गंदा साफ किया है।”

“यह गिलास कैसे फूट गया?”

और तो और, दो तीन नागा कर जाए और पैसे काटो तो भी एक घंटे तक चिकचिक करेगी। आधा दिमाग तो चिल्ला-चिल्ला कर ही खराब हो जाता होगा। इस लिहाज से दीतू कई गुना अच्छी है। आती है तो बराबर सात बजे के पहले आ जाती है अन्यथा नहीं आती। पैसे काटने पर भी एक भी शब्द नहीं बोलती।

घड़ी साढ़े छ: बजा रही थी। तभी नल बरस पड़ा। मैं बौखला-सी गई! माथे पर  त्योरियाँ चढ़ गईं। अभी तो जरा से ही बरतन साफ हुए हैं। पानी भरना, नाश्ता तैयार करना ओह कितने सारे काम हैं। ठीक है पहले पानी ही भर लिया जाए। जल्दी-जल्दी में साड़ी पाँव में उलझ जाती है, सम्हल नहीं पाती और धड़ाम से सिर टकराता है दीवार से।

“हाय राम! जितनी जल्दी करना चाहती हूँ उतनी ही देर हो रही है।”

हल्की-सी चोट लगती है सिर में। सिर ठोकते हुए एकबारगी पुन: सारा गुस्सा दीतू पर उतरता है –

“बेवकूफ कहीं की। चली क्या गई मेरी तो मौत ही आ गई।”

तभी पीछे आंगन के दरवाजे पर आहट होती है। दरवाजा खोलते ही देखा सामने दीतू खड़ी थी। गुस्से का लावा उस पर फूट पड़ता है –

“अब आ रही हो मालूम है कितने दिन हो गए, नहीं आना हो तो इनकार कर के क्यों नहीं जाती, आठ-आठ दिन तक गायब रहती हो!”

एक साँस में बोल गई मैं। जैसे ही गौर से देखा दीतू का उदास चेहरा और अपराध-बोध से सराबोर आँखें तो कुछ नरम होते हुए पूछा

“बोलती क्यों नहीं क्या हो गया था?”

दीतू ने पहले पानी की बाल्टी सम्हाली और बोली –

“पूछो मत बाई सा’ब मेरी तकदीर ही खोटी है।”

मैंने देखा उसकी आँखें गीली हो आई हैं, पीली-पीली आँखों में आँसू तैरते देख मेरा गुस्सा काफूर हो गया। मैं निश्चिंतता से नाश्ता तैयार करने लगी। सान्त्वना देते हुए पूछा, “क्या हुआ बताओ तो।”

“वही बाइसाब जो हमेशा होता है, उस हरामी ने भोत परेसान कर दिया अब तो।”

मैं समझ गई उसका इशारा उसके पति की ओर था। मैंने देखा पानी भरते हुए उसके नथुने फूल गए हैं। वैसे तो वह बहुत सलीके से बोलती थी पर जब अपने पति से बहुत ही तंग आ जाती तो बेहद गालियाँ देती। कई बार ऐसा ही होता था पर वह एक या दो दिन में वापस आ जाती। इस बार आठ दिन हो गए थे अत: मेरा गुस्सा भी स्वाभाविक था। मैं उसकी मनोव्यथा को महसूसती और वह अपना दुखड़ा मुझे सुना हल्की हो जाती। वह मुझे अपना हमदर्द समझने के साथ-साथ बहुत आदर भी देती थी। मैंने संभावित आशंका व्यक्त की।

“क्या शराब पी कर आया था?”

“अरे बाईसाब दारु तो वह रोज पीता है। मुए को दारु नी मिले तो मेरा गला घोंट दे। रोज मेरे से पैसे मांगता है दारु के लिए। बाइसाब मैं भी दे देती हूँ। पैसा ले के पीछा छोड़ देता है, पर अब के तो वह राक्षस बन गया था।”

वह रुक गई। मैं उतावली हो रही थी सुनने के लिए।

“हाँ हाँ कहती जाओ, क्या किया उसने?”

वह पानी भर कर बरतन साफ करने लगी। नजरें झुकाए बोलती गई –

“बाईसाब उस दिन उसने बहुत दारु पीया था। खूब चिल्ला रहा था, ओटले पे बैठ के अंट-संट गालियाँ दे रहा था। मैं यहाँ से काम कर के गई तो मेरे पे भिड़ गया। पहले तो उसने खूब मारा लकड़ी-लकड़ी से। जब मैं बेदम हो गई तो वह भी पड़ गया। जैसे-तैसे सुबह हुई। मेरे में उठने की ताकत नहीं बची थी। मुए ने फिर एक लात जमाई और बोला -  ‘निकल जा मेरे घर से मैं दूसरी लाऊँगा। कमजात, बांझणी...’ और न जाने क्या-क्या खूब गालियाँ देने लगा। मेरे को भी ताव आया मैंने भी खूब गालियाँ दी उसको।

उस दिन तो वह जाने कहाँ चला गया। दूसरे दिन एक लुगाई ले आया और बोला –‘तू निकल जा ये मेरा घर है’ मैं सकते में आ गई। चूल्हे का लकड़ा ले के खड़ी हो गई और बोली –‘कमाती मैं हूँ तेरा घर कां से आया? मेरे घर से इसको ले के चला जा नी तो अभी मार डालूँगी।’

मैं बहुत गुस्से में थी वह डर कर चला गया। थोड़ी देर बाद अकेला आया और मेरे को खींचतान कर ले जाने लगा। बजार में झगड़ना अच्छा नी लगता है बाईसाब सो मैं भी सीधी-सीधी चली गई। मेरे को गाड़ी में बिठा के सास के पास गाँव में छोड़ आया। तीन-चार दिन बाद मेरा ससुर आकर छोड़ गया। घर आ के मैंने देखा ये पी के पड़ा था। मेरे को देखते ही फिर मारने को खड़ा हो गया। मैं भी हाथ-पाँव चलाने लगी, तो चला गया अभी तक नी आया। आज मेरा दरद कम हुआ तो काम पर आ गई। बाईसाब मैं तो कहती हूँ कि ये मर जाए तो अच्छा रहे, इत्ता दारु पीता है फिर भी मरता नी है।”

मैं बड़े गौर से उसकी दास्तान सुन रही थी। तभी बन्टू को लेकर अविनाश आ गए। मुस्कुराते बोले

“अच्छा दीतू आ गई!” 

“ हाँ आ गई, तभी तो निश्चिन्त हूँ मैं। अच्छा आप ब्रश कीजिए, चाय-नाश्ता तैयार है। बन्टू को मुझे दे दीजिए।”

अविनाश को दफ्तर के लिए रवाना कर बन्टू को तैयार किया और खाना बनाने लगी। दीतू बन्टू को खिला रही थी। कभी घोड़ा बनती तो कभी हाथी। बन्टू भी हाथ हिला-हिला कर बेहद खुश हो रहा था। मैं मन ही मन सोच रही थी कितनी भोली है दीतू। कहती है पति मर जाए तो अच्छा रहे। यह भी तो उन भारतीय नारियों में से एक है जो अपने सुहाग की रक्षा के लिए ढेर सारे व्रत, उपवास और न जाने क्या-क्या करती हैं, लेकिन पति भी तो वही कहलाता है जो पति के कर्तव्य निभाए, वरना दीतू के पति और एक दुराचारी राक्षस में अन्तर ही क्या रहा। कितना परेशान करता है बेचारी को। कमा कर ला कर देना तो दूर, इसका खाकर भी मारता है।

अकस्मात् उसके काले-काले हाथों पर नज़र जाती है जिसमें उसने एक-एक चूड़ी पहन रखी थी। वह मेरी पूरानी चूड़ियाँ और फटी साड़ियाँ आदि शौक से पहनती थी। मैंने सहजता से पूछा –

“दीतू मैंने तुम्हें उस दिन चूड़ियाँ दी थीं तुमने पहनी नहीं?”

