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पुलिस नाके पर भगवान : जागरण का सहज-स्फूर्त रचनात्मक प्रयास


समीक्ष्य पुस्तक : पुलिस नाके पर भगवान
लेखक : अशोक गौतम
प्रकाशक : गौरव बुक डिस्ट्रीब्यूटरस, हाउस न. 45 ग्राउंड फ्लोर, शिवाजी मार्ग, गली न. 5 करतार नगर, दिल्ली-110053
मूल्य : ₹350.00

“पुलिस नाके पर भगवान” अशोक गौतम का दसवाँ प्रकाशित व्यंग्य-संग्रह है। केवल दो-अढ़ाई वर्ष के अन्तराल में इतना सब आश्चर्य-चकित करने वाला लगता है किन्तु वास्तव में अशोक गौतम पिछले लगभग 25 वर्षों से व्यंग्य लिख रहे हैं और इनके व्यंग्य देश-विदेश के दैनिक, पाक्षिक अथवा नियत-अनियतकालीन पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित होते रहे हैं। उनकी वाणी को हास्य और लेखनी को व्यंग्य सहज प्राप्य है। वास्तव में अशोक गौतम को व्यंग्य लिखने की धुन है। अशोक गौतम जैसी उर्वर मेधा और सृजनशील उत्साह बिरले लोगों को ही प्राप्त होता है। वास्तव में जनमानस की अपेक्षाओं और प्राप्य तथा सपनों और उपलब्धियों के बीच का फ़ासला अनेक विसंगतियों को जन्म देता है तथा वर्तमान में जब मानव की दृष्टि अपेक्षाकृत अधिक भौतिकवादी हो गई है तो आपाधापी के इस वातावरण में गलाकाट प्रतियोगिता और होड़ जीवन-मूल्यों में परिवर्तित हो गए हैं। अतः ये फ़ासले अधिक विषम हो गए हैं। राजनीतिक चालबाज़ियों , प्रशासन की संवेदनहीन और लचर कार्यशैली, सामाजिक रीतियों और स्थितियों, धार्मिक मान्यताओं और ढकोसलों में ये विषमताएँ प्रतिबिंबित होती हैं। ऐसी विषमताओं और विसंगतियों के चक्रवातों के बीच एक व्यंग्यकार अचल खड़ा रहता है और अपनी ओर से हवाओं को थामने अथवा दिशा देने का भरसक प्रयास करता है। ऐसे ही रचनात्मक प्रयास की परिणति “पुलिस नाके पर भगवान” के रूप में हुई है। “पुलिस नाके पर भगवान” में 61 व्यंग्य संगृहीत हैं। यह संग्रह भी पिछले संग्रहों की ही तरह केवल पठनीय नहीं बल्कि चिंतनीय भी है और मननीय है।  

पुस्तक के शीर्षक के रूप में चयनित व्यंग्य “पुलिस नाके पर भगवान” को ही देखें तो लेखक जहाँ एक ओर पुलिस विभाग की कार्यशैली को कटघरे में खड़ा करता है वहीं दूसरी ओर व्यवस्था में व्याप्त काहिली को भी उजागर करता है। ब्रह्म-महूर्त में टहलने निकले भगवान पुलिस लेन स्थित मंदिर में हुई चोरी का सुराग़ लगाने के लिए लगाए गए नाके पर तैनात हवलदार के हत्थे चढ़ जाता है तो भगवान को अपनी जान छुड़ानी मुश्किल हो जाती है। पहले तो वह उसे शहर का छटा हुआ बदमाश ही समझ बैठता है- “साले पता नहीं कहाँ-कहाँ से चले आते हैं हम पुलिस वालों की नींद हराम करने। चल अभी पुलिस स्टेशन। शहर की सारी चोरियाँ न क़बूल करवा दीं तो मेरा नाम भी मातादीन हवालदार नहीं।” अब ज़रा भगवान के इस प्रकार टहलने का कारण भी देखें जो वह हवलदार को बताता है— “थोड़ा साँस लेने। दिनभर तो जनता की माँगें सुनता-सुनता थक जाता हूँ। अब क्या बताऊँ हवलदार साहब! बड़े बुरे दिन आ गए! पहले तो जनता सरकार से माँगा करती थी पर जब से सरकार बहरी हुई है अपने यहाँ माँगने वालों का ताँता लगा रहता है। बलिहारी जाऊँ उस पुजारी के कि वह रात को दस बजे मंदिर के द्वार बंद कर देता है। नहीं तो मेरा तो जनता की फ़रियाद सुनते-सुनते दम ही निकल जाए।” यहाँ सांकेतिक रूप में सरकार कि विफलता की ओर भी इशारा है तो लोगों की भेड़-चाल और स्वार्थ-पूर्ण मानसिकता और तथाकथित धार्मिकता पर भी। 

समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार हर व्यंग्यकार की लेखनी को धार और रफ़्तार दोनों देता है किन्तु यह भी सत्य है की भ्रष्टाचार सामाजिक विसंगति से अधिक एक व्यक्तिगत और आतंरिक विसंगति है। लोभ, मोह, अभिमान आदि मनोविकार ही नाना प्रकार की सामाजिक बुराइयों का रूप ले लेते हैं। व्यंग्यकार ने इस सत्य को पकड़ा है। भ्रष्टाचार समाज में बढ़ता कैसे है? “प्लीज़ हेल्प मी इंद्र” नामक व्यंग्य के सन्दर्भ से देखिए, जिसमें एक ठेकेदार के ठाठ-बाठ को देखकर व्यंग्य का वाचक कहता है- “अरे साहब, मैं ठहरा पी.डब्लू.डी. का ठेकेदार! पेट पालने के लिए ही यह स्वांग धरना पड़ा। क्या है न कि बचपन से अपने पड़ोस में एक ठेकेदार को देख मेरा बचपन से बस एक शौक़ था कि मैं पढ़ूँ या न पढ़ूँ पर ठेकेदार ज़रूर बनूँ। क्या मज़े थे साहब उनके। मेरे पढ़े-लिखे बाप के पास ठीक-ठीक सरकारी नौकरी होने के बाद भी कबाड़ी के जोड़े-लत्ते। और वे थे कि अनपढ़ होने के साथ-साथ दो-दो गाड़ियों के मालिक।” व्यंग्य को और धार और गहराई देते हुए लेखक वाचक के हृदय को उँड़ेलते हुए उससे बुलवाता है— “मेरी माँ थी कि  दरवाज़े पर आए भिखारी को पचास पैसे भी मन मसोसते हुए देती थी। और वे जिस दिन दस-पंद्रह आला अधिकारियों को भर पेट खिला-पिला मन-माफ़िक दक्षिणा न दे लेते, मुँह में कौर भी न डालते।” ज़ाहिर है वह ठेकेदार बन गया किन्तु अधिकारियों की टहल-हज़ूरी और हिस्सा-पूर्ति करते करते आटे-दाल का भाव मालूम पड़ गया। बानगी देखिए— “इसका चार परसेंट, उसका आठ परसेंट, इसके घर का इसी ठेके में से छत बनवाओ तो उसका गुसलखाना। पार्टी फंड जुदा। इनकी बेटी की शादी है तो बाप से अधिक चिंता उसूलन ठेकेदार को होनी चाहिए। होनी क्या चाहिए? करते हैं साहब! अपने बच्चों से पहले उनके बच्चे हैं। ......... देंगे साहब, देंगे। ओखली में सर दिया है तो मूसल भी मरने तक सहर्ष झेलेंगे। हम मना कब करते हैं?....... सड़क जाए भाड़ में, भवन गिरता है तो गिरता रहे। डंगे तो हम देते ही गर्मियों के लिए हैं। पुल शर्म के मारे आत्महत्या कर जाए तो कर जाए। हम नहीं आत्महत्या करेंगे साहब! रेत पर कौन सा देश खड़ा हुआ है? पर हमारे पास ये हुनर है। और ये सब सीना चौड़ा कर कर रहे हैं।” इस उदहारण में केवल व्यंग्य नहीं है एक नंगी सच्चाई है, अंतहीन लोभ की पराकाष्ठा है, उलाहना है, धिक्कार है, चिंता है, प्रश्न है कि आख़िर ये भूख किसलिए? और रचनात्मक स्तर पर भाषा की व्यंजकता और प्रवाह ..... अतुलनीय!

“प्रेमचंद के बहाने” नामक व्यंग्य में शिक्षा और लेखन के क्षेत्र में प्रवेश कर चुकी राजनीतिक गुटबाज़ी, चापलूसी और भ्रष्टाचार पर करारा व्यंग्य किया गया है कि किस तरह ऐसे आयोजन अपने राजनीतिक आक़ाओं की नज़र में आने और सरकारी बजट को ठिकाने लगाने के प्रयास बन जाते हैं। व्यंग्य का अंत इन शब्दों में होता है- “हे प्रेमचंद! तुम्हारी जयंती तो एक बहाना है, असल में इस बहाने अपने गुट के बुद्धिजीवियों पर बजट लुटाना है।”

व्यंग्यकार अशोक गौतम की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे स्थितियों को तटस्थ होकर दूर से नहीं देखते बल्कि हर विडम्बनात्मक और विषम परिस्थिति में कर्ता अथवा भोक्ता के रूप में उपस्थित रहते हैं। इसलिए व्यंग्य उनके लिए ओढ़ना-बिछौना नहीं बल्कि उनके जीव को जीवंत रखने वाला रक्तसंचार है, प्राण है, चेतना है। विशुद्ध लेखक बन कर जीना हमेशा ही कठिन रहा है। आज भी यदि कोई लेखक अच्छा जीवन व्यतीत करता है तो या तो वह रोज़ी के लिए कोई और काम करता है या फिर राजनितिक जुगाड़, चालबाज़ी और चापलूसी के हाथों अपनी लेखनी को गिरवी रखवा बैठता है क्योंकि ‘नीर-क्षीर विवेकी’ संपादक के विवेक की थाह लेना भी कठिन है और यदि लेखक प्रतिभाशाली हो और उसकी लेखकीय ज़मीन यदि अधिक उर्वर हो तो भी प्रकाशक का पेट तो निस्संदेह लेखक के पेट से बड़ा ही रहा है। ऐसी विषम परिस्थिति में लेखक की पत्नी के घर यदि देवयोग से भगवान आ जाएँ तो भला वह माँगने में क्यों कंजूसी करने लगी। वह बासमती चावल, अपने मनपसंद राजमाह, चीनी और न जाने क्या-क्या माँग बैठती है किन्तु जब वह शुद्ध देसी घी माँगती है तो भगवान का उत्तर देखिए— “देवी! शुद्धता की बात मत करो! बस माँगे जाओ! शुद्धता की बात करोगी तो मैं कुछ भी देने में असमर्थ हो जाऊँगा। अब जब इस देश में कुछ भी शुद्ध नहीं तो मैं दूँगा कहाँ से? यहाँ तो आज ज़हर भी शुद्ध नहीं और बन्दे हैं कि फिर भी खाने के बाद मुझे ही कोसते हैं। भक्तो! फ़ॉर यूअर काइंड इन्फ़ारमेशन, मेरी न तो यहाँ अपनी फ़ैक्टरी है और न ही क्वालिटी कंट्रोल। ......मैं भी तो बाज़ार से ही सब लाकर माँगने पर अपने भक्तों को देता हूँ। स्वर्गलोक में मृत्युलोक के उत्पाद तो बनते नहीं। अगर बनते तो वहीं से लेकर आया करता देवी!” लेखक यहाँ व्यंग्यात्मक रूप से मनुष्य की उस प्रवृति पर चोट करता है जिसमें वह अपने लिए तो हमेशा अच्छे की ही कामना करता है किन्तु उसके अपने कृत्य बिल्कुल विपरीत होते हैं। किन्तु लेखक की पत्नी इतने में संतुष्ट होने वाली कहाँ है? वह तो अपने पति के लेखकीय कर्म से परेशान है क्योंकि उस कार्य से दो वक़्त की रोटी चलाना भी मुश्किल है। किन्तु अपने पति की लेखन की बुरी आदत छुड़वाने की माँग तो भगवान भी स्वीकृत नहीं कर पाते- “मैं लेखक से रोटी छुड़ा सकता हूँ! मैं लेखक से पानी छुड़ा सकता हूँ! मैं लेखक से घर छुड़ा सकता हूँ! मैं लेखक से उसका जीना छुड़ा सकता हूँ पर उससे उसका लिखना नहीं छुड़ा सकता। अगर उसका लिखना छूट गया तो इस लोक का ही नहीं समूचे ब्रह्मांड का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाएगा और मेरा भी देवी! ये मेरे अधिकार क्षेत्र से बाहर है।” यहाँ व्यंग्य के सन्दर्भ में तो इस कथन की अपनी एक व्यंजकता है किन्तु व्यंग्यकार यहाँ मात्र व्यंग्य नहीं कर रहा बल्कि एक शाश्वत सत्य की ओर भी इंगित कर रहा है और वह है मानव का स्वभाव। उस स्वभाव को बदलना बहुत कठिन है किन्तु यह भी कि लेखकीय कर्म बहुत उत्तरदायित्त्व का कार्य है। पेट की क्षुधा की परवाह न कर, ग़रीबी में गुज़र-बसर कर भी महान लेखक व्यापक सार्वजनिक हित में अपने आप को होम कर इस धरा को मनुष्य के रहने योग्य बना गए हैं, मानव सभ्यता के विकास में अपना बहुमूल्य योगदान दे गए हैं और दे रहे हैं तथा इस योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता। 

“आगे देखेंगे आप लोग” नामक व्यंग्य में व्यंग्यकार सीधे–सरल शब्दों में अव्यवस्था के मूल कारण को पकड़ने का प्रयास करता है- “आज़ादी के बाद उस देश में राजाओं का राज ख़त्म हुआ और लोकतंत्र आ गया। जनता को लगा कि ये उसका राज है वह गुनगुनाने लगी। .... धीरे-धीरे जनसेवक धनसेवक होने लगे। शुरू-शुरू में जनता चीखी, पर उससे हुआ कुछ नहीं। उसने सरकार बदल दी। खाने वाले दूसरे आ गए। जनता फिर चीखी। ..... धीरे-धीरे उस देश की जनता ने जनसेवकों के बारे में सोचना ही छोड़ दिया।” जनसेवक धनसेवक हुए यह तो विडंबना है ही किन्तु बुद्धिजीवियों ने आजिज़ आकर इन विसंगतियों की उपेक्षा कर दी यह उससे बड़ी विडम्बना है। परिणति क्या हुई- “अब जो भी जनता की सेवा करने का ढोंग रचता जीत जाने के बाद बिना किसी के डर के अपना घर भरता। रस्म अदायगी के लिए हो-हल्ला होता। जो जनसेवक नंगा जीत कर जनता की सेवा करने आता अगले चुनाव तक अरबों जोड़ कर भूतपूर्व से अभूतपूर्व हो बेकार के डर से अस्पताल में बीमारी का बहाना कर भरती हो जाता। अख़बारों को मसाला मिल जाता और सरकार को जनता को उलझाने का टोटका। जिस देश में जनसेवक जनता के बदले जनता के धन के सेवक हो जाएँ वहाँ की जनता कितने दिन जिएगी? वह देश कितने दिन चलेगा?” और फिर यह संग्रहशीलता भी किस लिए? व्यंग्यकार पूछता है- “सम्पति की मौज उसका सुख भोगने में है या अपनी ही जोड़ी सम्पति से डर कर अस्पताल में बीमारी का नाटक कर लेटने में?” बस यही सोचने वाली बात है किन्तु तथाकथित जनसेवकों का विवेक यहीं कुंद हो जाता है। इन जनसेवकों पर न तो लेखक का विश्वास रहा और न ही जनता का बल्कि यह कहें कि लेखक जनता के अविश्वास को ही अनेकशः और विविध रूप में अपने व्यंग्यों में अभिव्यक्ति देता है। किन्तु समाधान क्या है। व्यंग्य के एक पात्र रामदीन, जो वस्तुतः समस्त जनता का ही प्रतीक है, से व्यंग्य-वाचक कहता है- “जीना है तो खड़े होना सीखो। ऐसे। जीना है तो अपने पाँव पर चलना सीखो। ऐसे, हाँ ऐसे!” किन्तु जिसे हाथ-पाँव से लाचार कर दिया गया हो यह कह कर कि वही उसके तारणहार हैं, वही उसके भगवान; वह क्या इतनी जल्दी सँभल पाएगा। कहना न होगा कि लेखक इसी प्रयास में लगा है। व्यंग्य के अंत में व्यंग्य-वाचक कहता है— “रामदीन को क्या अब हिम्मत करनी चाहिए? अगली किस्त में देखेंगे आप लोग।” इस प्रकार अशोक गौतम के सारे व्यंग्य, जीवन रूपी धारावाहिक की ही कड़ियाँ हैं और यह धारावाहिक, जीवन की ही तरह निरंतर चल रहा है जिसमें रोज़ नए पड़ाव, नई स्थितियाँ तथा नए पात्र जुड़ते रहते हैं। लेखक का प्रयास यही है कि इस धारावाहिक में जो नए पात्र आएँ वे वर्तमान पात्रों से अधिक सुन्दर और उर्ध्व-चेतना संपन्न हों। 

अशोक गौतम को व्यंग्य सहज प्राप्य है, यह उनके स्वभाव में है। जीवन में जिन स्थितियों-परिस्थितियों से हम बच कर निकल जाते हैं, गौतम को वही परिस्थितियाँ सहज ही आविष्ट कर देती हैं। बद्री सिंह भाटिया उक्त पुस्तक के फ़्लैप पर लिखते हैं— “अशोक गौतम जैसे ही अख़बार खोलते हैं, मीडिया पर कोई रपट सुनते समझते हैं या राह चलते किसी से बतियाते हैं तो बातों ही बातों में कुछ अटपटा सा लगते ही उनके भीतर एक अजीब सी कसमसाहट होनी शुरू हो जाती है। वे विचारक हैं। अपनी बात कहना चाहते हैं।” इस प्रकार भाव की अभिव्यक्ति के लिए उन्हें शब्द या भाषा ढूँढ़ने की आवश्यकता नहीं पड़ती। भाषा यहाँ भाव की सच्ची अनुगामिनी बनकर विनम्रतापूर्वक हरदम मौजूद है। “फेयरवेल ऑव हिंदी जी” नामक व्यंग्य वैसे तो वर्ष में एक बार सरकारी और ग़ैर सरकारी स्तर पर हिंदी के उन्नयन की औपचारिकताओं को अपने निशाने पर लेता है। किन्तु अशोक गौतम की भाषा उस संवेदना अथवा संवेदनहीनता को अलग ही तरह से प्रस्तुति देती है। यथा- “जैसे ही हिंदी जी मंच पर सुशोभित हुईं कि एक बार सभागार तालियों से फड़फड़ा उठा। हर ताली मार्किट रेट से चार गुणा अधिक भाव की। मंच पर पहुँच हिंदी जी ने सबसे पहले तो अपनी आँखों में आए आँसू पोंछे....” मंच से बोलते हुए आयोजन से गद्गद हिंदी जी के वक़्तव्य का एक उदाहरण देखिए- “आपने जिस जोश-खरोश से दस से पाँच की परवाह किए बिना मेरे लिए सरकारी बजट को प्रयोग किया उसके लिए मैं सदैव आपकी ऋणी रहूँगी। पूरा देश पानी में डूबा हुआ था और आप हिंदी में।” और फिर धन्यवाद स्वरूप हिंदी जी के विदाई शब्द देखिए- “अंत में एक बार फिर सरकार और सरकारी विभागों का धन्यवाद करना चाहूँगी कि उन्होंने पंद्रह दिनों तक मेरी सेवा की कि अब सारा साल इन मधुर स्मृतियों में आनन्द से काट लूँगी। राजभाषा के लिए पुरस्कारों का जुगाड़ करने में सफल हुओं को मेरी ओर से ढेर सारी बधाई! आपने इन पंद्रह दिनों में मुझे इतना सम्मान दिया कि अगर अब आप साल भर अँग्रेज़ी की बात करोगे तो भी मलाल न होगा।” आद्यंत ऐसी ही सहज और जीवंत भाषा सम्पूर्ण व्यंग्य-संग्रह में विद्यमान है। “प्लीज़ हेल्प मी इंद्र” नामक व्यंग्य का एक और उदाहरण देखें— “माना आपके अख़बार में छपी मानसून की ख़बर को देख रोता किसान दो पल के लिए हँसने की कोशिश कर लेता है। उसकी सूखती खेती आपके अख़बार में मानसून कि ख़बर देख दो दिन और गर्मी के प्रकोप सहन करने का साहस बटोर लेती है।.....माना आपके अख़बार की मानसूनी ख़बर को पढ़ संसद के मेंढक महँगाई की कमर टूटने की टर्र-टर्र करने लग जाते हैं। ....... सच है, आपके अख़बार में छपी ख़बरें भूखे को चार दिन और मरने नहीं देतीं। ...... देश की जनता को बचाए रखने में आपका सरकार से अधिक योगदान है। भगवान करे आपके अख़बार का धंधा और फूले-फले।” वाह! यह अहसास, यह अभिव्यक्ति किसी टिप्पणी की मोहताज़ नहीं है। इस भाषा में कहीं भी बनावट नहीं है और न ही अतिशय वक्रता अथवा वैचित्र्य-प्रदर्शन की आकांक्षा। यदि है तो एक सहजता और सरोकार।  

सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार सुरेश कान्त ने व्यंग्यकारों की भीड़ में अशोक गौतम की व्यंग्य-प्रतिभा को पहचानते हुए उल्लेख किया है- “व्यंग्यकारों की भीड़ में अशोक गौतम एक सीधे-सादे व्यंग्यकार हैं। वे सीधी-सरल भाषा में अपनी बात कह डालते हैं। भाषा कि सरलता के कारण उनकी बात पाठकों तक निर्बाध रूप में और त्वरित गति से पहुँच जाती है। भाषा की बीहड़ता में वह भूलती-भटकती नहीं। इस तरह वह भाषा की दबंगई के नहीं, कथ्य की प्रबलता के व्यंग्यकार हैं। बहुतों के विपरीत, भाषा उनके लिए माध्यम है लक्ष्य नहीं। वे विसंगति को देखते है और उसे निर्द्वंद्व भाव से उजागर कर देते हैं। वे भाषा को अलंकारों से लादने-मढ़ने के लिए रुकते-ठहरते नहीं। इसलिए उनकी भाषा अलंकारों के बोझ से दबकर उनके कथ्य को वहन करने में असमर्थ नहीं होती। ....व्यंग्य उत्पन्न करने के लिए गौतम उक्ति-वैपरीत्य का ही सहारा लेते हैं, उक्ति-वैचित्र्य का नहीं।”

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