प्रकृति की दीवाली
काव्य साहित्य | कविता महेशचन्द्र द्विवेदी3 Jun 2012
अनंत आकाश में रहते हैं असंख्य तारे,
रातों में टिमटिमाते हैं जुगुनू से प्यारे,
मचलकर निकलते हैं जब हो रात काली,
समस्त ब्रह्मांड में लाते हैं नित दीवाली।
आदिकाल से मानव का इनसे साहचर्य,
अबोध बालमन में ये भरते हैं आश्चर्य,
मानवों को दिलाते हैं क्षुद्रता का भान,
विद्वान को कराते हैं सीमाओं का ज्ञान।
आकाशगंगा है एक अरब तारों का समूह,
उनके चहुं ओर ग्रहों-उल्काओं का चक्रव्यूह,
होते हैं सब विस्फोटित फुलझड़ियों के समान,
इस प्राकृतिक दीवाली की अनोखी है शान।
पर आकाशगंगा के केन्द्र में है उक ब्लैकहोल,
जहाँ अंत में जाती हर वस्तु लम्बी हो या गोल।
मानव तू निशिदिन मना खुशियों की दीवाली,
पर मत भूल हर दीपक के नीचे छाया काली।
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