पल भर के लिए उसने आँखें मूँद लीं लंबी साँस खींच कर बोली –

“पहनी थी बाईसाब, हरामी ने हड्डी हड्डी तोड़ दी तो चूड़ी कब बचती?”  

मैं सिहर गई। उसका एक-एक शब्द उसकी अपनी पीड़ा की, यातनाओं की कहानी सुना जाता था

“अच्छा जाते हुए ले जाना मेरे पास और पड़ी हैं।”

“जी, बाईसाब।”

बन्टू खेलते-खेलते सोने लगा था। बन्टू को सुलाकर वह फर्श धोने में लग गई।

अविनाश लंच के लिए बारह बजे तक आते हैं, अभी काफी समय है उनके आने में। किचन का सारा काम करीब-करीब निपट चुका है। सोचा पहले अखबार पढ़ लिया जाए, फिर नहा लूँगी। फर्श धोती दीतू के समीप से गुजरी तो काँप उठी। उसकी खुली पीठ पर लम्बे-लम्बे नीले घाव से हो रहे थे।

“अरे यह क्या तुम्हारी पीठ पर तो.....”

 “चलता है बाईसाब कोई नई बात नहीं है।”

उसने फटी हुई साड़ी को सावधानी से पीठ पर लपेट लिया। मुझसे रहा नहीं गया।

“तुम यह काम छोड़ो पहले टिंचर आइडीन लगवा लो।”

“रहने दो बाईसाब।”

“रहने क्या दो! उठो।”

मैं आहिस्ता-आहिस्ता जमा हुआ खून पौंछकर टिंचर लगाने लगी। बीच-बीच में वह कराह उठती। मैंने मन ही मन उसके पति को सैकड़ों गालियाँ दे डालीं। वाकई वह ठीक कहती है कि वह मर जाए तो अच्छा। बिचारी को इस यातनामयी, अन्यायपूर्ण जीवन से छुटकारी तो मिले। ऐसी नीचता से तो पशु को भी नहीं पीटा जाता।

“दीतू यदि कभी वह नशे में नहीं होता है तो अच्छी तरह बोलता है?”

“हाँ बाईसाब! बिना नशे में तो वह बहुत अच्छा रहता है, पर महीने में एकाध दिन ऐसा होता है, जब वह पीता नहीं। रोज रात-दिन नशे में धुत रहता है तो मारने और गालियाँ देने के सिवा कुछ नहीं सूझता। घर से निकालती हूँ तो बाजार में लोग कुत्ते की तरह दुतकारते हैं।”

“तुम किसी तरह शराब छुड़वा क्यों नहीं देती?” 

“बाईसाब ऐसा हो जाए तो मुझे सरग मिल जाए जीते जी। इस जिंदगी में तो वह दारु छोड़ दे लगता नहीं। क्या बताऊं आपको, पानी की जगह दारु पीता है। ऐसी लत पड़ गई है कि रात-दिन नशे में रहता है। खाने दो तो खा लेता है वरना पड़ा रहता है। सनक आ जाए तो मेरे को मार-मार कर जोस ठंडा करेगा नी तो सोया रहेगा।”

मेरे पास कहने को कुछ नहीं था। निरुत्तर हो गई मैं। वह पुन: काम में लग जाती है। मैं भी ताज़ा अखबार उठा पढ़ने में लीन हो जाती हूँ।

आज बन्टू का जन्मदिन है और संयोग से रविवार भी। शाम की पार्टी की तैयारियों में मैं और अविनाश सुबह से ही व्यस्त हैं। दीतू भी दुगुने उत्साह से दौड़-दौड़ कर काम कर रही है। आज वह धुली हुई साड़ी और मेरे द्वारा दी हुई चूड़ियाँ पहन कर आई है। बड़ी उमंग से पूछती है –

“बहुत सारे लोग आएंगे न बाईसाब?”

“हाँ।”

“बाजे भी बजेंगे न?”

“अरे बाजे क्यों बजेंगे भला? साल-गिरह है कोई जनम थोड़े ही हुआ है?”

