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पिताजी

रात के तीन बजे थे। कालबेल बजने की लगातार आवाज़ से नींद खुल गई। फिर भी, संजीव तकिया से कान बंद करके सोने की कोशिश कर रहा था। ढाई घंटे ही हुए थे सोये हुए। अंतत:  कान की सहनशक्ति समाप्त हो गई। संजीव ने आँखें मलते हुए दरवाज़ा खोला। देखा, सामने सुनील खड़ा था। उसकी साँसें बहुत ही तेज़ चल रही थीं। वह लगभग हाँफ रहा था। उसके दिल की धड़कनों की आवाज़ कानों को साफ़-साफ़ सुनाई दे रही थी। सुनील को बदहवास देखकर संजीव घबरा गया, क्योंकि रात को सुनील और माँ पिताजी के साथ थे। उसने कहा था, “तुम आराम करो, आज मैं चाचाजी के पास रुक जाता हूँ।" 

संजीव का चेहरा किसी अनहोनी की आशंका से स्याह पड़ गया। उसने डरते-डरते पूछा, “क्या हुआ, तुम घबराये हुए क्यों हो?" 

सुनील अपुष्ट स्वर में बोला, “लगभग ढाई बजे रात को तुम्हारे पिताजी नहीं रहे।" 

संजीव को सुनील की बातों पर यक़ीन नहीं हुआ। सुनील ने पुनः कहा, “मैं सच कह रहा हूँ।" 

यह कैसे मुमकिन हो सकता है? रात को लगभग 12 बजे ही तो वह आर सी राम नर्सिंग होम से लौटा था। एकदम भले-चंगे थे पिताजी। लग रहा था कि 15 से 20 दिनों में स्वस्थ होकर घर लौट आयेंगे। संजीव को पिताजी से बहुत प्यार था। संजीव भी पिताजी का दुलारा था।

भभुआ ज़िले के मोहनियाँ के नज़दीक राष्ट्रीय राजमार्ग पर पिताजी का एक्सीडेंट हुआ था। वे बिहार पुलिस में इंस्पेक्टर थे। शाम को मोहनियाँ से क्राइम मीटिंग में शामिल होकर करमचट थाना लौट रहे थे। दिसंबर 1991 में, उनकी यहाँ पदस्थापना हुई थी। इसके पहले, पटना के गाँधी मैदान थाना में वे थाना प्रभारी थे। पुलिस जीप को, सासाराम की तरफ़ से तेज़ गति में आ रही एक बस ने, सामने से टक्कर मार दी थी। पिताजी और ड्राईवर दोनों ज़ख़्मी हुए थे। चूँकि, बस ने जीप के बाएँ तरफ टक्कर मारी थी। इसलिए, पिताजी को ज़्यादा चोटें लगी थीं। भभुआ में माक़ूल स्वास्थ्य व्यवस्था नहीं थी। इसलिये, पिताजी को ज़िला अस्तपताल के डाक्टरों ने, पटना ले जाने की सलाह दी।  

जनवरी महीने में, मैं पिताजी के साथ भभुआ गया था। पिताजी मुझे मोहनियाँ भी ले गये थे। नया ज़िला बना था भभुआ। कैमूर पहाड़ी की गोद में बसे होने के कारण इसे कैमूर ज़िला के नाम से भी जाना जाता है। नया ज़िला होने के कारण बुनियादी सुविधाओं का अभाव था वहाँ। न बस स्टैंड था और न ही रेलवे लाइन या स्टेशन। बस अड्डा एक खुले मैदान को बनाया गया था, जहाँ कोई भी बुनियादी सुविधा उपलब्ध नहीं थी। न सुलभ शौचालय था वहाँ और न ही होटल। खाने-पीने की भी कोई व्यवस्था नहीं थी। यह शहर से दूर भी था। पुलिस अधीक्षक का कार्यालय भी भभुआ में नहीं बना था। मोहनियाँ में पुलिस लाइन था, वहीं पुलिस अधीक्षक का कार्यालय अस्थायी तौर पर बनाया गया था।   

करमचट थाना कर्मनाशा नदी के किनारे स्थित था। यही नदी बिहार और उत्तरप्रदेश को आगे जाकर अलग करती है। थोड़ी दूर जाने पर कैमूर पहाड़ी की चढ़ाई शुरू हो जाती थी। बड़ा ही मनोरम दृश्य था। आँखें जितनी दूर देख सकती थीं, सिर्फ़ पहाड़ और जंगल दिखाई देते थे। आसपास में घनी आबादी नहीं थी। शाम होने पर जंगली जानवरों के डर से कोई घर से बाहर नहीं निकलता था। घूमने के मक़सद से संजीव पिताजी के साथ भभुआ गया था। पहाड़, नदी और प्राकृतिक सौन्दर्य देखने के लिये संजीव के साथ उसका मित्र जहाँगीर भी भभुआ चला आया था। जहाँगीर की पृष्ठभूमि गाँव की थी। इसलिए, उसे प्रकृति के संग समय बिताना अच्छा लगता था। संजीव, उसके गाँव महनार, जो वैशाली ज़िला का एक तहसील है, जा चुका था। संजीव को मटन खाना बहुत ही पसंद था। इसलिए, वह बक़रीद के अवसर पर उसके गाँव गया था। पूरा एक सप्ताह, संजीव जहाँगीर के गाँव में रहा था। इस दौरान उसने नाश्ता, लंच और डिनर में सिर्फ़ मटन खाया था। दाँतों में दर्द शुरू होने के बाद ही उसने शाकाहारी खाना शुरू किया था।  

जनवरी का महीना था। पहाड़ी इलाक़ा होने की वज़ह से ठंड कुछ ज़्यादा थी। जैकेट, स्वेटर, मंकी टोपी और मफ़लर सभी कुछ संजीव अपने साथ लेकर आया था। 24 जनवरी को वह पिताजी के साथ करमचट थाना पहुँचा गया था। 26 जनवरी को ध्वजारोहण के लिये पुलिस मुख्यालय, मोहनियाँ से आरक्षी उपाधीक्षक (डीएसपी) दया मिश्रा आये हुए थे। उनका गाँव पेनापुर, संजीव के गाँव के पास ही था। वे दिसंबर में सेवानिवृत होने वाले थे। इसी वज़ह से पिताजी ने उन्हें बुलाया था। उनका स्वभाव सरल और सहज था। थोड़ी देर की बातचीत के बाद, संजीव दया अंकल के साथ सहज हो गया। वह मित्र की तरह अंकल के साथ बातें करने लगा।   

बातचीत के दौरान, 25 जनवरी को शेरगढ़ क़िला देखने की योजना बन गई। दया अंकल बोले, “यह क़िला बहुत ही ख़ूबसूरत है, हर तरफ हरियाली है, मैं कई बार वहाँ जा चुका हूँ, आख़िरी बार लगभग 10 सालों पहले गया था, आज क़िला किस स्थिति में है, देखने के लिए मैं भी उत्सुक हूँ।" 

पिताजी बोले, “अगर वहाँ जाना है, तो विशेष सावधानी बरतनी होगी, क्योंकि उस इलाक़े में माओवादी बेहद ही सक्रिय हैं, जंगली जानवरों की आवाजाही भी बहुत ज़्यादा है, इसलिये, साथ में कुछ हथियार बंद सिपाहियों को ले जाना ठीक होगा।" पिताजी ने पुनश्चः कहा, “आप तो जानते हैं सर, गश्त के दौरान हमारा आमना-सामना जंगली जानवरों से होता रहता है।" 

दया अंकल ने बताया, “शेरगढ़ क़िला रोहतास ज़िला के दक्षिणी छोर पर स्थित है, पहाड़ी के नीचे दुर्गावती नदी बहती है, नदी के कगार पर लगभग 800 फ़ीट से ज़्यादा ऊँचाई वाले खड़ी ढाल के ऊपर बना हुआ है यह क़िला।" दया अंकल ने थोड़ा रुककर फिर कहा, “इस क़िले की स्थापत्य कला अद्भुत है, जिसे देखना आँखों को बेहद सुकून देता है, क़िले के दीवारों पर की गई नक्काशी और चित्रकारी पर्यटकों का मन को मोह लेती हैं, लगभग 3 वर्ग किलोमीटर के इलाक़े में पसरा है क़िले का परिसर।" 

क़िले तक पहुँचने का रास्ता बादलगढ़ के मैदान के पास था। करमचट थाने से वहाँ पहुँचने में लगभग 3 घंटे तक का समय लग सकता था, क्योंकि सड़क की हालात अच्छी नहीं थी। क़िले की दूरी बादलगढ़ के मैदान से लगभग 2 किलोमीटर थी। सीढ़ियाँ ज़रूर बनी हुईं थीं, लेकिन देखरेख के अभाव में जर्जर हो गयी थीं। क़िले के मुख्य द्वार के दोनों तरफ हाथी की आकृति बनी हुई थी। शासक के बैठने के लिए पत्थर का सिंहासन बना हुआ था। सिंहासन के सामने एक बड़ा हाल बना हुआ था। शायद, वहाँ शेरशाह का दरबार लगता होगा। कहा जाता है कि शेरशाह जब भी सासाराम आता था तो इस क़िले में महीनों रहा करता था। क़िले में बने कुओं में पानी लबालब भरे थे, जबकि पहाड़ी के नीचे के मैदानी इलाक़ों में दूर-दूर तक पानी का नामोनिशान नहीं था। सेटलाईट से भी उस इलाक़े में पानी नहीं खोजा जा सका था। आसपास के गाँव वाले मजबूरी में, पीने का पानी टैंकर से मँगवाते थे।

