प्रवासी वेदना: नशे का गुलाम मैं
काव्य साहित्य | कविता समीर लाल 'समीर'31 May 2008
कभी जी भर पीने का ख्वाब लिये
बेवतन हो दरदर भटक रहा हूँ मैं
सुरा ना जाने वो मिलती है किस जहाँ
जिसकी हर पल तलाश कर रहा हूँ मैं।
प्यास बुझाने को है काफी घर में मगर
नशे में मद मस्त होने मचल रहा हूँ मैं
जानता हूँ ये है एक मरीचिका मगर
नशे का गुलाम प्यासा मर रहा हूँ मैं
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