पीड़ा रे पीड़ा
काव्य साहित्य | कविता राहुलदेव गौतम15 Jun 2019
पीड़ा अब रेत बन गयी,
जिसपे सच का घरौंदा खड़ा है,
पीड़ा अब खाली बन गयी है।
जिसपे सफ़र की कुछ धूल मिली है,
कुछ छूट गया है,
कुछ साथ चला है,
पीड़ा अब रेगिस्तान बन गयी है।
क़दमों में ज़ंजीर बँधी है,
हाथों में कुछ तक़दीर भरी है,
पीड़ा अब असमंजस बन गयी है।
ख़्वाहिशें कुछ छूट चली हैं,
अभिव्यक्ति चुपचाप खड़ी है,
पीड़ा अब तमाशगीर बन गयी है।
चलकर क्या पाया मुनाफ़ा,
ठहरकर क्या खोया घाटा,
पीड़ा अब व्यापार बन गयी है।
कुछ महँगी है आहट की ख़ामोशी,
कुछ सस्ते हैं विचारों के कोलाहल,
पीड़ा अनगिनत इच्छाओं का
बाज़ार बन गयी है।
पीड़ा अब रेत बन गयी है,
जिसमें आँसुओं का जल मिल गया है,
कितनी मात्रा में पीड़ा है,
कितनी मात्रा में पानी,
ढूँढ़ते हैं हम इसमें हम कहाँ हैं,
पीड़ा अब जीवन की प्रयोगशाला बन गयी है।
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