फागुन अब मुझे नहीं रिझाता है
काव्य साहित्य | कविता डॉ. सुशील कुमार शर्मा5 Mar 2016
फागुन अब मुझे नहीं रिझाता है
जबसे शब्द कोशों में -
प्यार की परिभाषा बदल गई
जब से रंग भूल गए अपनी असलियत
जब से तुम्हारी मुस्कान कुटिल हो गई
जब से प्यार के खनकते स्वर कर्कश हो गये
तब से फागुन अब मुझे नहीं रिझाता है
जब से रिश्तों में पैबंद लगने लगे
जब से प्रेम के स्वर मंद पड़ने लगे
जब से अयोग्यताओं का आलिंगन होने लगा
जब से स्पर्श की आकांक्षाओं का पालन होने लगा
जब से प्रेम की परिधियाँ टूटकर बिखरने लगीं
जब से घृणा की बेल बढ़ने लगी
तब से फागुन अब मुझे नहीं रिझाता है
जब से कोई साथ देने का वादा तोड़ गया
जब मेरा मन मुझे नितांत अकेला छोड़ गया
जब से शब्द अपने अनुबंधों से बिखरने लगे
जब से आईने अपने प्रतिबिम्बों से मुकरने लगे
तब से फागुन अब मुझे नहीं रिझाता है
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