अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

पिताजी आज भी पैसे बचाते हैं

पिताजी आज भी पैसे बचाते हैं
पुरानी पेंट रफू करा कर
पहनते जाते हैं,
ब्रैण्डेड नई शर्ट
देने पे आँखे दिखाते हैं
टूटे चश्मे से ही
अख़बार पढने का
लुत्फ़ उठाते हैं,
टोपाज़ के ब्लेड से दाढ़ी बनाते हैं
पिताजी आज भी पैसे बचाते हैं ….

कपड़े का पुराना थैला लिये
दूर की मंडी तक जाते हैं,
बहुत मोल-भाव करके
फल-सब्जी लाते हैं
आटा नही खरीदते, गेहूँ पिसवाते हैं..
पिताजी आज भी पैसे बचाते हैं…

स्टेशन से घर
पैदल ही आते हैं
रिक्शा लेने से कतराते हैं
सेहत का हवाला देते जाते हैं
बढती महँगाई पे चिंता जताते हैं
पिताजी आज भी पैसे बचाते हैं ....

पूरी गर्मी पंखे में बिताते हैं, 
सर्दियाँ आने पर रजाई में दुबक जाते हैं
एसी/हीटर को 
सेहत का दुश्मन बताते हैं,
लाइट खुली छूटने पे 
नाराज हो जाते हैं
पिताजी आज भी पैसे बचाते हैं

माँ के हाथ के खाने में
रमते जाते हैं,
बाहर खाने में
आनाकानी मचाते हैं
साफ़-सफाई का हवाला देते जाते हैं,
मिर्च, मसाले और तेल से घबराते हैं
पिताजी आज भी पैसे बचाते हैं…

गुज़रे कल के क़िस्से सुनाते हैं,
कैसे ये सब जोड़ा - गर्व से बताते हैं
पुराने दिनों की याद दिलाते हैं
बचत की अहमियत - समझाते हैं
हमारी हर माँग आज भी, 
फ़ौरन पूरी करते जाते हैं
पिताजी हमारे लिए ही पैसे बचाते हैं ...

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

हास्य-व्यंग्य कविता

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

लघुकथा

कविता

सांस्कृतिक कथा

बाल साहित्य कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं