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प्रकृति और हम

वो दोस्ती हो, मुहब्बत हो, चाहे सोना हो।
कसौटियों पे परखना ज़रूर पड़ता है॥ 

मुनव्वर राना का उपर्युक्त शेर हर चीज़ को कसौटी पर परखने की बात करता है, क्योंकि बिना जाँचे-परखे किसी भी चीज़ की प्रामाणिकता सिद्ध नहीं होती। किन्तु जाँचने-परखने के लिए भी हुनर चाहिए, ज्ञान चाहिए, समझ चाहिए। इसलिए अपने विषय का विशेषज्ञ ही किसी चीज़ की प्रामाणिकता पर सार्थक बात कर पाता है। ऐसा उसे साधिकार करना भी चाहिए। शायद इसीलिये एक वैज्ञानिक विज्ञान की बात करता है, एक गणितज्ञ गणित की बात करता है, एक खगोलशास्त्रीय खगोलशास्त्र की बात करता है, एक समाजशास्त्री समाज की बात करता है, एक अर्थशास्त्री अर्थ की बात करता है, एक अध्यात्मवेत्ता अध्यात्म की बात करता है, एक प्रकृतिप्रेमी प्रकृति की बात करता है और एक पर्यावरणविद प्रकृति के घटक पर्यावरण की बात करता है। सब अपनी समझ के हिसाब से बात करते हैं— सबके लिए अपने-अपने विषय महत्वपूर्ण होते हैं और होने भी चाहिए। किन्तु मनुष्य होने के नाते सबसे अधिक महत्वपूर्ण क्या है— यह जानना भी ज़रूरी है।

मनुष्य का उद्भव एवं विकास प्रकृति से हुआ है और उसका अवसान भी इसी प्रकृति में होना है। इसलिए प्रकृति से परे जाना मनुष्य के लिए संभव नहीं। चूँकि मनुष्य की समस्त शक्तियों का स्रोत प्रकृति है, इसलिए मनुष्य प्रकृति से जितना अधिक तादात्म्य स्थापित करेगा, उतना अधिक वह श्रेष्ठ बनता जायेगा। यह सर्वविदित ही है कि जब-जब मनुष्य ने प्रकृति की महासत्ता को चुनौती दी है, उसे मुँह की खानी पड़ी है। हाँ, यह अलग बात है कि वह अपनी (कु)-बुद्धि का प्रयोग कर कार्य-कारण सिद्धान्त के आधार पर प्रकृति की महासत्ता को ख़ारिज कर दे— "करइ बिचारु कुबुद्धि कुजाती। होइ अकाजु कवनि बिधि राती॥/ देखि लागि मधु कुटिल किराती। जिमि गवँ तकइ लेउँ केहि भाँती" (बाबा तुलसीदास)। ख़ारिज तो चार्वाक के अनुयायी भी ईश्वर को करते हैं, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि ईश्वर का अस्तित्व ही नहीं है? ऐसी स्थिति में ख़ारिज करने और मानने वाले— दोनों ही एक नाव पर सवार दिखाई पड़ते हैं। मज़े की बात यह कि वह नाव भी प्रकृति से उद्‌भूत हुई है और उसी में विलीन होनी है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह प्रत्येक स्थिति में प्रकृति के साथ रहे, उसके स्पंदन को पूरी शिद्दत से महसूस करे, उसे पूरे मन से जिये और जीवन का भरपूर आनंद ले।

मानव जीवन में प्रकृति का विशेष महत्व है, यह हम सभी जानते हैं। प्रकृति को जानना जितना ज़रूरी है, उससे कहीं अधिक उसे मानना ज़रूरी है। आधुनिक विज्ञान जहाँ इस बात की पुष्टि करता है, वहीं हमारे प्राचीन ग्रंथों में भी हज़ारों बार इस तथ्य को उजागर किया गया है। शायद इसीलिये हम भारतीय लोग प्रकृति की उपासना करते है, उसे देवतुल्य मानते हैं। विष्णुपुराण (5, 10, 26) में प्रसंग आता है कि एक बार श्रीकृष्ण ने देवराज इन्द्र से कहा कि हम लोग सौदागर नहीं हैं, हम खेती-किसानी करते हैं, गौ पालते हैं, वन में रहते हैं और वन हमारे लिए बहुत उपयोगी हैं— "न वयं कृषिकर्त्तारो वाणिज्याजीविनो न च। गावोsस्मद्दैवतं तात वयं वनचरा यतः।" इसी प्रकार से आधुनिक समय के तमाम कवियों ने भी प्रकृति के महत्व को अपने ढंग से स्वीकार किया है—

(1)

काली-काली घटा देखकर
जी ललचाता है
लौट चलो घर पंछी
जोड़ा ताल बुलाता है

सोंधी-सोंधी गंध खेत की
हवा बाँटती है
सीधी-सीधी राह बीच से
नदी काटती है

गहराता है रंग और
मौसम लहराता है। — कैलाश गौतम

(2)

आओ, थोड़ी देर यहीं पर
पेड़ों से बतियाएँ

देखो, उस जल-धार किनारे
दूब छीलता वन-सेवी
और उसी के पास खिलाए
मृगछौने को वन-देवी

दिल तो कहता है कि इसी पल
वनवासी बन जाएँ। — वीरेंद्र आस्तिक

कहा जा सकता है कि पर्यावरण का महत्व आदिकाल से ही परिलक्षित है और यही कारण है कि हमारे पुरातन और अधुनातन ग्रंथों में प्रकृति और उसके घटक तत्वों के प्रति विशेष आदर भाव दिखाई पड़ता है। यह अलग बात है कि आज हम उपभोक्तावाद की चकाचौंध में कुछ कम संवेदनशील हो गए हैं जिसके परिणामस्वरूप पारिस्थितिकी तंत्र में जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, भाव प्रदूषण आदि बढ़ता चला जा रहा है। आओ हम सब मिलकर प्रकृति को बचाएँ, क्योंकि प्रकृति बचेगी, तो हम बचेंगे।

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