मुझे लगा मुझसे ज्यादा खुश तो यह है, अपने बाबा के जनम दिन पर। वह बन्टू को बाबा ही कहती है। सारा काम निपटाते शाम हो गई। मेहमानों का आना प्रारम्भ हो गया। करीब पच्चीस-तीस लोगों की उपस्थिति में शानदार पार्टी हुई। पार्टी का आकर्षण मिस्टर चौपड़ा थे जो अपनी नई-नवेली दुल्हन को लेकर आए थे। यह उनकी दूसरी शादी थी। पहली पत्नी से अनबन थी उनकी। एक माह पहले ही मिसेज चौपड़ा की तरफ से तलाक की पहल हुई तो मिस्टर चौपड़ा ने भी तत्काल स्वीकृति दे दी और पन्द्रह दिन के अंदर दूसरी शादी भी हो गई। कुछ देर गपशप के बाद एक-एक करके सब बिदा हो गए।

दीतू सब समेटने में लगी हुई थी। रंग-बिरंगे कागजों में लिपटे गिफ्ट के सामान को देखती और सावधानी से आलमारी में रख देती। यकायक मुझे ख्याल आया कि दीतू ने तो अब तक कुछ भी नहीं खाया। एक प्लेट में मिठाई व नमकीन निकाल मैंने उसे दिया तो वह बोली –

“जाऊँगी तब लेती जाऊँगी।” 

“यहीं खा लो न! सुबह से काम कर रही हो भूख भी लगी होगी।” 

“नहीं बाईसाब, घर ले जाऊँगी तो वह भी खा लेगा।” 

“वह कौन...? अच्छा-अच्छा पर वह जब तुम्हारी चिन्ता नहीं करता तो तुम क्यों उसकी चिन्ता करती हो?” 

“मेरा मन नहीं मानता बाईसाब! मिठाई देख के खुश तो होगा थोड़ा। बिचारे को कहाँ खाने को मिलती है। बरसों हो गए होंगे।”

मुझे एहसास हुआ मैं दीतू के सामने एकाएक बहुत छोटी हो गई हूँ। माथे पर आए पसीने को पौंछते हुए तत्काल कहा –

“अच्छा, तुम खा लो। उसके लिए मैं अलग से दे दूँगी।”

उसने खुश होकर प्लेट ले ली। बन्टू सो चुका था। अविनाश थके-से लेटे थे और मैं भी बहुत थक गई थी। खा-पीकर दीतू ने सफाई की और बर्तन साफ करने लगी। मुझे दया आ गई। यह भी कितनी थक गई होगी। दिन भर से जुटी है काम में। मैंने कहा –

“रहने दो, बर्तन बहुत हैं सबेरे साफ कर लेना।”

“अच्छा बाईसाब।” 

“ये पैकेट लेती जाना।”

“जी।”

उसके जाते ही सोने की तैयारी करने लगी मैं।

सात बज गए हैं आज फिर न जाने क्या हो गया दीतू महारानी को। नल का पानी तो मैंने भर लिया पर ढेर सारे बरतन देखकर होश उड़ रहे हैं। फिलहाल तो रहने देती हूँ वरना बहुत देर हो जाएगी। मैं चाय-नाश्ते की तैयारी में जुट जाती हूँ। कुछ ही देर बाद दीतू आती है हाँफती हुई।

“बाईसाब आज भी आपको सारा काम करना पड़ा न?”

“वो तो ठीक है पर आज फिर क्या हो गया?”

मैं पिघल गई क्योंकि उसके आँखों के पपोटे लाल हो रहे थे। उसकी बेतरतीब दशा देख विश्वास हो चला था कि उसके साथ कुछ विशेष घटित हुआ है। एक क्षण की चुप्पी के बाद बरतन घिसती बोली वह –

“बाईसाब, वो हरामी भोत सनकी है। रात में तो खुशी-खुशी मिठाई खा ली पर सवेरे-सवेरे उठ के एक बोतल चढ़ाई और हो गया शुरू ‘कहाँ से लाती है तू मिठाई, बता कौन खसम है तेरा?’बकता रहा। लातों से पिटते-पिटते मैं दरवाजे से निकल आई और भाग आई।”

“च्च च्च च्च आदमी है या राक्षस। तुम उसे छोड़ क्यों नहीं देती?” 

