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पत्नी का अविश्वास प्रस्ताव

“ए जी आप पहले जैसे नहीं रह गए ...!”

एक वाक्य में पत्नी ने अविशास प्रस्ताव प्रस्तुत कर दिया। हम सरकार के गिरने की उम्मीद लगा बैठे।

“पगली तुम्हें आज चालीस साल बाद ये महसूस क्यों हुआ ..? देखो हमने विकास के कितने सारे काम किये हैं। तुमने सब चूल्हे में झोंक दिया...? बताओ क्या कमी देखती हो अपने सरकार में; फिर हम भी अपनी सरकार की सुनाएँगे तो, समझो चलती गाड़ी का पहिया बिलकुल रुक जाएगा।”

मेरी चेतावनी पर ध्यान वो अक्सर नहीं देती, इस बार भी वो इसे इग्नोर कर जाती, मगर हम जज़्बाती होकर ज़रा तल्ख़ी में बोल गए थे लिहाज़ा मामले ने दाम्पत्य जीवन के शांति भंग की सीमा लाँघ ली थी। वह कुछ नरम पड़ी।

हम जानते थे कि दिलासे का ज़रा सा भी हाथ फेरा तो, वह सुबक पड़ेगी...!

नॉर्मल करने के अंदाज़ में पूछा, “देखो तुम्हारा बैल जैसा पति ऑफ़िस से सीधे घर आता है। अद्धी-पौव्वा का औरों की तरह चक्कर नहीं पालता। ढेरो बालाएँ-बलाएँ ऑफ़िस से घर के बीच टकराती घूमती हैं; उनसे बच के निकला रहता है, फिर बताओ, ये क्या बात हुई "आप पहले जैसे नहीं रह गए "....? चलो पहले वाली ख़ूबियाँ गिनवा दो, ख़ामियाँ बाद में सुन कर देखेंगे क्या बात है? आज शादी के चालीस साल बाद तुमने विपक्ष की तरह लंबा मुँह खोला है।”

“जब हनीमून में गए थे तब आप कैसे आगे-आगे हर काम किये रहते थे। स्टेशन से बैग लादना, हर रेस्टोरेंट में ऑर्डर देने के पहले बाक़ायदा पसन्द का पूछना, हर शॉपिंग माल में बिना ऐतराज के मेरी ली हुई चीज़ों का तारीफ़ करना, उस पर ये कहना वेणु तुम्हारी पसन्द लाजवाब है। मैं विभोर हो जाती थी। तुम ये भी कहते तुम्हारा टेस्ट अच्छा है वेणु… इस चक्कर में शायद मैं भी पसन्द आ गया ना? सभी मर्द शादी की शुरूआत यूँ ही करते हैं क्या…?“

मैंने कहा, “वेणु, अरसा पहले कहीं पढ़ा था, जब आदमी नई कार लेता है और बीबी बैठने को आती है तो पति दरवाज़ा ख़ुद खोलता है। इसे देखकर लोग दो अनुमान लगाते हैं, या तो कार नई है या शायद बीबी…,” मेरे इस जोक की पॉलिश उसको कुछ उतरी हुई लगी।

वह तर्क के दूसरे सिरे को पकड़ने को हुई, “जनाब ! शादी के शुरूआती दिनों में आपकी हालत अपने स्टेट जैसी जर्जर थी, न सलीक़े का पहनना आता था न कोई खाने-पीने का टेस्ट था। मैं सिर्फ़ खाने की कह रही हूँ, पीने का शुरूआती टेस्ट तो आपने, दोस्तों की संगत में आज़माना चालू कर दिया था। मैं आपकी डेंटिंग-पेंटिंग क्लास सख़्ती से न लेती तो आप ढोलक माफ़िक फूल गए होते...।”

उलाहना दर उलाहना मुझे झुकाने, नीचे पटकने का यह अर्द्धवार्षिक कायर्क्रम पिछले कुछ दिनों से तिमाही के स्तर पर सेंसेक्स की भाँति लुढ़क गया है। मुझे अपनी टीआरपी सुधारने का नुस्ख़ा तब हासिल होता है, जब कोई धाँसू चीज़ लिख के उम्दा मैग्ज़ीन में छपवा लूँ। मैं फ़ख़्र से उन्हें दिखा कर कहता, “ये छपी है देख लो।

इस नुमाइश में वह आर्थिक पहलू पर नज़र रखती है, “इस छपे पर कितना मिलेगा ...?”

मैं कहता, “वे आजकल कुछ देते-वेते नहीं। उलटे ईमेल से भेजो तो नख़रे दिखाते हैं, “हम ईमेल की रचना स्वीकार नहीं करते”। भाई लोग हार्ड कॉपी माँगते हैं। चार रचनाओं के स्पीड पोस्ट में भेजते, किसी ग़रीब लेखक का क्या होता होगा पता नहीं...?”

