पिताजी की सूनी आँखें
काव्य साहित्य | कविता भारती पंडित19 Dec 2014
आजकल अक्सर याद आती हैं
पिताजी की सूनी आँखें
जो लगी रहती थीं देहरी पर
मेरे लौटने की राह में।
आजकल अक्सर याद आता है
पिताजी का तमतमाया चेहरा
जो बिफ़र-बिफ़र पड़ता था
मेरे देर रात लौटने पर।
अब सही लगती हैं
पिताजी की सारी नसीहतें
जिन्हें सुनकर कभी
उबल-उबल जाता था मैं।
आजकल सहेजने को जी करता है
चश्मा, छड़ी, धोती उनकी
जो कभी हुआ करती थीं
उलझन का सामान मेरी।
मैं अक्सर हैरान होता हूँ
जब ख़ुद को उनके निकट पाता हूँ
हाँ! अब मेरा अपना बेटा भी
पूरे अट्ठारह का हो गया है।
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