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प्रेमचंद की कहानियों में राष्ट्रीय एकता एवं सांप्रदायिक सद्भाव

हिन्दी कहानी में 1857 की आज़ादी की जंग को काफ़ी व्यापक रूप पर उकेरा है। हिन्दी के आरंभिक कहानिकारों ने अपनी विभिन्न कहानियों के माध्यम से स्वाधीनता के इस प्रथम संघर्ष के विभिन्न पहलुओं पर विचार किया है।

यह एक संयोग है कि हिन्दी कहानियों का जन्म राष्ट्रीय पुनर्जागरण के साथ हुआ और इसने प्रेमचंद जैसे महान कहानीकार को जन्म दिया। सन 1911 -1920 की अवधि में प्रकाशित प्रेमचंद की कहानियों में राष्ट्रीयता का स्वर दिखाई देता है। यहाँ से प्रेमचंद राष्ट्रीय भावना की अभिव्यक्ति के लिए उस तरीक़े का इस्तेमाल करने लगते हैं, जिसे अँग्रेज़ी में "विकेरियान नेशनलिस्म" कहा जाता है। दमन और आतंक के सहारे चलने वाले औपनिवेशिक शासन में लेखकों के लिए अपनी राष्ट्रीय भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए यही रास्ता बचा रहता है।

"आहे बेकस" अथवा "गरीब की हाय"(1911) ऊपर से एक परंपरागत नैतिक बोध की कहानी प्रतीत होती है पर उसमें तत्कालीन ग्रामीण रईस वर्ग के आर्थिक, नैतिक और चारित्रिक खोखलेपन का बेहद व्यंग्यपूर्ण अंकन हुआ है। इसके साथ ही यह कहानी अत्याचारी के ख़िलाफ़ सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा का ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करती है जिसका उपयोग बाद में गाँधी जी ने औपनिवेशिक शासन के विरोध में किया। "राजा हरदोल" (1911), "आल्हा"(1912), "कैफरे-कर्दार"(1912), "बांका जमींदार" (1913), "अनाथ लड़की"(1914), "शिकारी राजकुमार"(1914), "जुगनू की चमक"(1916) आदि कहानियाँ प्रत्यक्ष राजपूतों, बुंदेलों, सिखों आदि की वीरता, बलिदान, स्वाभिमान, मानस में उन भावनाओं को जागृत करना चाहती हैं, जो देश को औपनिवेशिक गुलामी से मुक्त करने के लिए ज़रूरी था।

"सेवा मार्ग" (राहे-खिदमत,1918 ) कहानी में एक मिथकीय कथा के माध्यम से "सेवा मार्ग"- देश सेवा का महत्व प्रतिपादित किया गया है। ऐश्वर्य, सौन्दर्य और वैभव की तुलना में प्रेम को और प्रेम की तुलना में सेवा-मार्ग को श्रेष्ठ बताकर देश के प्रति लेखक की प्रतिबद्धता उजागर हुई है। ये कहानियाँ परोक्ष रूप में प्रेमचंद की राष्ट्रीय चिंता को ही संकेतित करती हैं।

देश प्रेम की परोक्ष अभिव्यक्ति वाली इन कहानियों के बीच "वियोग और मिलाप"(1917) नामक कहानी में प्रेमचंद पहली बार समकालीन स्वाधीनता की लड़ाई का खुलकर चित्रण करते हैं। औपनिवेशिक शासन में किसी लेखक के लिए स्वराज का समर्थन करनेवाली कहानी लिखना राजद्रोह में शामिल था। इसके बावजूद उन्होंने "वियोग और मिलाप" जैसी कहानी लिखी जिसमें तिलक और एनी बेसेंट द्वारा शुरू किए गए "होमरूल" या "स्वदेशी" आंदोलन का खुला समर्थन पूर्ण रूप से चित्रण किया गया था। कहानी का केन्द्रीय पात्र दयानाथ अपने पिता से कहता है – “अब तक मैं राजनैतिक कामों से दूर भागता रहा हूँ। किन्तु अब देश में जागृति फैल रही है, अकर्मण्यता का समय नहीं है। इस तरह तटस्थ बैठे रहना अपने देशवासियों पर घोर अत्याचार है।”

प्रेमचंद ने स्वाधीनता आंदोलन से जुड़े कल्पित प्रसंगों में ऐसे वैविध्य की सृष्टि की है कि उनमें नवीनता बनी रहती है। "सुहाग की साड़ी" उन दिनों की कहानी है, जब सत्याग्रह आंदोलन के तहत विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और विलायती कपड़ों की होली जलाने का कार्यक्रम जारी था।

"चकमा" में असहयोग आंदोलन के उस कार्यक्रम का चित्रण है जिसमें विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के लिए व्यापारियों और दुकानदारों से शपथ-पत्र पर हस्ताक्षर कराये जाते थे कि वे न तो विदेशी वस्तुओं का भंडार रखेंगे न बेचेंगे।

"सती" कहानी ऊपर से देखने पर एक ऐतिहासिक कथा प्रतीत होती है, पर यह भी मूल अर्थ में देश की आज़ादी से संबन्धित कहानी है। इसमें एक ऐसी बहादुर बुंदेल कन्या का चित्रण किया गया है जो वीरता, त्याग और देश प्रेम की प्रतीक है। वह इसे ही अपने जीवन का चरम लक्ष्य मानती है और इसके लिए अपना सब कुछ,यहाँ तक की जीवन भी नष्ट कर डालती है।