“मैं देखती हूँ, जब भी अपने ग़ुस्से का व्यावहारिक इज़हार करती हूँ तो आप अपनी साहित्य-यात्रा में निकल पड़ते हैं या इसे बीच में ढाल बना खड़े हो जाते हैं। साहित्यक भाव हम में भी मौजूद हैं मगर आपके चूल्हे-चकले के झंझट में वहीं रोटी माफ़िक गोल हो जाते हैं। हाँ, तो मैं कह रही थी, "आप आजकल बदल गए है"।”

मैंने बात को फिर मरोड़ा, “हाँ, साठ साल की उम्र बदलने की ही होती है।”

रिटायरमेंट के फ़क़त छह महीनों में ये हाल है, हमें घर बैठे देख ऊब जाने का, तो आगे अल्ला जाने क्या होगा, मौला जाने क्या होगा?

“देखो घर में दिन भर, कोट-टाई में, हिंदुस्तान का कोई भी माई का लाल नहीं रहता। देशी स्टाइल, यानी लुंगी -पाजामा कुरता, बनियान यही लपेटे रहता है। हमसे ज़रा नीचे लेवल वाले लोग तो धारीदार चड्डियों में ही पाए जाते हैं। अब इसे बदलना कहते हैं तो बेशक़ हम बदल गए हैं।”

वह बेकार की बातों पर कान धरने की फ़ुरसत नहीं पा रही थी। उसने झल्लाते हुए अंतिम हथियार की सौगात ब्रह्मास्त्र के रूप में दी, ग़ुस्से में उसने पूछा, “आज तारीख़ क्या है?”

मैंने सहजता से कहा, “छह अगस्त .....? कल ही तो बैंक से विथ-ड्रावल करके घर ख़र्चे वाली रक़म दी थी कि नहीं,” मैंने याददाश्त पर ज़ोर देकर बताया।

उधर से दाँत पीसने की प्रतिक्रिया नज़र आई … “बस छह अगस्त… फिर कल...?”

मैंने उसी सहजता से फिर कहा, “एक दिन पहले तो पाँच अगस्त हुआ न ..न..न ..?”

पाँच अगस्त याद करते ही मेरी जीभ लड़खड़ा गई… !

“सॉरी वेणु डार्लिंग मुझे तुम्हारा बर्थडे परसों तक बामुक़म्मल याद था। मैंने आराधना ज्वेलर्स को एक तारीख़ को बाक़ायदा आर्डर दिया है नए डिज़ाइन के नेकलेस का। ये वही नेकलेस है जिसे तुम हसरत से रिटायरमेंट के पहले उस ज्वेलर्स की शॉप में देख रही थी। मैंने ख़ुद से वादा किया था रिटायरमेंट के बाद के पहले बर्थडे पर इस बार वो तोहफ़ा तुम्हे दूँगा।”

उसके मुरझाये चहरे पर तनिक विश्वास लौटा। वह मेरे चरण छूने को झुकी मैंने बाहों मे थाम लिया।

मैंने उससे कहा, “हर बर्थडे पर तुम पैर छूती थी कल क्या हुआ जो...?“

“अगर छू लेती तो मुझे याद नहीं आ जाता क्या...? मैं ये देखना चाहती थी मेरे भुल्लकड़ राम क्या-क्या भूल सकते हैं...? मैंने मौन व्रत ले रखा था अपनी तरफ़ से ...कई बहाने किये आपको याद आ जाए, मगर आप अब अलग दुनिया में खोये रहते हैं।”

“चलो ज्वेलर्स के पास चलें वरना…!”

मैंने चलने की तैयारी करते पूछ लिया, “बच्चों ने विश किया...?”

वह फिर उदासी की लंम्बी गुफा में समाने आ गई, उच्छवास के साथ बोली, “आजकल सब अपनी लाइफ़ जीते हैं... पता नहीं उन्हें याद भी हो या नहीं...? हो सकता है, उधर की तारीख़ एक दिन बाद आती है, शायद आज कोई याद कर ले...?”

मैंने कहा, “कोई बात नहीं, छोड़ो, मेरी तरह भूल जाओ उनको, “तुम अपनी मर्ज़ी की आज पूरी शॉपिंग कर लो।”

मैंने ए.टी.एम. कार्ड को चेक कर वालेट में रखा…, “बाहर ही खाकर लौटेंगे।”

वह निशब्द साथ हो ली...।

मुझे लगा...

अविश्वास प्रस्ताव ने आख़िर दम तोड़ दिया।

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