क़िले की ख़ासियत और ख़ूबसूरती का रोचक व ज्ञानवर्धक वर्णन सुनकर क़िला देखने के प्रति संजीव की उत्सुकता बहुत ज़्यादा बढ़ गई। इसका एक कारण संजीव का इतिहास का छात्र भी होना था। संजीव को प्राचीन मंदिर, क़िले और खंडहर देखने का बहुत शौक़ था। स्कूल के दिनों में दोस्तों के साथ, साइकिल से राजगीर और नालंदा विश्वविधालय का खंडहर और पावापुरी घूम आया था संजीव। राजगीर में उसकी मुसेरी बहन (मौसी की बेटी) का घर था, जहाँ वह एक रात रुका भी था। पटना साहिब, कुम्हरार, जहाँ चन्द्रगुप्त मौर्य, बिन्दुसार तथा अशोक कालीन पाटलिपुत्र के भग्नावशेष हैं, वैशाली का शांति स्तूप, आर्यभट्ट की खगौल में स्थित वेधशाला आदि सभी स्थानों का संजीव भ्रमण कर चुका था। 

सुबह 5:30 बजे ही सभी लोग क़िले जाने के लिये निकल गये। नाश्ता के लिये रात को लिट्टी और चोखा बना लिया गया था। जब वे क़िले तक जाने वाले संपर्क मार्ग पर पहुँचे तो देखे की क़िले तक जाने वाला सीढ़ी जर्जर हालात में है, जिसका इस्तेमाल करना मुमकिन नहीं था। इस वज़ह से क़िले तक पहुँचने में बहुत ज़्यादा मशक़्क़त करनी पड़ी। दया अंकल संजीव का हाथ पकड़कर चढ़ाई कर रहे थे। उम्र अधिक होने की वज़ह से उनकी साँसें तेज़ हो गई थीं। दो किलोमीटर की दूरी को पूरा करने में संजीव को 1 घंटा से भी ज़्यादा समय लग गया।   

क़िला भले ही टूट-फूट गया था, लेकिन उसकी ख़ूबसूरती देखते बन रही थी। संजीव ने हाल ही में मध्यकाल के स्थापत्य कला पर एक किताब पढ़ी थी, जिसमें इस क़िले का भी ज़िक्र था। इसलिये, इस क़िले के हर एक भाग को संजीव बड़ी बारीक़ी देख रहा था। क़िले का जो भी हिस्सा उसे अच्छा लग रहा था, उनकी वह फोटो निकाल रहा था। 

क़िले से वापिस लौटते समय पिताजी ख़ुश थे। वे दया अंकल से बात करते हुए कह रहे थे, “सर, मेरा बड़ा बेटा राजीव, नौकरी कर रहा है, सेवानिवृति के पैसे से बेटी की शादी कर दूँगा, संजीव मेरा छोटा बेटा है, वह भी पढ़ने में ठीक-ठाक है, कोई न कोई नौकरी ज़रूर कर लेगा।" संजीव, साफ़ तौर पर पिताजी के चेहरे पर सुकून और संतुष्टि का भाव देख रहा था। ऐसा लग रहा था कि भविष्य की सभी योजनाओं को पहले से ही तय कर रखा था पिताजी ने। हालाँकि, उनके सेवानिवृत होने में 12 साल बचे हुए थे। 

सुनील ने संजीव को लगभग झकझोरते हुए कहा कि तुम ठीक हो न? तब जाकर संजीव की तंद्रा भंग हुई। उसकी आँखों में भभुआ में पिताजी के साथ घूमे हुए स्थानों के दृश्य और पिताजी की बातें चलचित्र की मानिंद चल रही थीं। तंद्रा टूटने के बाद भी उसे लग रहा था कि पिताजी अभी आकर उसके सामने खड़े हो जायेंगे और बोलेंगे, "बेटा रम की एक बोतल मंगल मार्केट से ले आओ, मैं बहुत थक गया हूँ।" पिताजी महीने में 3-4 बार संजीव से रम का एक कवार्टर ज़रूर मँगवाते थे। यह उनका मनपसंद ब्रांड था। वे बड़े ही खुले विचारों के थे। होली में भी राजीव भैया को, साथ में बैठकर शराब पीने के लिये कहते थे। वे हमेशा राजीव भैया से कहते थे, “मुझे जो बातें दूसरे से बाद में मालूम होंगी, अच्छा होगा कि वह तुम ख़ुद मुझे बता दो।" पिताजी को मालूम था, “भैया होली में दोस्तों के साथ शराब पीते हैं।" संजीव सोच रहा था, “क्या भगवान अच्छे इंसानों के साथ ही बुरा सुलूक करते हैं, हत्यारे, अत्याचारी और भ्रष्ट इंसान दिन दूनी, रात चौगनी प्रगति कर रहे हैं। क्या भगवान् भी उनसे डरते हैं?" 
  
ठीक 1 महीना पहले 7 फरवरी को पिताजी का एक्सीडेंट हुआ था और 8 तारीख़ की सुबह पाँच बजे कुछ पुलिस वाले पिताजी को लेकर घर आये थे। संजीव पढ़ाई कर रहा था। कालबेल की आवाज़ सुनकर वह चौंक गया था। वह मन ही मन सोच रहा था, “इस वक़्त कौन आ सकता है, दूधवाला तो 7 बजे आता है।" डरते-डरते संजीव ने दरवाज़ा खोला था। सामने एक पुलिसवाले को देखकर वह घबरा गया था। उसने हड़बड़ा कर पूछा था, “कहाँ से आप लोग आये हैं और क्या काम है?" उन्होंने कहा, “हम लोग तुम्हारे पिताजी के सहकर्मी हैं, उनका एक्सीडेंट हो गया है, हम उन्हें साथ लेकर आये हैं, सब ठीक है, घबराओ नहीं।" 

एक्सीडेंट की ख़बर सुनकर संजीव विचलित हो गया था। माँ सोई हुई थीं, लेकिन पहले कालबेल की आवाज़ और फिर हमलोगों की बातचीत सुनकर वह भी दरवाज़े पर आ गई थीं। हालाँकि, इस बुरी ख़बर को सुनने के बाद भी माँ घबराई नहीं। माँ, हिम्मत वाली महिला थीं। माँ बताती थीं कि वह 6 महीने की उम्र में बोरसी (बिहार के नालंदा ज़िले के गाँवों में इसका इस्तेमाल हीटर के रूप में किया जाता है) में गिर गया था, जिसकी वज़ह से उसका दायाँ पैर बुरी तरह से जल गया था और पैर खाजे (एक प्रकार का मिठाई, जिसका बिहार के नालंदा और उसके आसपास के जिलों में विवाह में शगुन के तौर पर वर और वधू वाले आदान-प्रदान करते हैं) की तरह यानी पैर की त्वचा में परत-दर-परत सूजन आ गई थी। उँगलियों के नाख़ून दिखाई नहीं दे रहे थे। नालंदा ज़िला के हिलसा तहसील में अवस्थित पखनपुर गाँव का रहने वाला था संजीव। हिलसा के डाक्टरों ने संजीव का इलाज करने से मना कर दिया था। फिर भी, माँ बिना घबराये, संजीव को लेकर अकेले ही पिताजी के पास पटना आ गई थी, जबकि पूर्व में, वे कभी पटना नहीं गई थीं।   

संजीव और माँ पुलिस वैन के पास पहुँचे, क्योंकि सड़क नहीं होने की वज़ह से उनके घर तक किसी भी चार पहिया वाहन का पहुँचना मुमकिन नहीं था। पिताजी स्ट्रेचर पर लेटे थे। दर्द से उनका चेहरा स्याह पड़ गया था। हालाँकि, पिताजी में दर्द सहने की अद्भुत क्षमता थी। एक बार नक्सलियों से मुठभेड़ के दौरान पिताजी के पैर में 3 तीर लग गये थे, लेकिन उन्होने ख़ुद से, उन्हें अपने पैर से बाहर निकाल लिया था। इतना ही नहीं, लंगड़ाते हुए वे लगभग 5 किलोमीटर चलकर पुलिस मुख्यालय तक भी पहुँच गये थे। उनके बोंस और डॉक्टर उनकी हिम्मत देखकर आश्चर्यचकित थे। डॉक्टरों ने यह कहानी माँ को सुनाई थी। कहा था, “आपके पति बहुत ही बहादुर हैं”।

 

आज पिताजी की आँखों में दर्द की तस्वीर साफ़ तौर पर दिख रही थी। दर्द से उनका चेहरा विदीर्ण हो गया था। पिताजी को असहाय देख, संजीव की आँखों में आँसू आ गये। उसका मन ज़ोर-ज़ोर से रोने का कर रहा था। संजीव का चेहरा देखकर पिताजी उसकी मन:स्थिति को अच्छी तरह से समझ गये थे। पिताजी असहनीय दर्द की वज़ह से बोल नहीं पा रहे थे, लेकिन आँखों से संजीव को सांत्वना दे रहे थे, कह रहे थे, “चिंता मत करो, सबकुछ ठीक हो जायेगा।" पिताजी के दोनों पैर और एक हाथ की हड्डियाँ कई जगह से टूट गई थीं। शायद सीने की हड्डियाँ भी टूट गई थीं, क्योंकि वहाँ भी उन्हें तेज़ दर्द हो रहा था। 

पिताजी के साथ आये दारोगा अंकल ने संजीव से पूछा, “किस अस्तपताल में पिताजी को भर्ती करवाना है, संजीव उनका चेहरा देखने लगा था, उसे कुछ सूझ नहीं रहा था, क्या जबाव दे।" वह   बारहवीं का छात्र था। उसे डॉक्टरों या अस्तपतालों के बारे में कुछ भी नहीं मालूम था। संजीव ने  माँ से भी हड्डी के डाक्टर के बारे में पूछा, लेकिन उन्हें भी कुछ नहीं पता था।    

पटना के खाजपुरा मोहल्ले में संजीव रहता था। पटना में होने के बावजूद इस मोहल्ले में गाँव जैसा माहौल था। पुलिस की गाड़ी को देखकर अच्छी-ख़ासी भीड़ जमा हो गई थी। संजीव सोच ही रहा था कि किससे किसी अच्छे हड्डी के डाक्टर के बारे में पूछे, इसी बीच, भीड़ में से किसी सज्जन ने, जो पिताजी को जानते थे, आर सी राम नर्सिंग होम में पिताजी को भर्ती कराने की सलाह दी। यह नर्सिंग होम, बाज़ार समिति के पास अवस्थिति था। उस सज्जन ने कहा कि डॉ आर सी राम एक अच्छे ऑर्थपीडिक (हड्डियो के) सर्जन हैं। आप लखन बाबू को वहाँ भर्ती करवाइए। संजीव ने दारोगा अंकल को आर सी राम नर्सिंग होम में पिताजी को भर्ती करवाने की अपनी सहमति दे दी। 

आर सी राम नर्सिंग होम में इलाज कराना महँगा था, लेकिन संजीव ने पिताजी को, वहाँ इसलिये भर्ती करवाया, क्योंकि पिताजी उस नर्सिंग होम में जल्दी ठीक हो सकते थे। संजीव को यह भी उम्मीद थी कि दोस्तों और रिश्तेदारों से कुछ आर्थिक मदद मिल जायेगी। भर्ती के बाद पैर एवं हाथों का तो एक्सरे किया गया, लेकिन सीने का एक्सरे नहीं लिया गया, जबकि पिताजी सीने में भी असहनीय दर्द होने की शिकायत कर रहे थे। संजीव ने डाक्टर को सीने का एक्सरे लेने के लिये कहा, लेकिन डाक्टर ने उसे डाँटते हुए कहा, “डॉक्टर मैं हूँ या तुम, मुझे मेरा काम नहीं सिखाओ।" रूखा सा जबाव सुनकर, संजीव की दोबारा डाक्टर से कुछ कहने की हिम्मत नहीं हुई। उसमें थोड़ी आत्मविश्वास की भी कमी थी। हालाँकि, पिताजी हमेशा उसका हौसला बढ़ाते थे। कहते थे, “अभी तो तुम बारहवीं में ही हो, धीरे-धीरे तुममें आत्मविश्वास आ जायेगा।" पिताजी की जाँच करने के बाद डाक्टरों ने कहा, “दो दिनों के बाद ऑपरेशन किया जायेगा, तीस हज़ार रुपये तुरंत कैश काउंटर पर जमा कर दीजिये, चार बोतल खून का भी इंतज़ाम करना होगा, आपके पिताजी का ब्लड ग्रुप ओ पॉज़िटिव है।"  

संजीव मन ही मन सोच रहा था कि खून तो दोनों भाई दे देंगे, क्योंकि उनका ब्लड ग्रुप ओ पॉज़िटिव है, लेकिन पैसों का इंतज़ाम कैसे होगा? यह सोचकर संजीव का मन बेचैन हो रहा था। माँ को छोड़कर कोई घर में बड़ा था भी नहीं, जिससे वह अपनी बात साझा करता। राजीव भैया कॉर्पोरेशन बैंक की हैदराबाद स्थित मुख्य शाखा में पदस्थापित थे। उनकी नौकरी नई थी। इसलिये, उनके लिए भी तुरंत इतनी बड़ी रकम का इंतज़ाम करना मुमकिन नहीं था। सबसे बड़ी समस्या, तो उनसे संपर्क करने की थी, क्योंकि पिताजी के एक्सीडेंट की ख़बर सुनकर वे तुरंत पटना के ट्रेन में सवार हो गये थे। उनका ट्रेन ऑपरेशन वाले दिन सुबह पहुँचने वाला था। राजीव भैया ने कहा था कि स्टेशन से वे सीधे नर्सिंग होम पहुँच जायेंगे। ऑपरेशन का समय, दोपहर के 3 बजे निर्धारित हुआ था।  

