अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

फाँस

निन्नी का मन तो उस दिन से अशांत था। फाँस ही ऐसी थी, जो शायद अब पूरी ज़िंदगी चैन नहीं लेने देगी। इस हादसे के बाद से, उसका दिमाग़ ऐसा सुन्न कर दिया गया था कि वह कुछ भी सोच नहीं पाई थी। रह-रहकर एक बवण्डर सा उठता। कोई बात याद आती। फिर एक-एक करके सब कुछ उभरने लगता था।

अपने किचन में व्यस्त थी निन्नी, तभी टेलीफोन की घंटी घनघना उठी। बार-बार आ रहे टेलीफोन से वह पहले से ही परेशान थी। घंटी सुनते ही उसका सिर भन्नाने लगा। जी में आया टेलीफोन ही अब उठाकर फेंक दिया जाना चाहिए। स्टोव को सिम करते हुए वह टेलीफोन तक पहुँच ही पाई थी कि घंटी बजनी बंद हो गई। पैर पटकते हुए वह किचन की ओर बढ़ रही थी कि फिर घंटी बज उठी। अब उसका गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ आया था। बुदबुदाते हुए वह फिर लौटी। रिसीवर उठाया। उस तरफ भैया थे। भैया का स्वर डूब सा रहा था, बोलते-बोलते वे रुक भी जाया करते थे। शंका-कुशंका के भँवर में वह फँसती जा रही थी। बड़ी मुश्किल से वे सिर्फ इतना ही कह पाए 'माँ सीरियस है निन्नी, जितनी जल्दी हो सके चली आओ।" इसके बाद उन्होंने क्या कुछ कहा उसे नहीं मालूम। खबर सुनकर ऐसा भी लगा जैसे शरीर को काठ मार गया हो। कान से टेलीफोन चिपकाए वह बड़ी देर तक खड़ी रही। उसे तो यह भी भान नहीं रहा कि टेलीफोन कभी का डिस्कनेक्ट हो चुका है। कुछ नार्मल होते ही फफक कर रो पड़ी थी निन्नी।

हड़बड़ाहट में उसने सूटकेस पैक किया। नौकरानी को आवश्यक निर्देश दिए। बच्चों को कुछ खिला देने को भी कहा। सूटकेस पैक करते समय उसे नरेन्द्र और माँजी की बराबर याद आ रही थी। काश इन दोनों में से कोई एक, उसके पास होता तो वह अपना दु:ख शेअर कर सकती थी और उनके कंधे पर सिर रखकर थोड़ी देर ही सही- रो तो सकती थी। रुलाई के बाद थोड़ा मन का बोझ तो हल्का हो जाता।

गैराज से गाड़ी निकालकर वह गेट पर रुककर बच्चों का इंतज़ार करने लगी थी। बच्चों को आता देख उसने गेट खोल दिया। बच्चों को बिठाया। सूटकेस रखवाया और आगे बढ़ ली।

गाड़ी चलाते समय माँ की याद घनी हो आती। कैसी होगी माँ। ज़िंदा है अथवा चल बसी। नहीं जानती। पर माँ की याद उसे रुला जाती। डेढ़-दो सौ किलोमीटर का सफ़र कब और कैसे तय हो गया, पता ही नहीं चल पाया।

गाड़ी रोकते हुए उसने स्पीड से गेट खोला और जूतियाँ खटखटाते हुए सरपट भाग निकली। बच्चों को भी उतारना है यह उसे याद नहीं रहा। सीधे वह माँ के कमरे में पहुँची। माँ को देखा। सन्न रह गई। महीना भर पहले तो ठीक थी माँ। अचानक यह क्या हो गया? उसने मन ही मन अपने आपसे कहा था।

दो सफ़ेद चादरों के बीच माँ का जिस्म पड़ा था। माँ का हाथ थामे भैया, सिर झुकाए बैठे थे। भाभी भी उदास-गमगीन, पाँयते बैठी थी। देखते ही लगा, खेल ख़त्म हो गया है। कलेजा मुँह को हो आया। रुलाई फूट पड़ी। अब वह माँ के शरीर से लिपटकर जार-जार रोए जा रही थी। क्या हो गया भैया माँ को? कब से बीमार पड़ी थी। पहले सूचना क्यों नहीं दी। किसी अच्छे डाक्टर को दिखलाया था। अस्पताल में भर्ती क्यों नहीं करवाया। तरह-तरह के प्रश्नों की बौछार लगा दी थी निन्नी ने। भैया बार-बार पीठ पर हाथ फिराते रहे। समझाते रहे। बड़ी मुश्किल से वह अपने आप पर काबू पा सकी थी।
उसने महसूस किया कि माँ का शरीर अभी गर्म है। उँगलियों के पोर नाक के पास ले जाकर देखा। हल्की-हल्की साँसें चल रही हैं। उसने नब्ज़ टटोली। वह भी धीमी गति से चल रही है। यह जानकर प्रसन्नता सी हुई कि माँ अब तक ज़िंदा है। माँ के शीघ्र स्वस्थ हो जाने के लिए वह ईश्वर से मन ही मन प्रार्थना करने लगी। वह न जाने अब तक कितने ही देवी-देवताओं को नवस चुकी थी।

एक-एक पल भारी लग रहा था। कब क्या घट जाए कहा नहीं जा सकता। तीनों एक दूसरे के चेहरे की ओर देखते। मन से मन की बात होती। नज़रें अनायास ही झुक जातीं। सभी गंभीर मन। मन में समाए डर से आतंकित।

घड़ी ने रात के चार बजाए। एक हल्की सी कराह, माँ के मुँह से निकली। सभी की नज़रें माँ के निस्तेज चेहरे पर आकर केन्द्रित हो गईं। सभी उसे ध्यान से देखने लगे। निर्जीव पड़े शरीर में हल्की-सी हरकत हुई। ओंठ फडफ़ड़ाए। शायद वे कुछ कहना चाह रही होंगी। अधीरता के साथ निन्नी ने माँ-माँ कहा, कुछ शरीर को हिलाया-डुलाया भी। फिर वे अचेत हो गईं। सारे लोगों के दिल एक बार फिर भय के साथ धड़के थे। सारी रात आँखों ही आँखों में कैसे कट गई, पता ही नहीं चल पाया।

सुबह होते तक सब कुछ सामान्य होने लगा था, सभी ने ईश्वर को मन ही मन धन्यवाद दिया।

माँ के गिरते स्वास्थ्य को लेकर उसने भाभी से कुछ बातें कीं। प्रश्न सुनते ही भाभी चमक उठी और अर्र-सर्र, जो मुँह में आया बकने लगी। हालाँकि उसने कोई ऐसी बात नहीं की थी जिससे उसके सम्मान को ठेस पहुँचे। सभी बातें सामान्य सी ही थीं।

भाभी की बातें सुनते ही निन्नी का मन बुझ सा गया। अंदर सब कुछ क्षत-विक्षत था। इसके बाद कहने-सुनने को बचा ही क्या था। उसने कितना भला समझा था भाभी को। कुल खानदान से भी ठीक थी। शक्ल-सूरत की बुरी नहीं थी। पर उस दिन तो उन्होंने हद ही कर दी। ऐसी कड़वी ज़ुबान की तो उसने कल्पना तक नहीं की थी। तमतमाते हुए उन्होंने तो यहाँ तक कह डाला था कि अगर इतना ही हेमटा बतलाना है तो, ले जाओ अपनी माँ को अपने साथ और जो चाहो सो करो।

भाभी की बातें अंदर उतरकर कलेजा छलनी कर रही थीं। उसका माथा चकराने लगा था। उसने तब यह सोचा भी नहीं था। मगर जब उसने भैया की ओर देखा। समझ गई। उनका चेहरा झुका हुआ था। वे एक शब्द भी नहीं बोले थे। सब कुछ शायद पहले से ही तय था और वह हो भी रहा था।

उसने सूटकेस उठाया। बच्चों को साथ लिया और ओपल में आ बैठी। गाड़ी स्टार्ट की और वापिस हो ली। घर से निकलते समय उसे ऐसा लगा कि भाभी अथवा भैया ही उसे आगे बढ़कर रोकेंगे। कुछ दिन और ठहर जाने को कहेंगे अथवा अपने कहे पर खेद प्रकट करेंगे। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। वे उसे सूटकेस ले जाता देखते रहे। किसी के भी मुँह से एक शब्द नहीं निकला था। एक बार ही सही वे रुकने को तो कहते। इससे बड़ा अपमान और क्या हो सकता था। उसका मन आत्मग्लानि से भर उठा था।

घर आकर वह सीधे बिस्तर पर पसर गई। रह-रहकर पिछली बातें याद आती रहीं। आँखों की कोर भीग उठीं। नरेन्द्र और माँजी को वह आज बहुत मिस करने लगी थी।

मन के किसी कोने से एक प्रश्न उभरता। निन्नी, तूने ठीक नहीं किया वापिस आकर? तुझे और कुछ दिन रुक जाना चाहिए था। कम से कम माँ के ठीक होने तक ही सही। झगड़ा-झाँसा किसके घर में नहीं होता। ननद-भौजाई के बीच अक्सर ऐसी नोंक-झोंक तो होती ही रहती है। तरह-तरह के प्रश्न मन को उद्वेलित करते रहे। उसे तो ऐसा भी लगने लगा कि वह प्रश्नों के जंगल में घिर गई है।

सारे प्रश्नों को दरकिनार करते हुए वह अपने आपको समझाइश देने लगी थी। उसने ठीक ही किया है वापिस होकर। वह वहाँ रुककर करती भी तो क्या करती। माँ-बाप की नज़रों में बेटा ही सब कुछ होता है। बेटियों की तो कोई अहमियत होती ही नहीं है। बेटी लाख-से-लाख जतन करे, पर वैतरणी तो बेटा ही तारता है न! बस इसी एक सोच के चलते वे सारे दुख उठा लेते हैं, मुँह से उफ़्फ़ तक नहीं करते, भले ही वे इस लोक की चिंता न करें, पर परलोक सुधारने के चक्कर में पड़े रहते हैं। भैया ने आख़िर दिया ही क्या है माँ को, सिवाय दु:ख, परेशानी, कुण्ठाओं के और वे दे भी क्या सकते थे। इन सबके बावजूद भी वे धन-जायदाद के स्वामी बने ही रहेंगे, समाज के कर्म-धर्म समाज के नियम क़ायदे बनाने वालों ने कितनी चतुराई से पत्ते फांटे होंगे, उसे उबकाई सी आने लगी थी। माँ बेटे के नाते भैया का क्या यह फ़र्ज़ नहीं बनता कि वह उनकी प्राणवचन से सेवा करते। वे तो वही कहते करते देखे गए जो बीवी ने कह दिया। अरे उसकी अपनी भी तो सास है। वह तो उनके साथ ऐसा बर्ताव नहीं करती।
वह सोचती, इन पाँच-छ: सालों में समय चक्र कितना घूम गया है। वक़्त बदला या आदमी। मगर अब इतना ज़रूर जानने लगी है कि माँ ने धीरेन्द्र भैया को जो संस्कार दिये- माहौल दिये- अपने जीवन का अर्क निचोड़ कर ज़िंदगी का अर्थ दिया, सब बेकार गया। ये पाँच-छ: साल इतने ताक़तवर हो गए कि इन्होंने एक लंबा इतिहास ही धो डाला।

एक ही बात, नये-नये रूप में आकर उसे उद्वेलित कर जाती। ऐसा भी लगा कि बार-बार उसी बात को सोचते रहने में, संभव है दिमाग़ की नसें ही फट जाएँ। अब वह सो जाना चाहती थी ताकि दिमागी आराम मिल सके। पर नींद भी दुश्मनी साधे बैठी थी, जो लाख पुचकारने के बाद भी नज़दीक नहीं आ रही थी।

अनमनी सी उठ बैठी वह और सीढ़ियाँ चढ़ते हुए छत पर आकर दीवार का सहारा लेकर धम्म से बैठ गई।

सामने एक पीपल का पेड़ था। देशी-परदेशी पखेरुओं ने उसकी मज़बूत शाखों पर अपने घोंसले बना लिए थे। इस समय नवजात शिशुओं को छोड़कर एक भी परिन्दा पेड़ पर नहीं था। सभी दाना-चुग्गा की जुगाड़ में निकल चुके थे। एक स्तब्ध ख़ामोशी छाई हुई थी। पीपल की टहनी से एक पतंग आकर अटक गई थी। जब तेज़ हवा का झोंका आता पतंग चक्करघिन्नी खाने लगती। पल भर को लगा कि वह भी एक पतंग की तरह ही है जो न तो आसमां की हो सकी, न ज़मीन की। बीच में ही अटकी पड़ी है। उसकी इस दुर्दशा को देखकर पत्ते भी तालियाँ बजाने लगे थे।

जब अलग-अलग जाति के, अलग-अलग प्रजाति के मूक पखेरू आपस में तालमेल बिठाकर रह लेते हैं तो भला आदमी क्यों नहीं रह पाता। अगर भाभी भी थोड़ा सा सामंजस्य बिठा लेती तो शायद माँ की यह दुर्दशा न हुई होती और न ही उन्हें असमय अपनी मौत की याचना करनी पड़ती। वह अपने आप में सोचने लगी थी।

भाभी की याद आते ही लगा कि तूफ़ान फिर सक्रिय होने लगा है। वह सब कुछ भूल जाना चाहती है पर एक-एक कर सब याद आने लगता था। अब वह अपने आपको समझाइश देने लगी थी और नॉर्मल होने की कोशिश करने लगी थी।

देखा सूर्यास्त होने को है। पक्षियों के समूह वापिस होने लगे हैं। पक्षियों का कलरव सुनकर बूढ़े पीपल के शरीर में उत्साह का संचरण होने लगा है। चहल-पहल से भर उठता है पीपल का घर आँगन। पीपल के पत्तों के बीच में ललछौटी किरणें बहने लगी थीं, धीरे-धीरे सँवलाने लगी थीं। आकाश में जब तक लटका अंधियारा नीचे उतरकर ज़मीन पर लोटने लगा था। थोड़ी देर बाद चाँद आकाशपटल पर मुस्कराने लगा था। सारा दिन उसने चुप्पी साधे छत पर ही बिता दिया था। अब वह सीढ़ियाँ उतर कर नीचे आने लगी थी।

नीचे उतरते ही उसे पंकज व ऋचा की याद हो आई। पूरा दिन लगभग यूँ ही बीत गया। उसने उन दोनों की सुध ही नहीं ली। बाहर निकलकर देखा। दोनों नौकरानी को घेरे बैठे हैं और वह उन्हें नई कहानियाँ सुनाने में मगन थी। नौकरानी की मन ही मन वह प्रशंसा करने लगी थी। वह भी अब उनके बीच आकर कहानियों के मज़े लेने लगी थी।

च्चों को मैं अब कहानियाँ सुनाती हूँ - तब तक तू खाना पका ले। भूख बहुत जमके लगी है। नौकरानी को समझाइश देते हुए उसने प्याज़ के कुरकुरे पकौड़े, पराठे, भरंवा भटे, दही का रायता, पापड़ सलाद बनाने को कहा। पकौड़ों के साथ इमली की चटनी मिल जाए तो मज़ा आ जायेगा। उसने मन ही मन कहा था। इमली की चटनी याद आते ही मुँह में खट्टापन तिर आया था।

खाना पक जाने की सूचना मिलते ही वह उठ खड़ी हुई। खाना खाने से पहले नहाने की सूझी। आज दिन भर से वह बैठी ही तो रही है। उसने आज न तो मुँह ही धोया था और न ही नहाया ही था। वह सीधे बाथरूम में घुस पड़ी। बाथरूम में घुसने से पहले उसने टेप ऑन किया। लता का कैसेट फँसाया। गायिकाओं में उसे लता ही प्रिय थी।

जी-भर के नहाने के बाद वह भोजन पर टूट पड़ी। बड़े दिनों बाद वह आज लज़ीज़ खाना खा रही थी।

