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प्रेम में मेरा वास

मुझे बड़ा आश्चर्य होता है
कि मैं तुम्हारी माँ के इश्क़ में हूँ
शायद ,तुम्हारे पिता के प्रेम में भी
या तुम्हारे भाइयों के स्नेह में भी 
तुम ख़ैर! अपनी तो पूछना ही मत
 
हद तो यह है कि तुम्हारी गलियों के 
कंकड़ पत्थर में भी मेरी रूह बसती है
 
वो मौन खड़ा अडिग सा पीपल का पेड़
जो कई सालों से कुछ नहीं कहता
उसके तह-तह में मेरी नब्ज़ धड़कती है
 
तुम्हारे हर एक तार से मेरे मन का तार जुड़ा है
जानती हूँ मेरी मोहब्बत का पागलपन है यह
 
यह कौन सा मंज़र है, दरिया है या समंदर है
फ़ासले मौन हैं मीलों की दूरी भी शून्य है
अब हर रोज़ स्वयं की ईश्वर से मुलाक़ात होती है!
 
अब कोई तमन्ना नहीं इस दिल को
मरने के बाद मोक्ष के लिए गंगा की भी ज़रूरत नहीं
 
मेरे प्रेम में बस प्रेम का वास है
इसलिए न तो तुम्हारी ज़रूरत है
न किसी और कर्मकांड की
कोई भय भी नहीं
क्योंकि –
प्रेम मुझमें बसता है
मैं प्रेम में बसती हूँ।

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