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प्रिय राम.......

समीक्ष्य कृतिः प्रिय राम (निर्मल वर्मा के पत्र रामकुमार के नाम)
सम्पादिकाः गगन गिल
प्रकाशकः भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली
प्र० वर्ष : 2006
मूल्यः 130 रुपए
पृ० संख्याः 164

प्रिय राम (निर्मल वर्मा के पत्र रामकुमार के नाम) निर्मल वर्मा के निधन के बाद उनकी रचना यात्रा की प्रथम प्रकाशित प्रस्तुति है। जिसका संकलन उनकी तीस वर्ष छोटी पत्नी और सहधर्मिणी गगन गिल ने किया है। वर्षों पहले जयदेव तनेजा ने मोहन राकेश के पत्र संकलित किए थे। प्रिय राम निर्मल वर्मा के पाँच साल बड़े भाई चित्रकार, कहानीकार रामकुमार को लिखे पत्रों का संकलन है। इन पत्रों में निर्मल वर्मा के प्राग जीवन की छवियाँ हैं और स्वदेश लौटने के बाद का अंकन है। उनके जीवन के ऐसे वर्ष, जिनकी लगभग कोई जानकारी अब तक उपलब्ध नहीं थी। इन पत्रों में निर्मल जी का जिया हुआ वह जीवन है, जो बाद में उनके कथा साहित्य का परिवेश बना।....( रैपर) हुआ यूँ कि निर्मल के देहावसान के कुछ समय बाद एक शाम भाई रामकुमार की पत्नी यानी छोटी भाभी, राम को लिखे निर्मल के पत्रों का पुलिन्दा सिलसिलेवार लगाकर ले आई और गगन जी ने उन्हें पुस्तकाकार में सम्पादित कर दिया। 

भूमिका के बाद पुस्तक को तीन खंडों में बाँटा गया है।
 
खंड १: प्रिय राम में रामकुमार को निर्मल वर्मा द्वारा लिखे गए ६८ पत्र हैं, जिनका समय १२ जनवरी, १९६७ से लेकर ७ अप्रेल, १९९५ तक है। विश्व के विभिन्न हिस्सों प्राग, क्लाद्नों, दिल्ली, नैनीताल , बेंगलोर, शिमला, अमेरिका, मदुरा बुदापेस्ट, भूपाल, शिमला, लंदन से निर्मल ने यह पत्र अपने भाई राम को लिखे हैं। 

खंड २: प्रिय निर्मल में निर्मल वर्मा के नाम रामकुमार का अंतिम पत्र है, जिसे उन्होंने २५ दिसम्बर, २००५ को निर्मल की मृत्यु के बाद लिखा था।

खंड ३: परिशिष्ट में निर्मल वर्मा के कागजों में मिले रामकुमार के १९६० और १९६२ को लिखे दो आरम्भिक पत्र संकलित हैं। नया ज्ञानोदय दिसम्बर, २००५ में 
प्रकाशित रामकुमार का स्मृति लेख असहमति की अकेली आवाज, टाइम्ज ऑफ इंडिया से १ जून, १९९७ में की गई निर्मल की रामकुमार विषयक बातचीत हम दोनों में एक खास आत्मसंशय है तथा हिन्दुस्तान टाइम्स २३ जुलाई, १९९७ में निर्मल की इतिहास से मुलाकात संकलित है।

किशोर और युवक निर्मल के तीन चित्र भी पुस्तक में मिलते हैं। आवरण पृष्ठ पर किशोर निर्मल का चित्र है। अंदर निर्मल का एक चित्र मित्रों के साथ है और एक भाई रामकुमार के साथ १९५० का चित्र है।