प्रेमचंद पहले से ही ऐसी कहानियाँ लिखते आ रहे थे। जिनमें राष्ट्रीयता का बहुत गहरा बोध होता था। इस काल की अपनी कुछ कहानियों में भी वे अतीत को आधार बनाकर समकालीन औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध लड़ने की प्रेरणा देते हैं।

1930-31 में प्रेमचंद ने स्वाधीनता आंदोलन से प्रेरित होकर नौ कहानियाँ लिखी थी। यह वही समय था जब गाँधी जी का "नमक सत्याग्रह" आंदोलन का प्रभाव था और अनेक लोगों के समान प्रेमचंद का हृदय भी आज़ादी के भावों से उदद्वेलित होकर जेल जाने के लिए मचल रहा था। वे जेल न जा सके थे, पर पत्नी शिवरानी देवी ने जेल जाकर मानो उन्हीं की तमन्ना पूरी कर दी थी। प्रेमचंद की राष्ट्रीय भावना का स्त्रोत कोंग्रेसी आंदोलन नहीं, बल्कि जनता के बीच जगी राष्ट्रीय चेतना थी, जिससे स्वयं प्रेमचंद भी एकाकार थे। उसी राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति उनकी कहानियों में अद्भुत संवेदनात्मक शक्ति के साथ हुई है।

"समर यात्रा"(1930) सन् तीस के आंदोलन पर आधारित एक और अच्छी कहानी है। इसमें भी स्वाधीनता आंदोलन के प्रति जनोत्साह का बहुत प्रभावी चित्रण किया गया है।

"पति और पत्नी" (1930) एक ऐसे दंपति की कहानी है, जिसमें पति सरकारी अफ़सर और सरकार का समर्थक तथा पत्नी राष्ट्रभक्त है। सत्याग्रह आंदोलन जारी है और विदेशी वस्त्रों की होली जलायी जा रही है। पर पत्नी चाह कर भी इस कार्यक्रम में हिस्सा नहीं ले सकती। पर अंततः वह पति की आज्ञा के विपरीत चलने का निश्चय करती है और कोंग्रेस के जलसे में भाग लेने के लिए चली जाती है।

"होली का उपहार" (1931) में एक नवविवाहिता लड़की आज़ादी की लड़ाई में न केवल निडर भाव से हिस्सा लेती है, बल्कि युवकों का नेतृत्व भी करती है, अपने नवयुवक पति को भी इस लड़ाई में हिस्सा लेने को प्रेरित करती है और उसके गले में फूल–माला डाल कर जेल जाने के लिए विदा करती है। प्रेमचंद की कहानियाँ इस सत्य को बहुत ही कलात्मक ढंग से उजागर करती हैं कि आज़ादी की लड़ाई में स्त्रियाँ भी पीछे नहीं थीं।

प्रेमचंद की कहानियों में जहाँ राष्ट्रीयता का स्वर है वहीं सांप्रदायिक सद्भावना का भी स्वर दृष्टिगोचर होता है। 1924 में प्रकाशित "मुक्ति धन" कहानी में प्रेमचंद औपनिवेशिक शासन में एक मुसलमान किसान की नियति का अंकन करते हैं, जो न तो "मुसलमान" होता था न "हिन्दू" वह केवल किसान होता था। इसलिए प्रेमचंद की कहानियों में हिन्दू और मुसलमान किसानों की अलग पहचान नहीं होती।

हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव के कहानीकार के रूप में प्रेमचंद बेमिसाल हैं। वे ऐसे हिन्दू और मुस्लिम पात्रों का निर्माण करते हैं जिनमें असाधारण धार्मिक सहिष्णुता होती है। "मंदिर और मस्जिद"(1925) में चौधरी इतरअली ऐसे ही उच्चवर्गीय जागीरदार पात्र हैं वे न तो मुसलमानों द्वारा हिन्दू मंदिर पर हमले को बरदाश्त करते हैं और न ही हिंदुओं द्वारा मस्जिद पर किए गए आक्रमण को। वे मानते हैं कि "किसी के दीन की तौहीन करने से बड़ा और कोई गुनाह नहीं है।" इसका मूल्य उन्हें अपने दामाद और स्वामिभक्त सेवक की मृत्यु के रूप में चुकाना पड़ता है।

"हिंसा परमो धर्म" सांप्रदायिक दरिंदगी का पर्दाफ़ाश और सद्भाव का उजागर करने वाली एक उल्लेखनीय कहानी है। इस कहानी का केन्द्रीय पात्र एक सीधा सादा मुसलमान है जो सेवाधर्म का पुजारी है। हिन्दू हो या मुसलमान, सबकी सेवा करना ही वह अपना एकमात्र कर्तव्य समझता है। उसके लिए हिन्दू और मुसलमान में कोई फ़र्क नहीं है। दूसरी ओर हिन्दू और इस्लाम के पक्के अनुयायी हैं, जो हिंसा को ही अपना परम धर्म समझते हैं। अपने इस मानवीय समझ के लिए जामिद को बहुत तकलीफ़ें झेलनी पड़ती हैं, पर वह अपना मानवीय धर्म नहीं छोड़ता।

इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रेमचंद जी ने अपने अधिकांश कहानियों में राष्ट्रीय एकता और धार्मिक सद्भावना का चित्रण किया है।

संदर्भ

1. हिन्दी कहानी का इतिहास – गोपाल राय – प्रथम संस्करण – 2011
2. हिन्दी कथा साहित्य एक दृष्टि – सत्यकेतु सांस्कृत – प्रथम संस्करण- 2013

- डॉ. तरन्नुम बानो
असिस्टेंट प्रोफेसर
कर्नाटक केन्द्रीय विश्वविद्यालय

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