प्रगति और प्रकृति
काव्य साहित्य | कविता श्रीमती प्रवीण शर्मा18 Feb 2015
हवाओं के
करतल पर
धूप से
लबालब
सूरज का
कटोरा थामे
हरी भरी
ओढ़नी में
लिपटी
वसुंधरा
सागर में
खड़ी हो कर
हर पल
पूजती
अहोई माँ को...
माँगती है
कुशल क्षेम
अपने
परिवार की
गाय की
कुत्ते की
शेर की
सियार की,
फूल की
काँटों की
पात की
पहाड़ की,
मरूथल में
अठखेली करते
रेत के अंबार की।
और हम
झुलसते
चाहतों की
आग में
कभी झूठी
हँसी हँसते
बुझते चिराग़ की
वक़्त के
बहाव में
तैरते तिनके से
समझते महफ़ूज़
ख़ुद को
डूबते जहाज़ में,
घूमते हैं
लगातार
कुम्हार के
इस चाक से।
ऐसे ऐसे
रोबोट
यहाँ
हुकुम
बजाते
हैं
अपनी सरकार का
अलसाए इंसान का
करते इलाज यहाँ
नासूर,नाइलाज का,
और नीरस
ज़िन्दगी में
एक भी तो
कोना नहीं
जहाँ से
एहसास हो
वसुधा के
प्यार का,
गुहार का,
मनुहार का
दीपक
जलाएँ
जहाँ
माँ वसुधा
के
इंतज़ार का,
पतझड़ के
बाद आती
बसंत बहार का....
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