देर रात तक वह लता को सुनती रही और बच्चों के साथ कभी चाईनीज़ चेकर खेलती रही तो कभी साँप-सीढ़ी। साँप-सीढ़ी खेलते समय उसकी गोटी अचानक बड़े साँप के मुँह पर आ गई। साँप के मुँह से घिसरती हुई वह पूँछ पर आकर अटक गई थी। पल भर को लगा कि वह साँप, साँप न होकर भाभी हो और गोटी की जगह वह स्वयं बैठी हुई है। मुँह के पास आते ही उसने उसे निगलना शुरू कर दिया था। और वह सरसराती हुई साँप के जिस्म में गहरे तक उतरती चली जा रही थी। साँप ने अब अपने जिस्म को मोड़ऩा शुरू कर दिया था। पलभर को लगा कि उसकी हड्डी-पसलियाँ चरमरा गई हैं। एक सहज कल्पना से वह सिहर उठी थी। पलभर को तो यूँ लगा कि उसका वज़ूद ही नेस्तनाबूद हो गया है।

अब वह आगे नहीं खेल पाई। उसने बोर्ड हटा दिया और पीठ को पलंग का सहारा देते हुए लंबे पैर पसार कर छत की ओर टकटकी लगाए देखने लगी थी। बच्चों ने कब लाईट ऑफ़ किया और वे कब सो गए, उसे भान ही नहीं रहा। होश तो उसे तब आया जब उसने अपने आपको गहरे अंधकार में कैद पाया। उसने चाहा भी कि नाईट लैम्प जला ले पर अंधकार में ही घिरे रहना उसे अच्छा लग रहा था। अँधेरे को छेदते हुए उसकी नज़रें अब भी छत से चिपकी हुई थीं।

ऐसा लगा कि कुछ किरणें इकट्ठी हो रही है। एक अस्पष्ट चित्र सा उभरने लगा था। तस्वीर अब साफ़ होने लगी थी। माँ की तस्वीर थी। अगल-बगल में दो बच्चे। एक व्यक्ति पीछे खड़ा दिखलाई दिया। तस्वीर और भी स्पष्ट नज़र आने लगी थी। पीछे खड़ा हुआ व्यक्ति मामाजी थे। दो बच्चों में एक वह स्वयं थी दूसरे धीरेन्द्र भैया थे। मामाजी की तस्वीर देखकर पुराने बातें याद हो आईं।

काफी छोटे थे दोनों भाई-बहन। पिता का साया सिर से हट चुका था। माँ खेतों में कड़ी मेहनत करती और दोनों की अच्छी परवरिश करती। ताऊजी की नीयत खेल-खलिहान के साथ जेवरात आदि हड़पने की थी। वे अपनी ओर से बिसातें बिछाते। माँ शायद हर बिसात की काट जानती थी। अपनी स्कीम को फेल होता देख ताऊजी खिसियाते गए थे। अब उन्होंने अपने तरकश से अंतिम अस्त्र का संहार करने की ठानी।

पुआल का ढेर मकान के पीछे जमाया जाने लगा। उस दिन सारे हौद खाली कर दिए गए और गाँव की बिजली भी ठप्प कर दी थी। अमावस की रात थी। खेतीबाड़ी पशुधन सँभालने के साथ ही माँ उतना ही भक्तिभाव से गीता रामायण भी बाँचती थी। शायद कान्हा साथ दे रहे थे। वह जान चुकी थी कि उसका घर आज लाक्षागृह की तरह धू-धू कर जल उठेगा। समय पूर्व वह लोगों की आँख बचाकर पिछवाड़े से भाग निकली और तब तक ऊबड़-खाबड़ सड़कों पर दौड़ती रही, चलती रही जब तक मामाजी का घर नहीं आ गया था। घर से निकलते समय वह पीछे पलट-पलट कर देखती रही थी। पूरा घर अग्नि की भेंट चढ़ चुका था।

मामाजी ने हमारा भरपूर स्वागत ही नहीं किया बल्कि ठहरने खाने तक का पुख्ता इंतज़ाम भी किया। इन्हीं मामाजी की बदौलत आज एक आलीशान बंगला और खेतीबाड़ी हमारे पास थी।

धीरे-धीरे यह तस्वीर धुँधलाती चली गई। एक दूसरी तस्वीर उभरकर आँखों के सामने आने लगी। इस तस्वीर में हम तीन के अलावा दो जन भी जुड़ जाते थे। पहले नरेन्द्र यानी पति और दूसरी तस्वीर रेखा भाभी की थी। कुल मिलाकर हम पाँच लोगों का छोटा-सा पारिवारिक समूह था।

भैयाजी और रेखा, साथ ही, एक क्लास में पढ़ते थे। भैया ऑल राउण्डर होने के साथ-साथ मेधावी छात्र भी रहे हैं। इनका दिल आ गया होगा भैया पर। अपना चक्कर चलाने के लिए इन्होंने मुझे मोहरा बनाया। दोस्ती गांठी। कॉलेज जाते समय अक्सर साथ जाती। फिर धीरे-धीरे घर में प्रवेश करने लगी और देखते ही देखते उन्होंने वह मुकाम पा ही लिया जिसके लिए उन्होंने भगीरथ तप किया था।

कॉलेज से निकलते ही दोनों जॉब भी पा चुके थे और पास ही के शहर से रोज़ाना अप-डाउन भी करते थे।

मैं कॉलेज में गोल्ड मेडलिस्ट रही। अत: प्राध्यापक की नियुक्ति भी जल्दी ही मिल गई। नौकरी लगने के छ: माह बाद शादी भी हो गई। सो मैंने अपना ट्रांसफर भी ले लिया। अब तक सब कुछ ठीक ठाक चल ही रहा था कि नियति ने अपने क्रूर हाथों से इस तस्वीर को तीन टुकड़ों में काट रख दिया था। पहले टुकड़े में- मैं और नरेन्द्र अलग कर दिए गए। दूसरा और तीसरा टुकड़ा कटकर भी इस तरह जुड़ा दिखाई देता रहा जैसे काटा ही नहीं गया हो। पर माँ की तस्वीर भैया-भाभी की तस्वीर से काटकर अलग की जा चुकी थी।

चार-पाँच छ: साल बीत गए। भैया को संतान सुख नसीब नहीं हुआ। अब वे इस घर को बेचकर अन्यत्र चले जाना चाहते थे पर माँ ऐसा नहीं होने देना चाहती थी। वे बार-बार कहा करती थी कि जिस घर में तूने साँस ली— जहाँ तू पला-बड़ा हुआ और जिस शहर ने तुझे तमीज़ सिखाई-मान दिया- पहचान दिया- उसे तू क्यों बेचने पर तुला हुआ है। उसने यह भी सलाह दी थी कि ऋचा को गोद ले ले। मन रम जायेगा। फिर आख़िर तेरी बहन की ही तो लड़की है। पर भाभी अपनी बहन की लड़की को गोद लेने का मानस बना चुकी थी।

विचारों की टकराहट बढ़ती ही चली जा रही थी। बात सुलझने का अंत ही नज़र नहीं आ रहा था। अब क्या था। माँ की उपेक्षा की जाने लगी। कभी या तो खाना बनाया ही नहीं जाता था या बना भी लिया तो पर्याप्त बचाया ही नहीं जाता था ताकि माँ भरपेट न खा सके।

माँ के बुढ़ाते शरीर में भले ही कृष्ण खड़े रहे हों पर मन का अर्जुन तो गहरे तक हार मान चुका था। लड़ता भी तो किससे लड़ता और किसके लिए। गांडीव एक कोने में रख देना ही उसने उचित समझा था।

विचारों की तंद्रा के चलते नींद ने उसे कब अपने आग़ोश में ले लिया था, पता ही नहीं चल पाया।

 

वह जब सोकर उठी तो सूरज बहुत ऊपर चढ़ आया था। जागने के साथ ही उसने महसूस किया कि शरीर में ऐंठन के साथ-साथ पोर-पोर में आलस भी रेंग रहा है।
जमुहाते हुए वह उठ बैठी। बाथरूम जाने से पहले उसने फिर से लता का कैसेट लगाया। पूरा वाल्यूम खोला और बाथरूम में समा गई।

आदमकद आईने के सामने खड़ी वह ब्रश कर रही थी। मुँह धोने के बाद अब वह लता के स्वर में स्वर मिलाने लगी थी। उसने निर्णय ले लिया था कि अब वह अपने आपको और व्यथित नहीं करेगी। नियति को जो मंजूर होना है, वह होकर ही रहेगा। उसने अपने चेहरे को, आईने के और नज़दीक ले जाकर गौर से देखा। आँखों के नीचे स्याह निशान घर बनाने लगे थे। वह चौंक उठी। अपने आप में डूबकर जीने का संकल्प उसने लिया और अब वह पूरी गति से थिरकती हुई लता के स्वर में स्वर मिलाने लगी थी।

