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प्रकृति और विकास

प्रकृति, हरियाली और मोहक रंगों के वस्त्र पहन कर झूम रही थी और गा रही थी। अपना भरपूर यौवन लिए नृत्य कर रही थी। एकाएक वो बैठकर कुछ विचार करने लगी। मन उदास हो गया, प्रियतम से मिलने की इच्छा बलवती हुई।

ग्रामीण संस्कृति का चोला पहने कोई भी प्रकृति के मन को नहीं भाया। उसका मन तो शहरी सभ्यता का तंग वस्त्र पहने, कृत्रिम भावभंगिमा लिए, कुछ थोथे, कुछ मानक लिए आदर्शवान युवक ’विकास’ पर आया। प्रेम-प्रसंग का अस्तित्व क्षण-भंगुर हुआ। मोहभंग तीव्र गति से हुआ।

’विकास’ ने अपना पाँव पसारना शुरू किया, वो वस्त्र ओढ़ता गया और प्रकृति निर्वस्त्र होती गयी। ’विकास’ के अस्तित्व ने ’प्रकृति’ के अस्तित्व को ढंक लिया।

जहाँ विकास गया, वहाँ प्रकृति लुप्त और ’प्रकृति के साथ ’विकास’ की कल्पना, अकल्पनीय साबित हुई।

फलस्वरूप ’विकास’ और ’प्रकृति’ का मिलन कभी नहीं हुआ लेकिन मानव मन के एक कोने में इस मिलन के प्रति व्याकुलता यदा-कदा प्रतीत होती ही रही और होती ही रहेगी।

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