प्रथम पहचान
काव्य साहित्य | कविता समितिञ्जय शुक्ल15 Jun 2020 (अंक: 158, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
पहचान का मुखौटा
भले दिखाई नहीं देता
मगर जिस चेहरे पे है चढ़ता
उस सिर पे है राज करता
बहुत ख़ामोशी से काम करता है
अपना ही विस्तार करता है
रंग रूप मज़हब बोली भाषा
गाँव देश–प्रदेश धरा विचाराधारा
असंख्य रूपों में बँटा
सनातन संघर्ष कर रहा।
छोटे–छोटे विवादों से लेकर
महायुद्धों तक में इसका हाथ है
हर पल हर गली हर शहर हर घर में
हर ज़ेहन हर मस्तिष्क में कर रहा ख़ुराफ़ात है।
ये मुखौटे चेहरों पर नहीं
ज़ेहन में पहने जाते हैं
साथ में इनके चश्में भी आते हैं
एक जात वालों को एक सच दिखाते हैं
हर एक को यूँ ही लड़ाते हैं
नक़ली पहचान देकर
असली पहचान खा जाते हैं।
इन सबके बीच एक और मुखौटा जीता है
प्रथम पहचान जिसका नाम मिलता है
इसकी कोई एक पहचान
कोई एक ख़ासियत नहीं
पर हर किसी में घुलने की हैसियत वाला यही
सारी पहचानों को एक साथ अपना सकता है
सबको एक साथ दुत्कार सकता है
हर इक की ख़ुशी में ख़ुश
हर इक की ग़मी में दुख
और हर शय से आनंद उठा सकता है।
इसे पाने के लिये
सभी मुखौटे उतारने होते हैं
या यूँ कहें
कि कोई भी नहीं पहनना होता
ये जन्मजात होता है
जो बाद में म्लान होता है
इसी खोए हुए को पाने के लिये
कोई वेटिकन, कोई काशी तो कोई क़ाबा तक घूम आता है
फिर भी उसमें कोई ना कोई रंग चढ़ा आता है
प्रथम पहचान को आख़िरी बनाना चाहता है॥
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