पिताजी भले ही पुलिस महकमा में काम करते थे, लेकिन ईमानदार होने की वज़ह से परिवार हमेशा आर्थिक झंझावातों से जूझता रहता था। संजीव के परिवार का गुज़र-बसर बड़ी मुश्किल से हो पाता था। पिताजी के कई साथी पटना के पॉश इलाक़े में आलीशान मकान बना चुके थे। वे अवागमन के लिये चार पहिया वाहन का इस्तेमाल करते थे, लेकिन पिताजी शुरू से ही ईमानदारी का दामन थामे हुए थे।   

पटना में घर होने की वज़ह से रिश्तेदार हमेशा हमारे यहाँ आते रहते थे। कभी मौसी, कभी मामी तो कभी चाचाजी। संजीव अपने घर को रैन-बसेरा मानता था, क्योंकि सिर्फ़ तीन ही कमरे बने थे। दो कमरों में तो खिड़की-दरवाज़ा भी नहीं था। किसी कमरे में प्लास्टर नहीं हुआ था। शौचालय भी नहीं बना था। यह ज़मीन को माँ ने अपने गहनों को बेचकर वर्ष 1974 में खरीदी थी। पटना से लगभग 60 किलोमीटर की दूरी पर, नालंदा ज़िले के हिलसा तहसील में संजीव का गाँव था। पटना जैसे बड़े शहर में, सिर्फ़ वेतन के पैसों से तीन बच्चों का लालन-पालन करना, उन्हें पढ़ाना-लिखाना और नियमित तौर पर अथितियों का सत्कार करना आसान नहीं था। पैसों की क़िल्लत की वज़ह से, संजीव ख़ाली जमीन में सब्ज़ियाँ उगाता था। उसे कभी भी बाज़ार से सब्ज़ी नहीं ख़रीदनी पड़ती थी। इससे पिताजी को काफ़ी राहत मिल जाती थी। 

माँ ने ऑपरेशन के पैसों का इंतज़ाम करने के लिये सभी रिश्तेदारों के सामने हाथ फैलाया, लेकिन किसी का दिल नहीं पसीजा। सभी गहनों को गिरवी रखने के बाद 25,000 रुपये की व्यवस्था हो पाई, जिसे संजीव ने कैश काउंटर पर जमा कर दिया। फिर भी, अस्तपताल प्रबंधन ऑपरेशन करने के लिये राजी नहीं था। संजीव का मन व्यथित था। वह सोच रहा था कि कैसे और कहाँ से बचे हुए 5000 रुपये का इंतज़ाम होगा? उसने तमाम विकल्पों को आज़मा लिया था। संजीव का मन अशांत था, इसी बीच नर्स ने तुरंत कुछ दवाइयाँ लाने के लिये उससे कहा।  

वह नर्सिंग होम के सामने अवस्थित सुमन मेडिकल स्टोर पहुँचा। मेडिकल स्टोर को दो भाई, मुकेश और दिनेश चलाते थे। उनका छोटा भाई पिंटू कभी-कभार दुकान पर आता था। वह भी एक अच्छे स्वभाव का लड़का था। एक-दो दिन में ही संजीव उनके साथ घुल-मिल गया था। संजीव के चेहरे पर दिख रही परेशानी को दिनेश ने तुरंत भाँप लिया। वह बोला, “क्या कोई समस्या है भैया?" 

संजीव ने झिझकते हुए बोला, “हाँ, दिनेश भाई, ऑपरेशन के लिये 5000 रुपये का इंतज़ाम नहीं हो पा रहा है, अगर शाम तक पैसे जमा नहीं करूँगा, तो कल पिताजी का ऑपरेशन नहीं हो पायेगा,” बोलते-बोलते संजीव की आवाज़ लरजने लगी।

दिनेश ने बोला, “बस इतनी सी बात के लिये आप घबरा रहे हैं,” कहते-कहते दिनेश गल्ले (पैसा रखने की पेटी) से 5000 रुपये निकालकर संजीव के हाथों पर रख दिया। संजीव पैसे लेने के लिये तैयार नहीं था। हालाँकि, दिनेश के बहुत ज़ोर देने पर उसने पैसे ले लिये। 

दिनेश बोला, “इंसानियत की वज़ह से ही यह दुनिया चल रही है, मुझे मालूम है, मेरा पैसा कहीं नहीं जायेगा, मुझे इंसान पहचानना आता है।" 

संजीव ने दिनेश से पुनः कहा, “कम से कम आप अपने पिताजी से पूछ लेते।" 

दिनेश बोला, “पिताजी मेरे फ़ैसले को कभी ग़लत नहीं ठहराते हैं, उन्हें मालूम है, मैं कोई भी ग़लत काम नहीं करूँगा।" 

दोनों पैर और एक हाथ का ऑपरेशन सफल रहा। हालाँकि, पिताजी के सीने का दर्द बदस्तूर जारी था। वे डॉक्टरों से लगातार इसकी शिकायत कर रहे थे, लेकिन उनके कानों में जूँ नहीं रेंगा। संजीव के लिये आर्थिक समस्यायें बढ़ती जा रही थीं, लेकिन भगवान की कृपा से सही वक़्त पर समस्या का समाधान भी मिल जा रहा था। इस मुश्किल घड़ी में, मोहल्ले में रहने वाले कलीम अंसारी ने  30,000 रुपये की मदद की, जो संजीव के लिये अप्रत्याशित था। संजीव ने उनसे मदद भी नहीं माँगी थी। वे ख़ुद से हमारी डूबती नैया के खेवनहार बने थे। माँ, उन्हें अपना छोटा भाई मानती थी। वे राजीव भैया के मित्र, नज़र भैया के मामूजान थे। संजीव के कुछ दोस्तों ने भी, अपने सामर्थ्य के अनुसार इस मुश्किल समय में सहायता की। संजीव का स्कूल का दोस्त सुनील, साइकिल से रोज़ नर्सिंग होम खाना पहुँचाता था, ताकि भाड़े के 30 रुपये बच सकें। खाजपुरा से नर्सिंग होम जाने और फिर वापिस लौटने में 30 किलोमीटर की दूरी सुनील को हर रोज़ तय करनी पड़ती थी।    

संजीव, सुनील के साथ नर्सिंग होम पहुँचा तो सुबह के 5 बज गये थे। माँ के रोने की आवाज़ पूरे फ़्लोर में सुनाई दे रही थी। कुछ नर्स माँ को शांत रहने के लिये कह रही थीं। जब संजीव कमरे में पहुँचा तो पिताजी अस्तपताल के बेड पर ही पड़े थे। बेड का चादर खून से लथपथ हो गया था। सफ़ेद मार्बल का बना फर्श भी खून से लाल हो गया था। ऐसा लग रहा था, जैसे किसी ने चाकू से घोंप-घोंप करके पिताजी की हत्या की थी। नर्सों ने बताया कि लगातार खून की उल्टी होने की वज़ह से आपके पिताजी की मृत्यु हो गई। माँ को लग रहा था कि किसी ने जादू-टोना से उसके पति को मार दिया, जबकि संजीव को लग रहा था कि डाक्टरों ने पिताजी को मार दिया। माँ को गाँव की एक महिला पर शक था, जिसे गाँव वाले डायन मानते थे। माँ उस महिला को लगातार “मगही” में गाली दे रही थीं। संजीव भी विवश था। वह चाहते हुए भी कुछ नहीं कर सकता था। उसके पास डाक्टरों के ख़िलाफ़ कोई सबूत नहीं थे।      

डॉक्टर नर्स को कह रहा था, “बॉडी का पोस्टमार्टम करवाना होगा, यह एक्सीडेंट का मामला था।" डॉक्टर ने नर्स को कहा, “स्थानीय थाने में इसकी सूचना दे दो।" सुबह 7 बजे एम्बुलेंस से पिताजी की बॉडी को पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल पोस्टमार्टम के लिये भेज दिया गया। संजीव हैरान सा पिताजी को बॉडी में तब्दील होता हुआ देख रहा था। 

संजीव, पहली बार मुर्दाघर या मोर्चरी गया था। संजीव के पिताजी को मिलाकर कुल 9 लाशें वहाँ रखी थीं। बॉडीज़ पर कपड़े नहीं थे। कुछ पुरुषों के शव थे तो कुछ महिलाओं के। शव का चीर-फाड़ करने वाले कर्मचारी ने कहा कि आपकी बॉडी का आज पोस्टमार्टम नहीं हो पायेगा। पहले से आई हुई बॉडीज़ का पहले पोस्टमार्टम होगा। मार्च का महीना था। वातावरण में हल्की गर्मी थी। ज़्यादा देर होने पर पिताजी का शरीर सड़ सकता था। साथ ही, दुःख की इस घड़ी में लंबे समय तक मुर्दाघर के बाहर खड़े रहना और पिताजी का मरने के बाद ऐसी दुर्गति होना, संजीव के लिये बहुत ही कष्टकारी था। संजीव ने राजीव भैया को फोन से वस्तुस्थिति से अवगत कराया। राजीव भैया के मित्र, मनोज भैया, पटना मेडिकल कॉलेज में एमबीबीएस के छात्र थे। उनके प्रयासों से, उसी दिन पिताजी का पोस्टमार्टम हो गया। 

पोस्टमार्टम रिपोर्ट में सीने के घाव को संजीव के पिताजी की मौत कारण बताया गया, जो हड्डियों के टूटने की वज़ह से हुआ था। इलाज नहीं होने के कारण घाव नासूर बन गया। लगातार खाँसी होने से घाव पर दबाव पड़ा और खून की उल्टी हुई, जिससे पिताजी की साँसें रुक गईं। पोस्टमार्टम रिपोर्ट के आधार पर डाक्टरों को कोर्ट में घसीटा जा सकता था, लेकिन संजीव का परिवार डॉक्टरों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई करने की स्थिति में नहीं था। वे ख़ुद को सँभालते या फिर कोर्ट-कचहरी का चक्कर लगाते। संजीव अच्छी तरह से समझ चुका था, “इस दुनिया में कमज़ोरों को न्याय मिलना मुमकिन नहीं है?"  

पटना मेडिकल कॉलेज से पिताजी को लावारिश लाश की तरह ठेले पर लादकर बांसघाट लाया गया। देखकर, संजीव को रुलाई आ रही थी। वह भगवान से दुआ कर रहा था कि ऐसी मौत किसी को नहीं मिले। ज़िंदगी भर पिताजी ने दूसरों का भला किया, लेकिन उन्हें अच्छाई करने के बदले  मौत की सज़ा मिली।     

पिताजी को अंतिम विदाई देने के लिये कुछ दोस्त एवं रिश्तेदार मौजूद थे। एक-एक पल संजीव पर भारी पड़ रहा था। उसका मन अशांत था। पिताजी के देहांत की ख़बर सुनने के तुरंत बाद वह अपने को मारना चाहता था, लेकिन माँ का चेहरा आँखों के सामने आने के बाद उसने अपने को ग़लत क़दम उठाने से रोका था। माँ की नींद की दवाई की पूरी बोतल अभी भी उसकी जेब में रखी थी। पिताजी को ठेले पर लेकर आते हुए देखकर उसका मन और भी विचलित हो गया था। उसे लग रहा था कि ऐसे निष्ठुर संसार में जीने का क्या फ़ायदा? 

मुखाग्नि देने से पहले पिताजी के पूरे शरीर में नज़दीकी रिश्तेदारों ने बारी-बारी से घी लगाया। संजीव जब घी लगा रहा था तो देखा कि, पिताजी का पेट और सीना धागों से सिला हुआ है, देखकर, उसका मन पुनः खिन्न हो गया। किसी तरह से उसने अपनी भावनाओं को नियंत्रित किया। फिर, उसने पिताजी के शरीर को कफ़न से ढँक दिया। शरीर के ऊपर लकड़ियाँ उसने इस तरह से रखी कि पूरा शरीर अच्छी तरह से जल जाये। ढेर सारा कपूर भी लकड़ियों के बीच रख दिया उसने।   

राजीव भैया ने चिता को मुखाग्नि दी। सूखी लकड़ी, कपूर और अत्यधिक घी होने की वज़ह से पिताजी का शरीर धू-धू कर जलने लगा। पिताजी का जलना संजीव के लिये असहनीय था। भावावेश में उसने पॉकेट से नींद की सारी गोलियाँ निकालकर एक ही बार में खा लीं। वह पिताजी को जलते हुए एकटक देख रहा था। थोड़ी देर के बाद, नींद की गोलियों ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया। संजीव को सबकुछ धुँधला-धुँधला सा दिखाई दे रहा था। ज़्यादा नींद आने की वज़ह से वह पिता के जलते चिता के सामने ही गिर गया।  

संजीव को 4 दिनों के बाद होश आया। माँ बोलीं, “तुम बांसघाट में ही बेहोश हो गये थे। राजीव घबरा गया था, तुम 4 दिनों से सो रहे हो, तुम्हें खाने-पीने का भी होश नहीं था, तुम बार-बार मुझे सोने दो, सोने दो की रट लगा रहे थे। मुझे लगा, तुम पिताजी की मृत्यु की वज़ह से बहुत ज़्यादा दु:खी हो, अब तुम्हारी तबियत कैसी है?" 

संजीव माँ को कैसे बताता कि उसने बहुत सारी नींद की गोलियों खा ली थीं, उसकी जीने की लालसा ख़त्म हो गई है और वह पिताजी के बिना नहीं जीना चाहता है। 
 

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