एक थिरकन के साथ ख़ुश्बू का एक तेज़ झोंका उसके बदन से आ चिपका। पल भर को यह लगा कि शरीर एक मीठी अग्नि में जलने लगा है। उसने कपड़े उतार फेंके और शॉवर आन कर दिया। उसकी कोमल हथेलियाँ अब उसके नाज़ुक बदन पर यहाँ-वहाँ दौडऩे लगी थीं। सहसा यह भी लगा कि नरेन्द्र की हथेलियाँ उसके शरीर पर फिसलती जा रही हैं। कभी-कभी नरेन्द्र यूँ ही बाथरूम में घुस आया करता था और...। नरेन्द्र की याद आते ही लगा कि वह यहाँ स्वयं उपस्थित है— उसके ही साथ है। वह आँखें बंद किए अपने कल्पना संसार में तब तक डूबी रही, जब तक शॉवर की आखिरी बूँदें समाप्त नहीं हो गईं। शॉवर के बंद हो जाने के बाद ही उसकी चेतना वापिस लौटी थी।

उसने आईने पर नज़र डाली। आँखें शराबी, गाल गुलाबी और ओंठ लजीले हो आए थे। अपने इस परिवर्तित रूप को देखकर उसे शर्म सी आने लगी थी।

तन पर साड़ी लपेटते हुए वह बाहर निकली। ड्राईंग रूम से निकलकर वेटिंग रूम में आई तो अखिलेश को असमय देखकर सकपका सी गई। अखिलेश और इस समय! क्योंकर आया होगा वह इस वक़्त। ढेरों सवाल मन में रेंगने लगे थे।

अखिलेश, नरेन्द्र का सहपाठी ही नहीं अपितु वह फैक्टरी में भी बराबर का हक़दार है। अक्सर वह घर पर आता ही रहता है। आज वह पहली बार ऐसे समय पर आया है जबकि उसे इस समय फैक्टरी में रहना चाहिए था। फैक्टरी आवर में वह कभी भी अनुपस्थित नहीं रहा है। आज अचानक उसकी उपस्थिति संदेह पैदा कर रही थी।

अपनी झेंप मिटाते हुए उसने इतना भर कहा था कि अखिलेश भैया, इस समय और आप यहाँ! वह वाक्य पूरा भी नहीं बोल पाई थी कि अखिलेश ने कहना शुरू कर दिया था कि वह काफी देर से टेलीफोन पर संपर्क करने के लिए प्रयासरत था। आख़िर आप थीं कहाँ इतने लंबे समय से।

प्रश्न तो उसके सीधे-सादे थे पर इनका उत्तर उसके पास था ही नहीं। क्या वह यह बतलाती कि वह बाथरूम में बंद थी और क्या वह यह भी बतलाती कि वह उसके दोस्त के साथ काल्पनिक रूप से मस्ती मार रही थी। वह अपने आपमें इतनी गुम थी कि उसे दीन-दुनिया का होश ही नहीं था।

निन्नी की चुप्पी इस बात का संकेत दे रही थी कि उसके पास इस छोटे से प्रश्न का समाधानकारक उत्तर नहीं था। उसे चुप देखकर उसने बात आगे बढ़ाते हुए कहा, "भाभी- माँजी आईं थीं और यह पैकेट दे गई हैं। उन्होंने यह भी बतला देने को कहा था कि वह स्वयं घर आईं थीं। दरवाज़ा अंदर से बंद था। काफी देर तक खटखटाते रहने के बाद भी किसी ने दरवाज़ा नहीं खोला तो यह पैकेट मुझे सौंपते हुए कहा था कि निन्नी को याद से दे देना और वे तुरंत वापिस भी हो गईं थीं।"

आश्चर्य- महान आश्चर्य! माँ आईं थीं। यह कैसे हो सकता है। उनसे तो एक कदम भी चला नहीं जाता। भला वे इतनी दूर आ भी कैसे सकती हैं। ढेरों सारे प्रश्न एक साथ दिमाग़ को मथने लगे थे।

