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फिर कभी न गूँजें तोपें पहाड़ों में

कुछ वो आगे बढ़ आए सरहद पर
कुछ हम आगे बढ़ गए सीमा पर
फिर हथियार तन गए–चल गए
न ही तिरंगा लहराया पहाड़ों में
न ही चाँद-तारा छाया पहाड़ों में 
फिर गूँज उठी तोपें पहाड़ों में...


एक बेमानी जिहाद थी उनकी ये
और एक व्यर्थ लड़ाई लड़ी हमने
कुछ न दिया इन सियासी चालों ने
क्षत-विक्षत शरीर थे चारों तरफ़
सिर्फ़ अश्क-ओ-ग़म दिये पहाड़ों ने
फिर गूँज उठी तोपें पहाड़ों में...


यहाँ राम नाम गूँजा गलियों में
वहाँ मर्सिये थे कई ज़बानों पे
वहाँ शहीद हुए, यहाँ बलिदान गए
न कोई हारा, न कोई जीता था
बस मानवता हार गई पहाड़ों में
फिर गूँज उठी तोपें पहाड़ों में...


कोई बीवी बेवा हो गयी थी
एक राखी कलाई को तरस गयी
किसी बुज़ुर्ग ने कांधा  देना था
किसी माँ ने लाल खोया था
और बचपन खोया किसी ने पहाड़ों में
फिर गूँज उठी तोपें पहाड़ों में...


आओ कुछ ऐसा करें हम-तुम
आधी सदी पीछे जाकर सोचें हम
और प्यार का गुलशन खिलाएँ सीमा पर
और अमन हो, अभय हो सरहद पर
और न बहे लहू किसी का पहाड़ों में
फिर कभी न गूँजे तोपें पहाड़ों में...

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टिप्पणियाँ

पाण्डेय सरिता 2021/08/15 05:20 PM

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