निर्मल के इन पत्रों का ऐतिहासिक महत्त्व है। यह पत्र दो महान रचनाकारों की रचना यात्रा को समझने में मदद करते हैं, उनके जीवन संघर्ष एवं यातनाओं का परिचय देते हैं। अपने वैयक्तिक जीवन और उसकी हलचलों के विषय में निर्मल लम्बी चुप्पी साधे रहे हैं। यह पत्र चुप्पी के दायरे का अतिक्रमण करते उनकी रचनाप्रक्रिया को स्पष्ट करते हैं। मोराविया घूमने के प्रसंग से अंतर कहानी स्मरण आती है। अंतिम अरण्य की यात्रा पर प्रकाश पड़ता है। लन्दन की बेकारी में लन्दन की एक रात झलकती है। परिन्दे और माया दर्पण का जब तब जिक्र मिलता है।

पत्रों की शुरूआत जनवरी १९६७ से होती है। इन दिनों निर्मल और उनकी पत्नी डॉ० बकुल प्राग में थे। १९७० के आरम्भिक दिनों में वे भारत लौट आए, लेकिन पत्नी और बेटी के लंदन होने के कारण उनके लंदन चक्कर लगते रहे। १९७३ से १९७४ तक के पत्र इंस्टीट्यू ऑफ एडवान्सड स्टडीज शिमला से हैं। पत्रों से स्पष्ट है कि १९८१ से १९८३/९४ तक वे मध्यप्रदेश कलापरिषद भूपाल से जुड़े रहे। १९८३ के बाद का पत्र १९९४ का है। यानी यहाँ पत्रों के बीच ग्यारह वर्ष का लम्बा अन्तराल दिखाई देता है। सम्पादिका ने स्पष्ट नहीं किया कि इस बीच निर्मल मौन रहे या पत्र उपलब्ध नहीं थे।

मन की गहराइयों से निर्मल परिवार से जुड़े थे। पारिवारिक सदस्यों में पत्नी डॉ० बकुल, बेटी पुतुल, माँ जी, टुलू, छोटी भाभी, बडी भाभी, भैया, निर्मला, सरला, पोनी बाबू, कमला बेवे, बिन्नी, बिमला, दुर्गा, बबली, बीना, पित्ती जी, गगन के नाम एकाधिक बार आए हैं। वे बार-बार इन सदस्यों के स्वास्थ्य, पढ़ाई, आर्थिक स्थिति आदि की चिन्ता करते दिखाई देते हैं। 

साहित्यिक मित्रों में भीष्म साहनी, ओम प्रकाश, नामवर जी, श्रीमती सन्धू, डॉ० मदान, कमलेश्वर, अमृतराय, बलदेव कृष्ण वैद, कृष्णा सोबती, श्रीकान्त, श्रीपतजी, वात्स्यायन, महेन्द्र भल्ला का जिक्र मिलता है।

निर्मल का कथाकार इन पत्रों में सर्वत्र पालथी मारे बैठा है। जैसेः

“जब कोई कहता था आजकल माँ जी कानपुर में हैं या कन्टोनमेंट में हैं तो चुपचाप यह भ्रम होता था कि उनके साथ हमारा घर कानपुर में है, कन्टोनमेंट में है- वह हम सब के बीच महज कड़ी नहीं थी, हमें एक दूसरे से जोड़ने के लिए- वह उससे कहीं ज्यादा थी, एक केन्द्रीय बिन्दु, जिसके आसपास हम सब अपने माल- असबाब समेत घूमते थे, वह हमें जोड़ती नहीं थी, उनके रहते हम खुद-ब-खुद एक दूसरे से जुड़े रहते थे।” (७८)

हर पत्र में प्रकृति की चर्चा निर्मल के प्रकृति प्रेम एवं पर्यावरण विषयक समझ को स्वर देती है। जैसे :

१. कश्मीर की पतझड़ अपने में अद्वितीय सुख है। (पृ० २३)

२. रात के समय टहलते हुए बर्फ में ढका प्राग बहुत विचित्र सा जान पड़ता है। (पृ० २८) 

३. अप्रेल में ही तितीरी धूप सताने लगेगी।(पृ० ४८) 

उच्चवर्ग का अभिजात अर्थसंकट, मकान/घर की विकट समस्या, एयर टिकट/वीजा की व्यवस्था, पारिश्रमिक/स्टर्लिंग, अखबारी खबरें, राजनैतिक चिन्तन तो निर्मल के जीवन और पत्रों में स्थायी रूप से समाए लगते है। नई कहानियाँ, कल्पना, सारिका, धर्मयुग, राजकमल आदि पत्रिकाओं और प्रकाशन संस्थानों का, सिने जगत के लोगों में माया दर्पण पर पिक्चर बनाने के संदर्भ में कुमार शाहनी का जिक्र मिलता है। भाई के चित्रों और उनकी प्रदर्शनियों की पर्याप्त चिन्ता है। चित्रकार हुसैन, डॉ० क्रासा, मैक्स अर्नेस्ट, मार्सेल मार्चो, त्वनंनसज आदि का उल्लेख भी मिलता है।

्रों की भाषा में वही अजनबीप की गंध, रुमानी झुकाव है, प्रवासी अनुभूतियों का ताँता मिलता है, जो उनकी भाषा को अद्वितीय बनाता है। 

१. यों भी गर्मियों में मुझे प्राग पराया शहर जान पड़ता है। टूरिस्टों से भरा हुआ। (२९)

२.यहाँ गर्मियों के लम्बे दिन शुरू हो गए हैं। रात के नौ-दस बजे तक दिन का आलोक रेंगता रहता है।(७५)

३.बीच में कभी कभी एक पगली सी इच्छा होती थी मैं एकदम वापिस लौट आऊँ- जैसे महज घर लौट आने से ही कुछ कर सकूँगा, जैसे लौटने के चीलेपबंस। बज से ही मैं अपनी घबराहट से छुटकारा पा सकूँगा।(७८)

सूत्र निर्मल की भाषा का अनिवार्य अंग हैं। जैसेः

१. खूबसूरत चीजें ज्यादा अर्से नही टिकती। (पृ० १८)

२. हर बच्चा एक उपन्यास की तरह शुरू होता है- आरम्भ में काफी गड़बड़ के साथ, किन्तु धीरे-धीरे खुद ब खुद अपनी गति पकड़ लेता हैं। (पृ० २०)

३. सुख के लम्हें तक पहुँचते पहुँचते हम उन लोगों से जुदा हो जाते हैं, जिनके साथ हमनें दुख झेलकर सुख का स्वप्न देखा था।(७०)

उपन्यासों/कहानियों के लेखन/प्रकाशन का उल्लेख, कॉपी राइट और पारिश्रमिक का वर्णन, कॉफी हाउस, संगीत का जिक्र यहाँ-वहाँ मिल जाता है।
संपादिका ने पाद टिप्पणियों के जरिए अनेक संबधियों, संबंधों और घटनाओं को स्पष्ट किया है।

एक-आध पत्र अँग्रेजी भाषा में भी लिखा है। पत्रों के बीच कहीं-कहीं अँग्रेजी वाक्य भी मिलते हैं। रामकुमार के १९६० और १९६२ में लिखे अँग्रेजी पत्र को सम्पादिका ने हिन्दी में अनूदित करके दिया है तथा १ जून, १९९७ में की गई निर्मल की रामकुमार विषयक बातचीत हम दोनों में एक खास आत्मसंशय है तथा हिन्दुस्तान टाइम्स २३ जुलाई, १९९७ में निर्मल की इतिहास से मुलाकात का अनुवाद मधु बी० जोशी ने किया है।

इन पत्रों में एक साहित्यकार की गहन संवेदनशीलता, लगाव, उसका जीवन संघर्ष, जीवट स्पष्ट होता है। पुस्तक साहित्य प्रेमियों, शोधकर्त्ताओं, सामान्य पाठकों- सभी के लिए मनोरंजक, पठनीय एवं उपयोगी है।

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