“बाईसाब वह लाख लांछन लगाए। मैं तो सच्ची हूँ फिर क्यों डरूँ? सात फेरे लिए हैं तो जीते जी कैसे छोड़ दूँ? मर जाए तो एक नाम हो जाए कि मर गया। मेरी तो किस्मत ही खोटी है बाईसाब।”

“किस्मत को क्यों दोष देती हो? तुम स्वयं ही बिगाड़ रही हो अपनी किस्मत।”

वह कुछ नहीं बोलती है शायद मुझसे असहमत होकर तर्क करने का साहस नहीं है उसमें। बरबस मुझे मिसेज चौपड़ा याद आ जाती हैं। बेहद गुस्सा आता है दीतू पर। सहसा कुछ सोचते हुए कहा –

“आज शाम को हम लोग बाहर जा रहे हैं। पाँच-छ: दिन में वापस आएंगे। बुधवार को सबेरे देख लेना तुम।"

“अच्छा बाईसाब।”

बुधवार को वह अपने समय पर ही आ गई। मैंने देखा दो दिन में वह बिल्कुल सूख-सी गई थी। चेहरा बहुत उदास था। कोरे-कोरे हाथ और मैली-कुचैली साड़ी।

“क्या बात है तबियत तो ठीक है न?”

इतना कहना था कि वह फूट-फूट कर रोने लगी। मैं घबरा गई कुछ समझ में नहीं आया, “हुआ क्या जो इस तरह रो रही हो।”

उसके आँसू थमने की बजाय बहते चले जा रहे थे। सिसकते हुए बोली – “बाईसाब वह चला गया।” 

“ कहाँ?”  

“भगवान के घर।”

“क्या! मर गया?” 

“हाँ बाईसाब, दो दिन हो गए।” 

“पर कैसे?” 

“दारु पीकर सड़क पर पड़ा था। रात में अंधे ड्रायवर ने ऊपर चढ़ा दी गाड़ी।”

“हाय! ड्रायवर को तो पुलिस ले गई होगी।” 

“अब कुछ भी करे पुलिस, पर वह जिन्दा थोड़े ही हो सकता।”

वह रोए जा रही थी। मुझे उस पर बीती पिछली घटनाएँ याद आने लगी। मैं नि:संकोच बोलती चली गई –

“अरे तुम्हें तो खुश होना चाहिए। मर गया तो पिंड छूटा तुम्हारा। अब तुम चैन से रह तो सकोगी। तुम्हीं तो कहती थी....”

“नहीं बाईसाब, ऐसा न कहो। वह मैं नहीं मेरा गुस्सा बोलता था। ऐसे झगड़े तो चलते रहते हैं। मैं क्या जानूँ कि इत्ता बड़ा दु:ख पड़ने वाला है मेरे ऊपर।”

“अरे दु:ख काहे का अब तो तुम और सुखी हो गई हो।”

वह फफक पड़ी मेरा यह थोपा हुआ सुख उसकी आत्मा ने नकार दिया। सिसकती हुई बोली–

“नहीं बाईसाब, वह कैसा भी था मेरा मरद था। उसके होते मेरी ओर कोई आँख नहीं उठा सकता था। आज मेरा मरद नी रहा तो दूसरे सौ मरद घूरेंगे।”

मैं उसे देखती ही रह गई। मेरी नज़रों में वह एक महान औरत बन गई थी। उसका यह वाक्य कटु सत्य था। मेरे सामने सहनशीलता, धैर्य और सतीत्व की जीती-जागती एक मिसाल खड़ी थी। मैं खोई-खोई नज़रों से उसे घूरे जा रही थी और वह अविरल बहते आँसू पौंछ रही थी।

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