काँपते हाथों से उसने लिफाफा खोला। पत्र माँ के ही हाथ का था लिखा था- ये चंद कागज़ात महज़ कागज़ न होकर एक छोटी-सी फाँस है जिसने हमारे सभी के दिलों में छेद कर दिए हैं। मकान खरीदते समय इस बात का कभी ध्यान ही नहीं आया कि एक दिन यही फाँस विवाद का कारण बन सकती है और सभी को तकलीफ़ पहुँचा सकती है। सच कहती हूँ निन्नी इसमें किसी का भी, कहीं भी दोष नहीं है। बच्चे तो मुझे दोनों ही प्रिय रहे हैं। दोनों ही आँखों के तारे रहे हैं पर तुम सबसे लकी मानी जाती रही हो। तुम मामा की भी अति प्यारी रही हो। अतएव मकान की रजिस्ट्री तुम्हारे नाम से करा ली गई थी क्योंकि हम जानते थे कि इसमें बँटवारे की कभी बात ही नहीं होगी। ये सारे कागज़ात तुम्हें सौंपे जा रही हूँ। उचित-अनुचित जो भी जान पड़े वैसा आगे कदम उठाना।

... तुम्हारी माँ।

अखिलेश मात्र एक कागज़ का टुकड़ा हाथ में थमाकर लौट चुका था, पर उसे लगने लगा था कि वह मात्र एक कागज़ का टुकड़ा न होकर एक जीवित बम है। आशंका और कुशंकाओं के ज़हरीले नाग उसके मन के आँगन में यहाँ-वहाँ विचरने लगे थे। एक ख़्याल आता तो दूसरा तिरोहित हो जाता था। \

उसका दिल सहज रूप से यह स्वीकार करने लगा था कि संभवत: माँ आई होगी। उन्होंने आवाज़ दी होगी। दरवाज़ा भी खटखटाया होगा और प्रत्युत्तर न पाकर सारे कागज़ात अखिलेश को सौंपकर लौट भी चुकी होगी। पर उसका अपना मस्तिष्क इस बात को मानने के फिर कत्तई तैयार नहीं था। वह ख़ुद भी माँ को देखकर आ चुकी थी। माँ एक पिंजड़ बनकर रह गई थी। केवल साँसों का क्रमसंचय उसके जीवित होने का प्रमाण था। वे स्वयं होकर न तो उठकर बैठ ही सकती थी और न ही करवट ले सकती थी। ऐसी दशा में उनका यहाँ आना सहज ही नहीं, अपितु असंभव ही था।

जीवन में ऐसी चित्र-विचित्र घटनाएँ अक्सर घटती ही रहती है। जब दिल उसे मानने के लिए तैयार हो जाता है तो वहीं मस्तिष्क उसे पहले ही सिरे से खारिज कर देना है। दिल का संबंध मात्र भावनाओं से जुड़ता है। जब मन और मस्तिष्क में द्वंद्व चल रहा होता है, तब ही आदमी शंकाओं और कुशंकाओं के पाटों के बीच पिसता रहता है।

काफी देर तक तो वह मन और मस्तिष्क के बीच चल रहे द्वंद्व-युद्ध को तटस्थ भाव से देखती रही थी। दिल की भावनाओं को खारिज करते हुए उसने भैया से टेलीफोन पर संपर्क साधकर वस्तुस्थिति की जानकारी लेने का निर्णय ले लिया था।

तेज़ कदमों से चलते हुए वह अंदर आई। टेलीफोन का रिसीवर उठाया और नंबर डायल करने लगी।

दूसरी तरफ भैया थे। उनका स्वर डूबा हुआ था। दिल एकबारगी ज़ोरों से धड़का। लगभग फफकते हुए उन्होंने बतलाया कि पंद्रह मिनट पूर्व माँ हमें छोड़कर चल बसी है।

माँ के चले जाने और कागज़ात सौंपे जाने के बीच केवल पाँच मिनट का अंतर रहा था। आज तक इस प्रश्न का उत्तर अनुत्तरित है कि क्या वे हवा पर सवार होकर आईं थीं?

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

ललित कला

कविता

सामाजिक आलेख

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

सांस्कृतिक कथा

ऐतिहासिक

पुस्तक समीक्षा

कहानी

स्मृति लेख

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं