अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

पत्रकारिता

राजनीति विज्ञान में एम.ए. करने के वह बतौर स्वतंत्र पत्रकार कार्य करने लगा। भाषा पर अच्छी पकड़ होने के कारण वह कुछ ही समय में तरक़्की की सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। अपने लेखन की बदौलत समाज के रुसूख़दार लोगों से उसका संपर्क बढ़ने लगा। कुछ ही समय में उसे डाक से अनेक ऐसे पत्र मिलने लगे जिनमें उसके किसी न किसी लेख की प्रशंसा रहती थी। वह जब कभी उन पत्रों को अध्यापन से सेवानिवृत अपने पिता को दिखाता, वे उन्हें पढ़कर शांत भाव से एक तरफ़ रख देते थे। 

यह सिलसिला डेढ़ साल तक चला। उसके बाद उसे अनेक ऐसे पत्र भी मिलने लगे जिनमें लिखने वाले प्रशंसा के बजाय उसकी आलोचना करने लगे थे। कुछ पत्रों में तो उसके लिए अशोभनीय बातें भी लिखी जाने लगीं थी। एक दिन ऐसे कुछ पत्र उसके पिता की नज़र में आए तो वे उसके कंधे पर हाथ रखकर बोले, "मुझे ख़ुशी है कि अब तुम पत्रकारिता करने लगे हो।"

अपने अनुभवी और ईमानदार पिता के मुँह से यह सुनकर उसने मुस्कराते हुए कहा, "पापा, मैं तो शुरू से ही पत्रकारिता कर रहा हूँ।"

उसके पिता उसके कंधे को थपथपाते हुए बोले, "नहीं! जब तुम्हें सिर्फ़ प्रशंसा भरे पत्र मिलते थे, तब तुम चाटुकारिता किया करते थे।"

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता - हाइकु

स्मृति लेख

लघुकथा

चिन्तन

आप-बीती

सांस्कृतिक कथा

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

व्यक्ति चित्र

कविता-मुक्तक

साहित्यिक आलेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं